संविदा (Contract) क्या है?

संविदा (Contract)- उद्देश्य, प्रकार

संविदा (Contract)

संविदा एक प्रकार का ऐसा करार है जो विधि द्वारा प्रवर्तनीय होता है। हालैण्ड ने संविदा को परिभाषित करते हुए लिखा है कि-“संविदा कई व्यक्तियों द्वारा किये गये करार की अभिव्यक्ति है जिसके द्वारा व्यक्तिलक्षी अधिकार उत्पन्न किये जाते हैं जो उनमें से एक या अनेकों के विरुद्ध प्राप्त होते हैं।”

सैविग्नी ने संविदा को परिभाषित करते हुए कहा है-“संविदा बहुत से व्यक्तियों की ऐसी इच्छा की समेल अभिव्यक्ति है जिसका आशय उनके बीच एक कर्तव्य का सृजन करता है।”

भारतीय संविदा अधिनियम के अनुसार, विधि द्वारा प्रवर्तनीय करार संविदा कहलाते हैं। संविदा का निर्माण उस समय होता है, जबकि एक पक्षकार एक प्रस्ताव स्वीकार करता है जो उसे दूसरे पक्षकार द्वारा किसी कार्य के करने के लिए या उस कार्य से अलग रहने के लिए प्रस्तुत किया जाता है।

प्रत्येक संविदा में एक करार समाविष्ट होता है किन्तु यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक करार संविदा हो, क्योंकि संविदा वही करार होते हैं जो विधि द्वारा प्रवर्तनीय होते हैं। विधि द्वारा कोई भी करार तभी प्रवर्तनीय होता है, जबकि वह धारा 10 में उल्लिखित समस्त शर्तों को पूरा करे। संविदा अधिनियम की धारा 10 के अनुसार, “सभी करार, यदि वे संविदा करने के लिए सक्षम पक्षकारों की स्वतन्त्र सम्मति से विधि पूर्ण प्रतिफल के लिए एवं विधि पूर्ण उद्देश्य से किये जाते हैं और एतत् द्वारा अभिव्यक्त रूपेण शून्य नहीं किये गये हैं, संविदा हैं।”

आवश्यक शर्तें-

उपरोक्त वर्णित परिभाषा से यह स्पष्ट होता है कि किसी करार को विधि द्वारा प्रवर्तनीय होने के लिए कुछ आवश्यक शर्तें पूरी करना आवश्यक है, जो हैं-

  1. पक्षकार करार करने हेतु सक्षम होने चाहिए।
  2. करार पक्षकारों की स्वतन्त्र सम्मति से होना चाहिए।
  3. संविदा के लिए प्रतिफल होना चाहिए।
  4. प्रतिफल का विधिपूर्ण उद्देश्य होना चाहिए ।
  5. अधिनियम के अन्तर्गत स्पष्ट रूप से शून्य घोषित नहीं होना चाहिए।
  6. कुछ विशिष्ट मामलों में, जैसा कि विधि द्वारा उपबन्धित हो, करार लिखित या गवाहों की उपस्थिति में अथवा पंजीकृत होना चाहिए।

संविदा विधि में संविदा का कोई प्रारूप निर्धारित नहीं किया गया है। संविदा सदैव ही लिखित होना आवश्यक नहीं है, संविदा मौखिक भी हो सकती है। अत: पक्षकार इस बात के लिए स्वतन्त्र है कि वे संविदा को किसी भी प्रारूप में निष्पादित करे, परन्तु जब कोई व्यक्ति राज्य सरकार या केन्द्रीय सरकार से संविदा करता है तब उसे एक विशेष प्रारूप में होना चाहिए तथा उसे निष्पादित किया जाना चाहिए। इस प्रकार का प्रावधान रेलवे अधिनियम तथा भारतीय संविधान में है किन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि रेलवे अधिनियम अथवा संविधान ने संविदा अधिनियम को अधिष्ठित कर दिया है।

संविदा के प्रकार

संविदा निम्नलिखित प्रकार की होती है-

  1. अभिव्यक्त संविदा

    अभिव्यक्त संविदा वह होती है जिसकी शर्तें लिखित रूप में या मौखिक रूप में शब्दों द्वारा घोषित की जाती है।
  2. प्रलाक्षत सावदा

    प्रलक्षित संविदा वह होती है जिसमें कि दोनों पक्षकारों में से किसी की तरफ से संविदा करने का कोई आशय नहीं होता है, परन्तु विधि एक संविदा आरोपित करती है। उदाहरण के लिए, एक खोई हुई वस्तु को पाने वाला व्यक्ति इस कर्तव्य के अधीन होता है कि वह उस वस्तु के स्वामी को ढूँढ़े तथा वह वस्तु उसे वापस करे यदि वह वस्तु किसी गलत आदमी को दे दी जाती है तब गलत रूप से प्राप्त करने वाले का यह कर्तव्य होता है कि या तो वह उस वस्तु को वापस करे या उसका मूल्य दे।
  3. विवक्षित संविदा

    विवक्षित संविदा वह होती हैं जो शब्दों की अपेक्षा अन्य प्रकार से बनती है तथा पक्षकारों के आचरण से जिसका आशय निकलता है या विधि जिसकी परिकल्पना करती है कि उन्होंने विधि द्वारा प्रवर्तनीय एक संविदा करने का इरादा किया है।

“प्रत्येक संविदा करार है जबकि प्रत्येक करार संविदा नहीं है।”

उपरोक्त उक्ति संविदा विधि की महत्वपूर्ण उक्ति है जो संविदा एवं करार के बीच अन्तर स्थापित करती है। प्रख्यात विधिवेत्ता सामण्ड द्वारा दी गई परिभाषा ही उपरोक्त कथन का सार है जिसका विवेचन भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 2(ज) में की गई है जो इस प्रकार है-“विधि द्वारा प्रवर्तनीय करार संविदा है।” शब्द करार की परिभाषा धारा 2(ङ) में दी गयी है। इसके अनुसार एक-दूसरे के लिए प्रतिफल होने वाली प्रत्येक प्रतिज्ञा और प्रत्येक प्रतिज्ञा-संवर्ग करार है। इस प्रकार धारा के अनुसार एक स्वीकृत प्रस्थापना एक करार होती है तथा विधि द्वारा प्रर्वतनीय करार को संविदा कहते हैं।

इस प्रकार प्रत्येक संविदा एक करार होती है परन्तु प्रत्येक करार संविदा नहीं होता है। करार विधि द्वारा प्रर्वनीय हो सकता है और ऐसा भी हो सकता है जो विधि द्वारा प्रवर्तनीय न हो। जो करार विधि द्वारा प्रवर्तनीय होता है उसे संविदा कहते हैं, परन्तु जो करार विधि द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होता है उसे संविदा नहीं कहते हैं। करार विधि द्वारा प्रवर्तनीय तभी होता है जबकि धारा 10 में उल्लिखित शर्तों को पूरा किया गया हो।

धारा 10 के अनुसार सभी करार, यदि वे संविदा करने के लिए सक्षम पक्षकारों की स्वतन्त्र सम्मति से विधिपूर्ण प्रतिफल के लिए और विधिपूर्ण उद्देश्य से किये जाते हैं और एतद् द्वारा अभिव्यक्त रूपेण शून्य घोषित नहीं किये गये हैं, संविदा हैं।

इस प्रकार विधि द्वारा प्रवर्तनीय होने के लिए किसी करार को अग्रलिखित शर्तें पूरी करना आवश्यक है-

  1. समझौता या करार-

    करार की उत्पत्ति प्रस्ताव व स्वीकृति से होती है। जब एक पक्ष प्रस्ताव रखता है और दूसरा पक्ष जैसे ही अपनी स्वीकृति प्रदान करता है, स्वीकृति मिलते ही करार का निर्माण हो जाता है। संविदा का भी निर्माण उपरोक्त रिति से होता है, इसलिए प्रत्येक संविदा करार है।

बीस बनाम टायबाल्ड के बाद में यह स्पष्ट किया गया कि वार्तालाप के दौरान प्रस्तावक के कथन को स्वीकार कर लेने से बन्धनकारी प्रतिज्ञा का सृजन नहीं होता।

सामाजिक सम्बन्धों या पारिवारिक व्यवस्था के सम्बन्ध में किये गये करार या समझौते के बारे में यह मान लिया जाता है कि पक्षकारों का आशय विधिक सम्बन्ध का निर्माण करना नहीं होता है, जैसे दो व्यक्ति करार करते हैं कि वे साथ-साथ टहलेंगे अथवा सिनेमा देखेंगे। परन्तु व्यापारिक सम्बन्धों को तय करने वाले करारों के बारे में यह उपधारणा की जाती है कि पक्षकारों का आशय विधिक सम्बन्ध सृजित करने का था। यह उपधारणा अन्तिम नहीं हैं और इसका खण्ड भी किया जा सकता है।

  1. सक्षम पक्षकार-

    संविदा के निर्माण के लिए संविदा के पक्षकारों का संविदा करने के लिए सक्षम होना आवश्यक है। धारा 11 के अनुसार, प्रत्येक ऐसा व्यक्ति संविदा करने के लिए सक्षम हैं जो उस विधि के अनुसार जिसके अधीन है, वयस्कता की आयु का है और स्वस्थ चित्त का है तथा जिस विधि के अधीन हैं उसके द्वारा संविदा करने के अयोग्य नहीं घोषित किया गया है। इस प्रकार अवयस्क, विकृत चित्त वाले व्यक्ति तथा ऐसे व्यक्ति जो विधि द्वारा संविदा करने से अयोग्य घोषित किये गये हैं, संविदा करने में सक्षम नहीं हैं।

भारतीय वयस्कता अधिनियम के अनुसार अवयस्कता की आयु 18 वर्ष होती है, परन्तु जिन अवयस्कों के लिए सक्षम न्यायालय द्वारा अभिभावक नियुक्त कर दिया जाता है उनकी अवयस्कता की आयु 21 वर्ष होती है।

  1. स्वतन्त्र सम्मति का होना-

    एक वैध संविदा के निर्माण के लिए पक्षकारों की स्वतन्त्र सम्मति की आवश्यकता होती है। सम्मति की परिभाषा धारा 13 में दी गयी है- “जब दो या दो से अधिक व्यक्ति एक ही बात पर एक ही भाव में करार करते हैं तो उनके बारे में कहा जाता है कि वे सम्मत हुए हैं।”

संविदा के निर्माण के लिए वास्तविक सम्मति होनी चाहिए। यदि किसी भूल के कारण वास्तविक सम्मति उत्पन्न नहीं होती है, तो संविदा का निर्माण नहीं होता है। जब भूल के कारण संविदा के पक्षकारों की वास्तविक सम्मति का अभाव होता है तो संविदा का निर्माण नहीं होता है।

पक्षकारों की सम्मति होनी चाहिए। धारा 14 में स्वतन्त्र सम्मति की परिभाषा दी गयी है। इसके अनुसार पक्षकारों का मत या सम्मति मिथ्या व्यपदेशन अथवा उत्पीड़न या बल प्रयोग या असम्यक् प्रभाव या कपट अथवा भूल जनित होती है, तो वह सम्मति स्वतन्त्र सम्मति नहीं कहलाती है।

  1. प्रतिफल –

    संविदा के निर्माण हेतु प्रतिफल आवश्यक है। प्रतिफल रहित करार संविदा नहीं होते हैं, परन्तु धारा 25 के प्रावधानों के अनुसार कुछ परिस्थितियों में प्रतिफल रहित करार भी वैध संविदा होता है। धारा 25 में वर्णित अपवादों के अतिरिक्त सदैव प्रत्येक करार प्रतिफल सहित होना चाहिए, तभी वैध संविदा का गठन हो सकता है।

उन परिस्थितियों में जो कि धारा 25 के अपवाद नहीं हैं तथा साधारण करार की श्रेणी में आते हैं, प्रतिफल वैध होने चाहिए तथा वैध से अभिप्राय हेतु होना चाहिए।

प्रतिफल निम्नलिखित दशाओं में अवैध हो जाता है-

  • यदि वह कपटपूर्ण है।
  • यदि वह विधि के अनुसार निषिद्ध है।
  • यदि इससे किसी अन्य व्यक्ति के शरीर या सम्पत्ति को हानि पहुँचती हो।
  • यदि वह इस प्रकार का है कि इसको मान्यता देने पर यह किसी नियम के विपरीत होगा।
  • यदि न्यायालय के मतानुसार प्रतिफल अनैतिक है या लोकनीति के विरुद्ध है।
  1. अभिव्यक्त रूप से शून्य घोषित नहीं-

    करार तभी संविदा हो सकता है जबकि उपर्युक्त शर्तों की पूर्ति की गयी हो तथा यह अधिनियम द्वारा स्पष्ट रूप से शून्य घोषित न किया गया हो। इस अधिनियम के अन्तर्गत कुछ करारों को स्पष्ट रूप से शून्य घोषित किया गया है, जिनका वर्णन धारा 24 से 30 तथा धारा 50 में किया गया है। ये निम्नलिखित प्रकार हैं-
  • जब करार के दोनों पक्ष ऐसे तथ्य की भूल में हों जो एक इकरार के लिए अनिवार्य हो, तो करार शून्य होगा।
  • विवाह में अवरोध डालने वाले करार ।
  • व्यापार में रुकावट डालने वाले करार ।
  • वैधानिक कार्यवाही में रुकावट डालने वाले करार ।
  • बाजी के करार |
  • असम्भव कार्य करने के कंरार ।
  1. विधि सम्मत अन्य औपचारिकताएँ-

    साधारण संविदा अधिनियम के करा द्वारा, धारा 25 के अतिरिक्त कुछ औपचारिकताओं को पूर्ण करना निर्धारित नहीं किया गया है। प्रत्येक संविदाकर्ता को छूट है कि वह चाहे मौखिक या लिखित किसी भी रूप में संविदा का गठन करें। यदि किसी नियम के अनुसार संविदा का लेखबद्ध तथा पंजीकृत होना अनिवार्य है तो इन प्रावधानों के पालन किये बिना वैध संविदा का गठन होना असम्भव होगा। निम्न परिस्थितियों में

साधारणतया संविदा को लेखबद्ध तथा पंजीकृत होना चाहिए-

  • जहाँ करार कालबद्ध ऋण की अदायगी के सम्बन्ध में है।
  • जहाँ करार द्वारा अचल सम्पत्ति का हस्तान्तरण किया जाता है।
  • आपसी मतभेद की स्थिति में पंचाट द्वारा मतभेद के निर्धारण का करार।

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