प्रस्ताव / प्रस्थापना (Proposal)

प्रस्ताव / प्रस्थापना (Proposal)

प्रस्ताव (Proposal)

भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 के अनुसार ‘प्रस्थापना’ शब्द अंग्रेजी संविदा विधि में प्रयुक्त शब्द ‘प्रस्ताव’ का पर्यायवाची है।

प्रस्ताव में प्रस्तावक किसी अन्य (दूसरे) व्यक्ति को कार्य करने से प्रविरत रहने की स्वयं की इच्छा को उस व्यक्ति की सहमति प्राप्त करने हेतु संज्ञात करता है तथा जब वह व्यक्ति सहमति दे देता है तो वह प्रतिज्ञा हो जाती है। इस प्रकार प्रस्ताव में प्रस्तावकर्ता संविदा से बाध्य होने की अपनी अन्तिम इच्छा प्रकट करता है यदि दूसरा पक्ष उसके प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता है तो वह संविदा हो जाती है। प्रस्थापना करने वाला व्यक्ति वचनदाता (प्रतिज्ञाकर्ता)और प्रस्थापना को प्रतिग्रहीत करने वाला व्यक्ति वचनग्रहीता (प्रतिज्ञाग्रहीता) कहलाता है।

प्रस्ताव की परिभाषा संविदा अधिनियम की धारा 2 (क) में दी गयी है। भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 2 (क) में प्रस्थापना की परिभाषा इस प्रकार दी गयी है-“जो एक व्यक्ति, किसी कार्य को करने या करने से प्रविरत रहने की अपनी इच्छा ऐसे कार्य या प्रविरति के प्रति किसी दूसरे की अनुमति अभिप्राप्त करने की दृष्टि से उस दूसरे को संज्ञात करता है, तब उसके बारे में कहा जाता है कि वह प्रस्थापना करता है।”

विधिक प्रस्थापना के आवश्यक तत्व

  1. व्यक्ति-

    विधिक प्रस्थापना के लिए कम से कम दो व्यक्तियों का होना आवश्यक है। कोई व्यक्ति अपने आपको प्रस्थापना अथवा प्रस्ताव नहीं कर सकता है। “व्यक्ति” शब्द के अन्तर्गतप्राकृति व्यक्ति तथा कृत्रिम अथवा विधिक व्यक्ति दोनों ही म्मिलित हैं। जो व्यक्ति प्रस्थापना करता है उसे वचनदाता और जो व्यक्ति प्रस्थापना को स्वीकार करता है उसे बचनग्रहीता कहा जाता है।

  2. प्रस्थापना की संसूचना-

    प्रस्थापक अथवा प्रस्तावक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह प्रस्थापना अथवा प्रस्ताव की सूचना उस व्यक्ति को दे जिसको उक्त प्रस्थापना अथवा प्रस्ताव किया गया है। जैसा कि धारा 2 (क) में दी गयी परिभाषा से स्पष्ट है, प्रस्थापक अथवा ‘प्रस्तावक’ किसी कार्य को करने अथवा करने से प्रविरत रहने की अपनी इच्छा दूसरे व्यक्ति को संसूचित करता है। प्रतिग्रहीता बिना प्रस्थापना के ज्ञान के उसको प्रतिग्रहीत नहीं कर सकता है। पहले प्रतिग्रहीता को प्रस्थापना का ज्ञान होना चाहिए तथा तत्पश्चात् उसे उसका प्रतिग्रहण करनाचाहिए।

यदि प्रस्थापना में विशेष शर्तें हैं तो ऐसी स्थिति में प्रस्थापक को चाहिए कि वह प्रतिग्रहीता अथवा स्वीकर्ता को शर्तों की युक्तियुक्त सूचना दे दे। प्रतिग्रहीता उक्त शर्तों से बाध्य तभी होगा जबकि उसे उन शर्तों की स्पष्ट और युक्तियुक्त सूचना दे दी गयी हो। उदाहरण के लिए हेण्डरसन बनाम स्टेवेन्सन के वाद में टिकट के पीछे लिखा था कि कम्पनी यात्रियों के सामान के नुकसान के लिए उत्तरदायी नहीं होगी, परन्तु टिकट के मुखपृष्ठ पर कोई संकेत या चेतावनी नहीं थी कि शर्तों के लिए टिकट के पीछे देखिए। वादी ने टिकट के पीछे नहीं देखा और शर्त को नहीं पढ़ा। एक यात्री के सामान को कम्पनी कर्मचारियों की असावधानी के कारण हानि हुई। उस यात्री ने वाद संस्थित किया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि उक्त शर्त की युक्तियुक्त सूचना यात्रियों को नहीं दी गयी और इस कारण यह शर्त यात्रियों पर बन्धनकारी नहीं थी और कम्पनी को यात्री के सामान को हुई हानि के लिए उत्तरदायी ठहराया गया। यदि शर्त स्पष्ट रूप से उल्लिखित हो और प्रस्थापक ने वह सब कुछ किया है जो प्रतिग्रहीता को शर्तों को संसूचित करने के लिए युक्तियुक्त रूप से पर्याप्त है (जैसे टिकट के मुख-पृष्ठ पर लिखा हो कि शर्तों के लिए पीछे देखिए) तो प्रतिग्रहीता उक्त शर्तों से बाध्य हो जायेगा और वह यह तर्क नहीं दे सकता है कि उसने शर्तों को नहीं पढ़ा अथवा शर्तों से अनभिज्ञ था अथवा जिस भाषा में शर्त छपी थी उसे उस भाषा का ज्ञान नहीं था अथवा उसने शर्तों को पढ़ा परन्तु समझ नहीं सका अथवा अनपढ़ होने के कारण या अंधा होने के कारण या किसी अन्य कारणवश वह पढ़ नहीं सकता था।

भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 3 से स्पष्ट हो जाता है कि प्रस्थापनाओं की संसूचनाप्रस्थापनाओं का प्रतिग्रहण और प्रस्थापनाओं तथा प्रतिग्रहणों का प्रतिसंहरणक्रमश: प्रस्थापना करने वाले, प्रतिग्रहण करने वाले अथवा प्रतिसंहरण करने वाले पक्षकार के ऐसे कार्य या कार्यलोप से समझा जाता है जिसके द्वारा वह ऐसी प्रस्थापना, प्रतिग्रहण अथवा प्रतिसंहरण को संसूचित करने का आशय रखता है अथवा जो उसे संसूचित करने का प्रभाव रखता है। इस प्रकार संविदा के निर्माण के लिए प्रस्थापना तथा प्रतिग्रहण को संसूचित करना आवश्यक है, यद्यपि कि उस समय प्रस्थापक को प्रतिग्रहण की सूचना देनी आवश्यक नहीं है जबकि प्रस्थापक ने प्रतिग्रहण की सूचना प्राप्त करने के अपने अधिकार को छोड़ दिया है।

  1. प्रस्थापना का उद्देश्य-

    जैसा कि धारा 2 (क) में दी गयी परिभाषा से स्पष्ट है, प्रस्थापक दूसरे पक्षकार को किसी कार्य को करने अथवा करने से प्रविरत रहने की अपनी इच्छा इस आशय से संसूचित करता है कि दूसरा पंक्षकार उसके प्रति अपनी सम्मति दे दे। अतः विधिक प्रस्थापना के लिए इस प्रकार के आशय का होना आवश्यक है।

  2. विधिक सम्बन्ध सृजित करने का आशय-

    वचन दाता एवं वचन गृहीता दोनों के लिए आवश्यक है कि उनका आशय या उद्देश्य विधिक सम्बन्धों के निर्माण करने से हो। बनवारी लाल बनाम सुखदर्शन दयाल के वाद में कुछ भूखण्डनीलामी द्वारा बेचे जा रहे थे। विक्रय की शर्तें लाउडस्पीकर द्वारा बतायी जा रही थीं। लाउडस्पीकर पर यह कहा गया कि एक विशेष नाप का भूखण्ड धर्मशाला के लिए सुरक्षित रखा जायेगा, परन्तु बाद में उस भूखण्ड को भी व्यक्तिगत प्रयोजन हेतु बेच दिया गया। अन्य भूखंड क्रय करने वालों ने उक्त भूखंड के विक्रय को रद्द करने के लिए वाद चलाया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि लाउडस्पीकर द्वारा प्रसारित कथन बिक्री को प्रोत्साहन देने के लिए था और बन्धनकारी नहीं था। परिणामस्वरूप उक्त भूखंड के विक्रय को निरस्त करने की कार्यवाही असफल हो गयी।

वार्तालाप के दौरान दिये गये आशय के कथन अथवा इजहार को स्वीकार कर लेने से बन्धनकारी प्रतिज्ञा का सृजन नहीं होता है। उदाहरण के लिए, वीक्स बनाम टाइबाल्ड के वाद में बातचीत के दौरान प्रतिवादी ने वादी से उस व्यक्ति को 100 पौंड देने को कहा जो उसकी पुत्री के साथ उसकी सम्मति से विवाह करेगा। वादी ने प्रतिवादी की सम्मति से उसकी पुत्री से विवाह किया और उक्त 100 पाँड की माँग की। प्रतिवादी के अस्वीकार करने पर वाद संस्थित किया। न्यायालयने निर्णय दिया कि बातचीत के दौरान प्रतिवादी ने जो कहा था वह केवल आशय का कथन अथवा इजहार मात्र था और प्रस्थापना नहीं था। परिणामस्वरूप इसको स्वीकार करने से बन्धकारी प्रतिज्ञा का सृजन नहीं हुआ था।

व्यापारिक सम्बन्धों को तय करने वाले करार अथवा समझौतों के सम्बन्ध में उपधारणा की जाती हैं कि पक्षकारों का आशय विधिक सम्बन्ध सृजित करने का था, परन्तु इस उपधारणा का खण्डन किया जा सकता है। अतः व्यापारिक सम्बन्धों को तय करने वाले करार के सम्बन्ध में यदि यह सिद्ध कर दिया जाता है कि पक्षकारों का आशय विधिक सम्बन्ध सृजित करने

यह करार के पक्षकार जानबूझकर इस बात का उल्लेख कर देते हैं कि उनका आशय विधिक सम्बन्ध सृजित करने का नहीं है तो न्यायालय उनके वचन को बन्धनकारी नहीं मानेगा। उदाहरण के लिए रोज फ्रैकएण्ड कं० बनाम क्राम्पटनब्रदर्स लि० में दो फर्मों के मध्य एक करार हुआ। करार के एक खण्ड में उल्लिखित था कि यह करार विधिक करार के रूप में नहीं किया गया है और यह न्यायालय के क्षेत्राधिकार के अधीन नहीं होगा। न्यायालय ने निर्णय दिया कि यह करार संविदा नहीं था क्योंकि पक्षकारों का आशय विधिक सम्बन्ध सृजित करने का नहीं था।

5. प्रस्थापना की निश्चितता-

प्रस्थापना अथवा प्रस्ताव निश्चित होना चाहिए। यदि प्रस्थापना अथवा प्रस्ताव निश्चित नहीं है अर्थात् अस्पष्ट है तो वह वैध नहीं होगा। उदाहरण के लिए क ने ख से एक कार खरीदी और वचन दिया कि यदि वह कार उसके लिए भाग्यशाली सिद्ध हो गई तो वह 5 पौंड अधिक देगा अथवा उससे एक और कार खरीदेगा। न्यायालय ने निर्णय दिया कि वचन अनिश्चित होने के कारण प्रवर्तनीय नहीं था।

भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 29 में स्पष्ट रूप से उपबन्ध किया गया है कि वे करार जिनका अर्थ निश्चित किये जाने योग्य नहीं है, शून्य होंगे। उदाहरण के लिए क, ख, को “एक सौ टन तेल” बेचने का करार करता है। यह करार शून्य होगा क्योंकि यहाँ यह निश्चित नहीं है कि किस तरह का तेल बेचने का आशय था। इसी प्रकार क, ख को “अपना घोड़ा पाँच सौ रुपये अथवा एक हजार रु.” के लिए बेचने का करार करता है। यह निश्चित नहीं है कि दोनों में कौन-सी कीमत दी जायेगी। परिणामस्वरूप यह करार अनिश्चितता के कारण शून्य होगा।

प्रस्ताव के प्रकार (Types of Proposal)

प्रस्थापना के विभिन्न प्रकार होते हैं, जिनका विवरण निम्नवत् है-

  1. अभिव्यक्त (Express) प्रस्थापना तथा विवक्षित (Implied) प्रस्थापना

अभिव्यक्त प्रस्थापना वह प्रस्थापना है जिसमे कोई प्रस्ताव शब्दों के माध्यम से रखा जा सकता है, यह प्रस्ताव लिखित या मौखिक दोनों प्रकार के हो सकते हैं। जो प्रस्थापना शब्दों से भिन्न प्रकार से की जाती है अर्थात् व्यवहार अथवा आचरण द्वारा की जाती है उसे विवक्षितप्रस्थापना कहते है। उदाहरण के लिए यदि यात्रियों को एक स्थान से दूसरे स्थान को ले आने और ले जाने के लिए कोई बस चलायी जा रही हैं और कोई व्यक्ति उसमें चढ़ता है तो वह विवक्षित रूप से भाड़ा देने की प्रतिज्ञा करता है। विवक्षित प्रस्ताव अथवा प्रस्थापना का उल्लेख स्टेवेन बनाम ब्रोमलेएण्डसन्स के वाद में भी मिलता है।

इस मामले में स्टेवेनबिलेट्स लादने के प्रयोजन हेतु एक जहाज निश्चित भाड़े की दर पर किराये पर लिया गया। परन्तु स्टेवेनबिलेट्स के स्थान पर व्यापारिक माल लोदा गया जिसके भाड़े की दर उक्त स्टेवेनबिलेट्स के भाड़े की दर से अधिक थी। न्यायालय ने निर्णय दिया है कि मामले के तथ्यों के आधार पर एक नवीन संविदा का सृजन स्पष्ट था। जहाज किराये पर वालों की तरफ से यह विवक्षित प्रस्ताव था कि जहाज का स्वामी व्यापारिक माल लादने की अनुमति दे और वे उक्त माल के लिए वर्तमान भाड़े की दर पर किराया देंगे। जहाज के स्वामी ने उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। फलस्वरूप उसे व्यापारिक माल के लिए अधिक किराया मिलना चाहिए।

2. विशिष्ट प्रस्थापना/प्रस्ताव

इस प्रस्थापना से आशय ऐसी प्रस्थापना से है जो किसी विशेष व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह को की जाती है। इस प्रस्थापना के सम्बन्ध में उल्लेखनीय बात यह है कि यह केवल उसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह द्वारा स्वीकार की जा सकती है जिसको की गयी है, कोई अन्य व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह जैसी भी स्थिति हो, उसे स्वीकार नहीं कर सकता है। उदाहरण के लिए डाक द्वारा अ ब से प्रस्ताव करता है परन्तु पत्र पहुँचने से पहले ही व की मृत्यु हो जाती है। ब का पुत्र प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता है। अ ऐसी स्वीकृति से बाध्य नहीं होगा। इस प्रस्थापना को स्वीकार कर लेने मात्र से संविदा का सृजन नहीं हो सकता।

3. सामान्य प्रस्थापना

इससे आशय ऐसी प्रस्थापना से है जो जनसाधारण को की जाती है। किन्तु संविदा केवल उसी व्यक्ति के साथ होती है जो कि प्रस्थापना की शर्तों को पूरा करता है। इस प्रकार प्रस्थापना किसी निश्चित व्यक्ति अथवा विशिष्ट व्यक्ति को की जानी आवश्यक नहीं है। यह सामान्य जनता को भी की जा सकती है, परन्तु जहाँ प्रस्थापना जनता को की गयी है, वहाँ संविदा तब तक सृजित नहीं हो सकती है जब तक किसी निश्चित अथवा विशिष्ट व्यक्ति द्वारा उसका प्रतिग्रहण नहीं किया जाता है।

यहाँ प्रतिग्रहण की सूचना प्रस्थापक के हित में होती है और परिणामस्वरूप यदि वह चाहे तो प्रतिग्रहण की सूचना प्राप्ति के अपने अधिकार को छोड़ भी सकता है। सामान्य प्रस्ताव (General Offer) या सामान्य प्रस्थापना (general proposal) की स्थिति में प्रतिग्रहण की सूचना प्रस्तावक (प्रस्थापक) को देनी आवश्यक नहीं है क्योंकि ऐसी दशा में यह मान लिया जाता है कि प्रस्तावक (प्रस्थापक) ने संसूचना प्राप्त करने के अपने अधिकार को छोड़ दिया है। जहाँ प्रस्ताव (प्रस्थापना) जनसाधारण को की जाती है अर्थात् सामान्य प्रस्ताव की दशा में प्रस्ताव (प्रस्थापना) की शर्तों को पूरा किया जाना ही प्रस्ताव का प्रतिग्रहण माना जाता है और उस व्यक्ति या व्यक्तियों के साथ संविदा हो जाती हैं जो उनकी शर्तों को पूरा करते हैं। उदाहरण के लिए कारलिल बनाम कारवोलिकस्मोक बॉल कं० के वाद में कम्पनी ने विज्ञापन दिया कि जो भी कम्पनी द्वारा निर्मित कारबोलिकस्मोक बॉल का प्रयोग लिखित निर्देशों के अनुसार करेगा और उसके बाद इन्फ्लूएन्जा से पीड़ित होगा तो कम्पनी उसे 100 पौंडईनाम के रूप में देगी। यह भी कहा कि कम्पनी यह प्रस्थापनागम्भीरता से कर रही है और इसके साक्ष्य के रूप में 1000 पौंडएलायन्स बैंक में जमा कर दिया गया है। कारलिल नामक एक औरत ने उल्लिखित निर्देशों के अनुसार उक्त, बॉल का प्रयोग किया किन्तु उसे इन्फ्लूएन्जा हो गया और उसने उक्त ईनाम का दावा किया। न्यायालय ने कम्पनी का यह तर्क अस्वीकार कर दिया कि कारलिल ने स्वीकृति की संसूचना नहीं दी और इस कारण संविदा का निर्माण नहीं हुआ। न्यायालय ने निर्णय दिया कि ऐसे प्रस्ताव के सम्बन्ध में यह माना जाता है कि प्रस्तावक ने स्वीकृति की संसूचना प्राप्त करने के अधिकार को छोड़ दिया है। प्रस्ताव की शर्तों को पूरा किया जाना ही प्रस्ताव का प्रतिग्रहण माना जाता है और उनके साथ संविदा का निर्माण हो जाता है जो प्रस्ताव की शर्तों को पूरा करते हैं। कम्पनी ने तर्क दिया कि उक्त विज्ञापन को गम्भीरता से नहीं लिया जाना चाहिए था क्योंकि वह संविदा सृजित करने के आशय से नहीं दिया गया था बल्कि वह दवा की बिक्री बढ़ाने के लिए दिया गया था और यह नहीं सोचा गया था कि कोई युक्तियुक्त व्यक्ति उसे गम्भीरता से लेगा। न्यायालय ने इस तर्क को अस्वीकार कर दिया। न्यायालय ने कहा कि विज्ञापन में यह भी कहा गया था कि-इन प्रयोजन हेतु 1000 पौंडएलायन्स बैंक में जमा कर दिया गया था और यह कथन यह दिग्दर्शित करता था कि कम्पनी ने यह प्रस्ताव गम्भीरतापूर्वक किया था।

4. स्थायी अथवा चलत-प्रस्थापना

स्थायी प्रस्थापना से आशय ऐसी प्रस्थापना से है जो स्वीकार करने के लिए एक अवधि तक कायम रहती हैं। उदाहरण के लिए अ, ब से यह प्रस्थापना करता है कि वह जनवरी 2013 से अप्रैल 2013 की अवधि में 40 मन चावल 2300 रु.प्रति मन की दर से उसे बेचेगा। यह स्थायी अथवा चलतप्रस्थापना है। यदि ब इस प्रस्थापना को स्वीकार कर लेता है तो इसका यह तात्पर्य नहीं होगा कि वह 40 मन चावल उस दर से खरीदने के लिए बाध्य होगा अथवा अ 40 मन चावल उस दर से बेचने के लिए बाध्य होगा। ब जितनी मात्रा क्रय करने का आर्डर समय-समय पर देगा उतने के सम्बन्ध में ही उनके मध्य संविदा होगी और शेष के सम्बन्ध में अ बेचने से अथवा ब खरीदने से इन्कार कर सकता है। अतः इस उदहरण में यदि ब अ को 15 मन चावल की आपूर्ति करने का आर्डर देता है, तो 15 मन के सम्बन्ध में उन दोनों के मध्य संविदा हो जायेगी परन्तु शेष 25 मन चावल के सम्बन्ध में उनमें कोई संविदा नहीं होगी और दूसरा आर्डर देने से पूर्व अ अपनी प्रस्थापनाखण्डित कर सकता है और इसी प्रकार दूसरा आर्डर न देकर ब भी शेष 25 मन चावल के सम्बन्ध में संविदा सृजित करने से इन्कार कर सकता है।

5. क्रास प्रस्थापना

जब दो व्यक्तियों द्वारा समान शर्त वाली प्रस्थापना डाक में एक दूसरे को पार करती है तो उसे क्रास प्रस्थापना कहते हैं। ऐसी स्थिति में कोई संविदा सृजित नहीं होती क्योंकि यहाँ प्रस्थापना की विधिक स्वीकृति का अभाव है। प्रस्थापना की विधिक स्वीकृति के लिए यह आवश्यक है कि प्रस्थापना का पहले ज्ञान हो और ज्ञान के बाद वह प्रतिग्रहीत की जाय। उदाहरण के लिए क ख को अपनी घड़ी 100 रु. में बेचने की प्रस्थापना 31 मार्च 1990 को डाक द्वारा भेजता है। उसी तिथि को ख भी क को डाक द्वारा प्रस्थापना भेजता है जिसमें 100 रु. में क की घड़ी खरीदने की अपनी इच्छा प्रकट करता है। दोनों ही प्रस्थापना डाक में एक दूसरे को पार करती हैं। यहाँ पर कोई संविदा सृजित नहीं हुई क्योंकि प्रस्थापना का विधिक प्रतिग्रहण नहीं किया गया है। जिस समय दोनों व्यक्ति पत्र लिख रहे थे उन्हें एक दूसरे की प्रस्थापना अथवा प्रस्ताव का ज्ञान नहीं था।

6. प्रति प्रस्ताव

प्रस्ताव के बदले में उसमें कुछ संशोधन करके जवाबी प्रस्ताव करना प्रति प्रस्ताव करना कहा जाता है। प्रति प्रस्ताव में पहला प्रस्ताव अपने आप रद्द हो जाता है। यदि कोई व्यक्ति अपनी घड़ी 500 रु. में बेचने का प्रस्ताव करता है और खरीदने वाला 100 रु. में देने की बात करता है तो यह 100 रु. में लेने वाली बात एक तरह से दूसरा प्रस्ताव होगा और यही प्रति प्रस्ताव कहलाता है।

7. मानक रूपी प्रस्ताव

ऐसे प्रस्ताव पहले से ही छपवाये गये होते हैं। एक फार्म के रूप में हमेशा मौजूद रहता है। जैसे- जीवन बीमा के फार्म ।

प्रस्ताव के लिए निमंत्रण का अर्थ

प्रस्ताव के लिए निमंत्रण की दशा में निमंत्रण भेजने वाले व्यक्ति की ओर से इस बात का कोई अभिप्राय नहीं होता है कि जिस व्यक्ति को प्रस्ताव के लिए निमन्त्रण भेजा गया है उसकी सहमति प्राप्त की जाय, उसका उद्देश्य केवल इस बात की सूचना देना मात्र होता है कि कोई व्यक्ति उसकी सूचना के अनुसार व्यवहार करना चाहे तो वह उससे व्यवहार करने के लिए तैयार है, प्रस्ताव के लिए निमंत्रण स्वीकृति द्वारा प्रतिज्ञा का रूप नहीं धारण करते।

उदाहरणार्थ- दुकानदार द्वारा मूल्य सूची प्रदर्शित किया जाना तथा मूल्य सूची के सम्बन्ध में पूछे गये प्रश्न के उत्तर में बताया गया न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रस्ताव के लिए निमंत्रण होता है। हार्वें बनाम फैन्सी का वाद प्रस्ताव के लिए निमंत्रण पर प्रमुख वाद है।

वादी ने प्रतिवादी से उसकी भूमि बेचने की इच्छा तथा न्यूनतम मूल्य तार द्वारा सूचित करने की प्रार्थना की। प्रतिवादी ने वादी को सूचित किया कि सम्पत्ति का मूल्य 900 पौण्ड है। वादी ने स्वीकृति का तार भेजा परन्तु प्रतिवादी ने भूमि बेचने से इन्कार कर दिया। वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध वाद किया।

प्रिवीकौंसिल ने अभिनिर्णीत किया कि प्रतिवादी दायी नहीं था क्योंकि वादी द्वारा प्रथम तार प्रस्ताव नहीं था। यद्यपि दूसरा तार प्रस्ताव था जिसे प्रतिवादी ने स्वीकार नहीं किया था।

भारतीय उच्चतम न्यायालय ने उपर्युक्त वाद के सिद्धान्त को मैकफर्सनवर्सेस बनाम अपाना के बाद में लागू किया-

वादी द्वारा प्रतिवादी का बँगला 6,000 रुपये में खरीदने का प्रस्ताव किया गया परन्तु प्रतिवादी ने जवाब में बँगला 10,000 रुपये से कम मूल्य पर बेचने से इन्कार किया। वादी ने 10,000 रुपये में खरीदना स्वीकार कर लिया। बाद में बँगला प्राप्त करने के लिए वाद किया। अभिनिर्धारित हुआ कि प्रतिवादी बँगला बेचने के लिए बाध्य नहीं था क्योंकि प्रतिवादी का यह कहना कि बँगला 10,000 रुपये से कम मूल्य पर नहीं बेचेगा, प्रस्ताव न होकर प्रस्ताव के लिए निमन्त्रण था ।

बद्री प्रसाद स्टेट ऑफ एम०पी० के मामले में डी०एफ०ओ० ने वादी को निम्नलिखित पत्र लिखा-“कृपया आप हमें बताएँ क्या आप उन बड़े वृक्षों को जो अभी विवादग्रस्त हैं संविदा के अन्तर्गत 17,000 रुपये में लेने के लिए तैयार हैं आपको ठेका केवल इस शर्त पर ही दिया जायेगा। आपका उत्तर मिलते ही राज्य सरकार को अवगत करा दिया जायेगा।”

जवाब में वादी ने डी०एफ०ओ० को लिखा कि “मै 17,000 रु. इस शर्त पर देने के लिए तैयार हूँ कि मुझे गाँव के मुखिया से जो 17,000 रु. वापस मिलने हैं, वापस दिलवा दिया जाये तथा वाद के निर्णय के बाद सभी सुविधाओं को बरकरार रखा जाये। इन शर्तों के पूरा हो के बाद ही जैसा आपने कहा है, 17000, रुपये दे दूँगा।”

निर्णीत हुआ कि वादी और सरकार में कोई संविदा नहीं हुई थी क्योंकि डी०एफ०ओ० द्वारा वादी को जो पत्र लिखा गया था वह प्रस्ताव के लिए आमन्त्रण था, प्रस्ताव नहीं ।

परन्तु जहाँ न्यूनतम मूल्य के साथ एक निश्चित प्रस्ताव भेजा जाता है वहाँ स्थिति भिन्न होगी। इस सम्बन्ध में कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा निर्णीत ब्योमकेशबनर्जीv. ननीगोपालबानिक के वाद में—’अ’ ने ‘ब’ से प्रस्ताव किया कि वह उसकी भूमि 3000 रुपये प्रति कट्टे के हिसाब से खरीदने के लिए तैयार हैं। परन्तु ‘ब’ ने उसे स्वीकार नहीं किया और कहा कि उसे 3250 रुपये प्रति कट्टे के हिसाब से प्रस्ताव मिले हैं और साथ में यह भी कहा कि यदि वह 3300 रुपये प्रति कट्टे के हिसाब से जमीन क्रय करने के लिए तैयार हो तो 3000 रु. एडवान्स भेज दे। ‘अ’ ने 3000 रु. का बैंक ड्राफ्ट रजिस्टर्ड डाक से भेजा परन्तु रजिस्ट्री लौट आयी। ‘अ’ ने दुबारा रजिस्ट्री की जो कि लौट आयी क्योंकि ‘ब’ ने इसे लेने से इन्कार कर दिया था।

निर्णीत हुआ कि ‘ब’ द्वारा 3300 रु. प्रति कट्टे के हिसाब से मूल्य माँगना तथा 3000 रुपये एडवांस माँगना एक प्रस्ताव था जो ‘अ’ द्वारा स्वीकृति का पत्र भेजने के साथ संविदा के रूप में परिवर्तित हो गया था।

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