प्रस्ताव, स्वीकृति एवं उनके विखण्डन के नियम

प्रस्ताव और स्वीकृति के विखण्डन के नियम

प्रस्ताव और स्वीकृति के विखण्डन के नियम

भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 5 प्रस्तावों एवं स्वीकृतियों के प्रतिसंहरण से सम्बन्धित है। प्रस्ताव स्वीकृति की संसूचना के प्रस्तावक के सम्बन्ध में पूर्ण होने से पूर्व किसी भी समय प्रतिसंहृत की जा सकती है, परन्तु उसके बाद विखण्डित नहीं की जा सकती है। स्वीकृति, प्रतिग्रहण की संसूचना के प्रतिग्रहीता के सम्बन्ध में पूर्ण होने से पूर्व किसी भी समय प्रतिसंहृत किया जा सकता है परन्तु उसके बाद नहीं। धारा 4 के अनुसार, प्रतिग्रहीता की संसूचना जहाँ तक प्रस्थापना का सम्बन्ध है, तब पूर्ण होती हैं जबकि वह प्रस्थापक को भेजने के लिए परीक्षण के अनुक्रम में इस प्रकार कर दी गयी है कि वह प्रतिग्रहीता की शक्ति से बाहर हो गयी हैं परन्तु प्रतिग्रहीता के सम्बन्ध में प्रतिग्रहण की संसूचना तब पूर्ण होती है जबकि वह प्रस्थापक के ज्ञान में आ जाती है।

जहाँ स्वीकृति डाक या तार द्वारा दी जाती है, वहाँ, स्वीकृति पत्र डाक में डालने पर अथवा तार पोस्ट ऑफिस को देने पर, प्रस्तावक पर बाध्य हो जाती है, चाहे उक्त पत्र अथवा तार उसे मिले अथवा न मिले और परिणामस्वरूप उक्त पत्र डाक में डालने के बाद अथवा उक्त तार पोस्ट ऑफिस को देने के बाद प्रस्तावक अपना प्रस्ताव का प्रतिसंहरण नहीं कर सकता।

परन्तु स्वीकर्ता (प्रतिग्रहीता) अपना प्रतिग्रहण तब तक प्रतिसंहृत कर सकता है, जब तक कि स्वीकृति पत्र अथवा तार प्रस्तावक को प्राप्त नहीं हो जाता है।

प्रतिसंहरण का ढंग

अधिनियम की धारा 6 प्रस्तावना के प्रतिसंहरण के विभिन्न तरीकों का उपबंध करती है-

  1. प्रतिसंहरण की सूचना देकर-

    प्रस्थापक दूसरे पक्षकार को प्रस्थापना के प्रतिसंहरण की सूचना देकर प्रस्थापना का प्रतिसंहरण कर सकता है। धारा 5 के अनुसार कोई प्रस्थापना, प्रतिग्रहण की संसूचना पूर्ण हो जाने से पूर्व किसी भी समय प्रतिसंहृत की जा सकती है, उसके पश्चात् नहीं। प्रतिग्रहण की सूचना जहाँ तक प्रस्थापक का सम्बन्ध है, तब पूर्ण होती है। जबकि उसके पास भेजने के लिए परीक्षा के अनुक्रम में ऐसे कर दी गयी है कि वह प्रतिग्रहीता की शक्ति के बाहर हो गयी हो।

  2. युक्तियुक्त समय –

    यदि प्रस्थापना में उसके प्रतिग्रहण के लिए कोई समय विहित कर दिया गया है तो प्रतिग्रहण उसी समय के अन्दर किया जाना चाहिए। यदि उक्त समय में प्रतिग्रहण नहीं किया जाता है तो उस समय के समाप्त होने के पश्चात् प्रस्थापना का प्रतिसंहरण हो जाता है।

यदि प्रस्थापना के प्रतिग्रहण के लिए कोई समय विहित नहीं किया गया है तो ऐसी दशा में प्रतिग्रहण युक्तियुक्त समय के अन्दर किया जाना चाहिए। युक्तियुक्त समय प्रत्येक वाद के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करता है।

  1. पूर्ववर्ती शर्तें –

    यदि प्रस्थापना में कोई शर्त है जिसे प्रस्थापना के प्रतिग्रहण से पूर्व पूरा किया जाना आवश्यक है, तो प्रतिग्रहण से पूर्व उसे पूरा किया जाना चाहिए, और यदि प्रतिग्रहीता प्रतिग्रहण से पूर्व उस शर्त को पूरा करने में असफल रहता है, तो प्रस्थापना (प्रस्ताव) समाप्त हो जायेगी और बिना शर्त पूरा किये प्रतिग्रहण से संविदा का निर्माण नहीं होगा। जो प्रतिग्रहण प्रस्थापना में परिवर्तन के साथ स्वीकार किया जाता है अथवा प्रस्थापना की शर्तों के अनुसार नहीं किया जाता है, वह प्रतिग्रहण न होकर प्रस्थापना होती है तथा प्रति-प्रस्ताव कहलाता है।

  2. मृत्यु अथवा उन्मत्तता –

    यदि प्रस्थापक की मृत्यु हो जाती है अथवा वह पागल हो जाता है और मृत्यु अथवा पागलपन का तथ्य प्रतिग्रहीता के ज्ञान में आ जाता है तो प्रस्थापना का प्रतिसंहरण हो जाता है और ऐसी स्थिति में प्रतिग्रहीता द्वारा प्रस्थापना के प्रतिग्रहण से संविदा का निर्माण नहीं हो सकता। यह उल्लेखनीय है कि यदि प्रस्थापक की मृत्यु अथवा उन्मत्तता का तथ्य प्रतिग्रहण के पश्चात प्रतिग्रहीता के ज्ञान में आता है तो प्रतिग्रहण मान्य होगा और प्रस्थापक के उत्तराधिकारी प्रतिग्रहण से बाध्य होंगे।

आंगल संविदा विधि के तहत स्वीकृति के पूर्व प्रस्थापक की पागलपन (उन्मत्तता) या मृत्यु की दशा में प्रस्थापना समाप्त हो जाती हैं और प्रतिग्रहण, चाहे क्यों न प्रतिग्रहीता ने बिना इस बात का ज्ञान हुए किया हो कि प्रस्थापक की मृत्यु हो गयी है अथवा वह पागल हो गया है, बन्धनकारी नहीं होगा और संविदा का निर्माण नहीं होगा।

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