न्यायिक पृथक्करण (धारा 10) (Judicial Separation)
हिन्दू समाज में विवाह के पश्चात् यह आशा की जाती है कि पति-पत्नी सदैव एक-दूसरे पर विश्वास कर अपना जीवन-यापन करें तथा एक दूसरे को साहचर्य प्रदान करें परन्तु कभी-कभी ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं जब पति-पत्नी का एक साथ रहना सम्भव नहीं रह जाता। अधिनियम की धारा 10 ऐसी परिस्थिति में न्यायिक पृथक्करण का उपबन्ध करती है। धारा 10 यद्यपि उन आधारों को नहीं बताती जिनके आधार पर न्यायिक पृथक्करण की डिक्री प्राप्त की जा सकती है परन्तु धारा 10(1) धारा 13 में. वर्णित विवाह-विच्छेद के आधारों को ही न्यायिक पृथक्करण के आधार पर बताती है क्योंकि विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976 के अन्तर्गत न्यायिक पृथक्करण और विवाह-विच्छेद के आधार एक ही हो गये हैं। निम्नलिखित आधारों में से किसी आधार पर पति-पत्नी कोई भी न्यायिक पृथक्करण की याचिका न्यायालय में प्रस्तुत कर सकते हैं-
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व्यभिचारिता का आचरण–
जब किसी पक्षकार नै पति अथवा पत्नी के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति से लैंगिक संभोग किया हो।
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क्रूरता–
जब याची के प्रति दूसरे पक्षकार ने क्रूरता का व्यवहार किया हो।
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अभित्याग–
जब दूसरे पक्षकार ने याचिका प्रस्तुत किए जाने के ठीक पहले कम-से-कम 2 वर्ष से लगातार अभित्याग किया हो।
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धर्म–परिवर्तन–
जब दूसरा पक्षकार धर्म-परिवर्तन के कारण हिन्दू न रह गया
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विकृतचित्तता–
जब दूसरा पक्षकार असाध्य रूप से विकृतचित्त रहा हो अथवां निरन्तर या बार-बार इस सीमा तक विकृतचित्त रहा हो कि आवेदक प्रत्यर्थी के साथ युक्तियुक्त रूप से नहीं रह सकता।
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कोढ़–
जब याचिका प्रस्तुत किए जाने के 1 वर्ष पूर्व से दूसरा पक्षकार उग्र और असाध्य (virulent and incurable) कुष्ठ से पीड़ित रहा हो।
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संचारी रतिजन्य रोग (Communicable veneral disease)-
जब दूसरा पक्षकार इस प्रकार के रतिजन्य रोग से पीड़ित रहा हो जो संम्पर्क से दूसरे को भी हो सकता है। संन्यासी होना-जब दूसरे पक्षकार ने किसी धार्मिक पन्थ के अनुसार संन्यास ग्रहण कर लिया हो।
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सात वर्ष से लापता होना–
न्यायिक पृथक्करण की डिक्री तब भी प्राप्त की जा सकती है जब विवाह का दूसरा पक्षकार सात वर्ष या उससे अधिक अवधि से उन लोगों द्वारा जीवित न सुना गया हो जिन लोगों द्वारा यदि वह जीवित होता तो सुना जाता। वे आधार जिन पर केवल पत्नी को याचिका प्रस्तुत करने का अधिकार है (धारा 13(2)}
केवल पत्नी के अधिकार
निम्नलिखित आधारों पर केवल पत्नी न्यायिक पृथक्करण के लिए याचिका प्रस्तुत कर सकती है-
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पति द्वारा दूसरा विवाह करने पर धारा 13(2) (1)}-
न्यायिक पृथक्करण की धारा 13 (2) (1) पत्नी को यह विधिक अधिकार देता है कि वह अपने पति के द्वारा दूसरा विवाह करने पर विवाह-विच्छेद कर सकती है। इस अधिनियम के अनुसार यदि पत्नी का विवाहअधिनियम लागू होने के पूर्व हुआ था तो यदि पति ने एक पत्नी के जीवित रहते हुए दूसरा विवाह किया था अथवा याचिकाकर्ता (पत्नी) के विबाह सम्पन्न होने के समय पति की कोई दूसरी पत्नी जीवित थी जिसके साथ उसका विवाह अधिनियम लागू होने के पूर्व हुआ था तो पत्नी न्यायिक पृथक्करण के लिए बाद ला सकती है बशर्ते याचिका प्रस्तुत करते समय दूसरी पत्नी जिन्दा हो।
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पति के बलात्संग या अप्राकृतिक मैथुन के अपराध का दोषी होने पर धारा 13(2)(ii)}-
पत्नी न्यायिक पृथक्करण की याचिका प्रस्तुत कर सकती है जब पति विवाह सम्पन्न होने के बाद बलात्संग, गुदा मैथुन या पशुगमन का दोषी रहा हो।
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भरण–पोषण की डिक्री (धारा 13(2) (iii)} –
अधिनियम पत्नी को न्यायिक पृथक्करण की याचिका प्रस्तुत करने का अधिकार देता है जब हिन्दू दत्तक ग्रहण तथा भरण- पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 18 के अधीन वाद में दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के अधीन कार्यवाही में, पत्नी को भरण-पोषण दिलवाने के लिए पति के विरुद्ध डिक्री या आदेश इस बात के होते हुए भी पारित किया गया है कि वह अलग रहती थी और ऐसी डिक्री या आदेश के पारित किये जाने के समय से एक वर्ष या उससे अधिक अवधि में पक्षकारों के बीच सहवास का पुनरारम्भ नहीं हुआ हो।
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यौवनावस्था का विकल्प धारा 13(2) (iv) (Option of puberty)-
अधिनियम की इस धारा के अनुसार पत्नी को तब भी न्यायिक पृथक्करण की याचिका प्रस्तुत करने का अधिकार है जब उसका विवाह 15 वर्ष की आयु के पूर्व हुआ हो और उसने 15 वर्ष की अवस्था के बाद और 18 वर्ष की अवस्था के पहले विवाह को निराकृत (Repudiate) कर दिया हो।
न्यायिक पृथक्करण का परिणाम
न्यायिक पृथक्करण की डिक्री प्राप्त कर लेने के निम्नलिखित परिणाम होते हैं-
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सहवास के दायित्व से मुक्ति-
यद्यपि न्यायिक पृथक्करण से वैवाहिक सम्बन्ध समाप्त नहीं होते परन्तु यांची प्रत्युत्तरदाता के साथ सहवास के दायित्व से मुक्त हो जाता है। परन्तु पक्षकार यदि चाहे तो पति पत्नी के रूप में रह सकते हैं।
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पुनर्विवाह करने पर प्रतिबन्ध-
अधिनियम में यह यह प्रावधान किया गया है कि न्यायिक पृथक्करण के दौरान विवाह का कोई पक्षकार पुनर्विवाह नहीं कर सकता और न ही व्यक्ति के साथ जारकर्म कर सकता है।
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मूल विवाह अस्तित्वहीन नहीं होता–
न्यायिक पृथक्करण से विवाह का अस्तित्व अप्रभावित रहता है यदि पक्षकार चाहे तो वे बिना पुनः विवाह संस्कार को सम्पन्न किए ही पुनः वैवाहिक जीवन प्रारम्भ कर सकते हैं।
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एक वर्ष तक सहवास न होने पर विवाह-विच्छेद-
अधिनियम में यह प्रावधान किया गया है कि जब न्यायिक पृथक्करण की डिक्री के 1 वर्ष बाद तक विवाह के पक्षकार पुनः सहवास प्रारम्भ नहीं करते तो वह विवाह-विच्छेद का आधार मान लिया जायेगा।
महत्वपूर्ण लिंक
- धारा 9 वैवाहिक अधिकार-(हिंदू विवाह अधिनियम, 1955)
- प्रथाएँ एवं रूढ़ियाँ (Customs & Conventions)
- हिंदू विधि – स्वरूप एवं प्रकृति
- हिन्दू विधि की शाखाएँ (Branches of Hindu Law)
- आधुनिक हिन्दू विधि का विकास
- हिंदू विवाह की प्रकृति
- वैध हिन्दू विवाह की आवश्यक शर्तें
- शून्य विवाह (Void Marriage) एवं शून्यकरणीय विवाह के आधार
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