आपसी सहमति से विवाह-विच्छेद (Divorce by mutual consent)

पारस्परिक सहमति से विवाह-विच्छेद (Divorce by mutual consent)

पारस्परिक सहमति द्वारा विवाह-विच्छेद का प्रावधान विवाह विधि संशोधन, अधिनियम 1976, में की गई है। इस अधिनियम की धारा 13 (ख) में वर्णित है कि आपसी सहमति से दोनों पक्षकार विवाह-विच्छेद कर सकते हैं। इस अधिनियम के अनुसार-

धारा 13-ख (1) के अन्तर्गत विवाह के दोनों पक्षकार मिलकर ज़िला न्यायालय में विवाह-विच्छेद की डिक्री द्वारा विवाह के विघटन के लिए इस आधार पर याचिका प्रस्तुत कर सकते हैं कि-

  • पक्षकार एक वर्ष या उससे अधिक अवधि से अलग-अलग रह रहे हैं और वे एक साथ नहीं रह सके हैं; एवं
  • वे इस बात के लिए परस्पर सहमत हो गए हैं कि विवाह का विघटन कर दिया जाना चाहिए।

धारा 13-ख (2) – न्यायालय विवाह-विच्छेद की डिक्री पारित कर देगा और विवाह डिक्री की तारीख से विघटित हो जाएगा, बशर्ते-

  • याचिका प्रस्तुत किए जाने के 6 माह बाद एवं 18 माह पूर्व दोनों पक्षकारों द्वारा किए गए प्रस्ताव पर, यदि इस बीच याचिका वापस नहीं ले ली गई है;
  • न्यायालय को पक्षकारों को सुनने के पश्चात् और जाँच करने के पश्चात् यह समाधान हो गया हो कि याचिका में वर्णित कथन सही है।

अभय चौहान v. रचना सिंह के वाद में अभय का विवाह रचना के साथ 27 अप्रैल 2001 को हुआ था और नवम्बर 2001 से एक-दूसरे से अलग रह रहे थे। आपसी सहमति के आधार पर विवाह-विच्छेद के लिए पति द्वारा आवेदन किया गया। धारा 13-ख (2) में वर्णित 6 माह का समय पूर्ण न होने के कारण अधीनस्थ न्यायालय विवाह-विच्छेद की डिक्री पारित करने से इन्कार कर दिया। तब पति अभय चौहान ने न्यायालय से याचिका प्रस्तुत की। करवो लय के अनुसार विवाह 4 साल पहले हुआ था। पति-पत्नी के बीच समझौते की कोई गुंजाइश नहीं रह गई थी। दोनों की वर्ष थी दोनों एम. आयु 30 30 .बी. ए. थे। दोनों ही परिपक्व थे। बबाह भविच्छेद के लिए प्रपीड़न सहित किसी का भी दबाव नहीं था। छह महीने की अवधि के बारे में जो छूट मांगी गई थी, उसके बारे में न्यायालय पूर्णतः संतुष्ट था। न्यायालय ने विवाह- विच्छेद की डिक्री पारित कर दी।

कलकत्ता उच्च न्यायालय ने अपूर्व मोहन घोष v. मनुषी घोष के मामले में यह मत व्यक्त किया है कि न्यायालय आपसी सहमति के आधार पर विवाह-विच्छेद की डिक्री तभी प्रदान करेगा जब उसे यह समाधान हो जाय कि पक्षकारों के आपसी सम्बन्ध इतने अधिक खराब हो गए हैं कि वे एकसाथ नहीं रह सकते और विवाह के पक्षकार एक वर्ष या उससे अधिक समय से अलग-अलग रह रहे हैं।

“अलग-अलग रह रहे हैं कि एकसाथ नहीं रह सके हैं” शब्दावली से तात्पर्य यह है कि वैवाहिक सम्बन्धों के पूर्णरूप से टूट जाने के कारण सहवास खत्म हो गया है एवं समझौत की कोई सम्भावना नहीं है। लीला महादेव जोशी v. डॉ. महादेव सीताराम जोशी

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इन्द्रावल v. राधेरमन तथा दिल्ली न्यायालय ने धनजीत बत्रा v. श्रीमती बीना के वाद में यह विचार व्यक्त किया है कि आपसी सहमति के आधार पर विवाह-विच्छेद की डिक्री प्राप्त करने के लिए पक्षकारों को किसी अतिरिक्त आधार के होने की बात साबित नहीं करनी पड़ती। आपसी सहमति के आधार पर विवाह-विच्छेद चाहने वाले वादों में न्यायालय को केवल यह देखना चाहिए कि पक्षकारों की आपसी सहमति किसी षड्यन्त्र का परिणाम तो नहीं है। न्यायालय को वहाँ विवाह-विच्छेद की डिक्री प्रदान कर देनी चाहिए जहाँ पक्षकार स्वतन्त्र सहमति से आपसी सहमति के आधार पर विवाह-विच्छेद लेना चाहते हैं।

श्रीमती दीपा देवी v. धीरज कुमार सिंह के मामले में पति-पत्नी द्वारा आपसी सहमति के आधर पर विवाह-विच्छेद के लिए संयुक्त याचिका फाइल की गई। न्यायालय ने साक्ष्यों का अवलोकन एवं पक्षकारों की परीक्षा करने के बाद आपसी सहमति के आधार पर विवाह-विच्छेद की डिक्री पारित कर दी। पक्षकारों ने आपस में यह तय किया कि बच्चा पत्नी के साथ रहेगा। जिसके बदले में पत्नी भरण-पोषण के लिए पति से कोई दावा नहीं करेगी। पत्नी द्वारा बाद में यह आपत्ति की गई कि उससे जबरिया सहमति ली गई थी। यह अभिनिर्धारित हुआ कि धारा 13-B विवाह के पक्षकारों को ऐसे विवाह से उत्पन्न अवयस्क बच्चे के उत्तराधिकार के मसले का विनिश्चय करने का अधिकार प्रदान नहीं करती। न्यायालय ने 2 लाख रु. का बैंक ड्राफ्ट याची एवं अवयस्क पुत्र के नाम किसी राष्ट्रीय बैंक में जमा कराने का निर्देश देते हुए प्रत्यर्थीको दिया।

परन्तु जहाँ आपसी सहमति के आधार पर विवाह-विच्छेद की डिक्री पारित किए जाने के पहले पत्नी यह दावा करती है कि विवाह-विच्छेद के लिए ली गई उसकी सहमति जबरदस्ती प्राप्त की गई है वहाँ न्यायालय सहमति के आधार पर विवाह-विच्छेद की डिक्री पारित करने का वाद खारिज कर देगा। उदाहरणार्थ रूपाली उर्फ चेतना. सुनील दाता के मामले में पहले आपसी सहमति के आधार पर धारा 13-ख के अधीन विवाह-विच्छेद के लिए आवेदन किया गया। परन्तु विवाह-विच्छेद की डिक्री पारित किए जाने के पूर्व पत्नी द्वारा यह आवेदन किया गया कि विवाह-विच्छेद के लिए उसकी सहमति कपट एवं असम्यक असर से प्राप्त की गई थी, इसलिए उसने विवाह-विच्छेद के लिए जो सहमति दी थी वह वापस ले रही है। यह अभिनिर्धारित हुआ कि ऐसी स्थिति में विवाह-विच्छेद की डिक्री पारित नहीं की जा सकती क्योंकि पत्नी अपनी सहमति वापस लेने की हकदार थी। आपसी सहमति के आधार पर विवाह-विच्छेद की डिक्री पारित किए जाने के समय तक वह अपनी सहमति वापस ले सकती थी।

यह प्रश्न की आपसी सहमति के आधार पर प्रस्तुत की गई संयुक्त याचिका किसी एक पक्षकार द्वारा वापस ली जा सकती है। इस विषय पर विभिन्न उच्च न्यायालयों में मतभेद है। केpरल उच्च न्यायालय ने के. आई. मोहनन v. श्रीमती जीजाबाई के मामले में यह मत व्यक्त किया है कि पारस्परिक सहमति के आधार पर विवाह-विच्छेद के लिए प्रस्तुत याचिका किसी एक पक्षकार द्वारा वापस ली जा सकती है। वहीं दूसरी ओर दिल्ली उच्च न्यायालय के अनुसार ऐसी याचिका केवल पक्षकार द्वारा वापस नहीं ली जा सकती। उसके अनुसार एक पक्षकार द्वारा ऐसी याचिका तभी वापस ली जा सकती है जब न्यायालय को यह समाधान हो जाय कि किसी पक्षकार की सम्मति अनुचित तरीके से अर्थात् सम्मति असम्यक असर, उत्पीड़न या कपट या किसी भूल के अधीन प्राप्त की गई थी।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने श्रीमती गुरुवचन कौर v. प्रीतम सिंह के बाद में पारस्परिक सम्मत्ति के आधार पर विवाह-विच्छेद को अत्यन्त दुर्बल आधार बताया है और यह मत व्यक्त किया है कि यह आधार हिन्दू संस्कृति के प्रतिकूल हैं।

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