पूर्ववर्ती ऋण
पूर्ववर्ती ऋण से तात्पर्य उस ऋण से है जो समय की दृष्टि से पूर्ववर्ती होते हैं। हिन्दू विधि के अनुसार पूर्ववर्ती ऋण दे हैं (अ) समय की दृष्टि से पूर्ववर्ती तथा (ब) तथ्यतः तथा प्रकृति में पूर्व, अर्थात् ऋण को विवादग्रस्त व्यवहार का भाग न होकर पूर्णतया स्वतन्त्र होना चाहिए। किसी संयुक्त परिवार की सम्पत्ति का विक्रय उस ऋण की अदायगी हेतु उसी समय लिया गया हो अथवा विक्रय का एक भाग हो, अवैध होगा; क्योंकि इस परिस्थिति में ऋण पूर्ववर्ती नहीं है। इसी बात का पुष्टिकरण इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने बाबूलाल बनाम चन्द्रिका प्रसाद के मामले में किया है।
पूर्ववर्ती ऋण तथ्यतः एवं समय दोनों दृष्टिकोणों से पूर्ववर्ती होता है। उसको अदा करने के लिए सम्पदा का जब अन्यसंक्रामण (चाहे वह विक्रय द्वारा हा अथवा बन्धक अथवा अन्य प्रकार से हो) होता है तो इस प्रकार के अन्यसंक्रामण से पूर्व का ऋण पूर्ववर्ती ऋण कहा जाता है। मिताक्षरा विधि में पुत्र का यह पवित्र कर्तव्य है कि वह पिता के उन ऋणों की जो अव्यवहारिक नहीं है, अदायगी करे। यही नहीं, वरन् प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह स्वयं अपना ऋण अदा करे। इससे यह नियम निकलता है कि जब पिता अपने पुत्रों के साथ संयुक्त रूप में रह रहा हो तो वह अपने पूर्ववर्ती ऋणों की, जो अव्यावहारिक न हो, अदायगी में संयुक्त सम्पत्ति का अन्तरण कर सकता है और यह अन्तरण मिताक्षरा के अर्थों में अनिवार्य धार्मिक कर्तव्यों के हेतु माना जायेगा। गिरधारी लाला बनाम कान्तू लाल के वाद में प्रिवी काउन्सिल ने यह प्रतिपादित किया कि पिता अपने उन ऋणों के भुगतान में जो अव्यावहारिक न हों, अपने और अपने पुत्रों की संयुक्त सम्पत्ति के हितों का अन्तरण कर सकता है।
मिताक्षरा विधि के अनुसार, पिता को संयुक्त सम्पत्ति के अन्तरण की शक्ति सामान्यतया नहीं होती है। किन्तु किसी पूर्ववर्ती ऋण, जो अव्यावहारिक न हो, की अदायगी में वह संयुक्त सम्पत्ति का विक्रय या बन्धक कर सकता है। पूर्ववर्ती ऋण से तात्पर्य उस ऋण से है जो तथ्य और काल दोनों की दृष्टि से पूर्ववर्ती हो, अर्थात् वह पिता द्वारा ऋण चुकाने के लिए किये गये सम्पत्ति अन्तरण के पूर्व का हो और उससे स्वतन्त्र हो। सम्पत्ति का किया गया अन्तरण उस ऋणग्रसिता का भाग न हो, या उसी क्रम में न हो। प्रिवी काउन्सिल ने सर्वप्रथम पूर्ववर्ती ऋण शब्द का प्रयोग हनुमान प्रसाद पाण्डे बनाम मुसम्मात बबुई के वाद में किया था और अन्तिम रूप से ब्रिज नारायण बनाम मंगलाप्रसाद के वाद में सुनिश्चित कर दिया।
निर्णीत हुआ कि पिता के ऋणों के भुगतान के लिए पुत्रगण दायी हैं, चाहे पिता जीवित हो या मर गया हो, और पहले के दोनों बन्धकों में जो दायित्व था वह पूर्ववर्ती ऋण था।
प्रिवी कौंसिल ने पाँच सिद्धान्त प्रतिपादित किया-
- संयुक्त अविभक्त सम्पत्ति का कर्ता, कर्त्ता की हैसियत से, सम्पत्ति का विधिक आवश्यकता के प्रयोजन के अतिरिक्त अन्य किसी प्रयोजनार्थ न तो अन्तरण कर सकता है और न ही उसे प्रभावित कर सकता है।
- यदि वह पिता है और अन्य सदस्य उसके पुत्र हैं तो उसके द्वारा लिये गये ऋण जो अनैतिक प्रयोजनार्थ न हों, की अदायगी के लिए दी गई डिक्री की निष्पादन कार्यवाही समस्त सम्पत्ति के विरुद्ध की जा सकती है।
- यदि वह संयुक्त सम्पत्ति को बन्धक रखता है तो जब तक बन्धक किसी पूर्ववर्ती ऋण की अदायगी के लिये न हो, सम्पत्ति पर बाध्यकारी नहीं होगा।
- पूर्ववर्ती ऋण से तात्पर्य तथ्य और काल दोनों दृष्टिकोणों से पूर्ववर्ती होने से है, अर्थात् चुनौती दिये गये संव्यवहार से ऋण वास्तव में हो और उस संव्यवहार का भाग न हो।
- ऐसा कोई नियम नहीं है कि यह परिणाम इस प्रश्न से प्रभावित होता है कि पिता जिसने ऋण लिया है या सम्पत्ति को प्रभावित किया है, जीवित है अथवा मर गया है।
पूर्ववर्ती ऋण का उदाहरण
1 जनवरी, 1991 ई. को पिता अपने अपयोग के जो कि अनैतिक प्रयोजनार्थ नहीं है, क से कुछ रुपये उधार लेता है, तत्पश्चात् 1 दिसम्बर 1991 ई. को संयुक्त सम्पत्ति का बन्धक ऋण की प्रतिभूति में क के पक्ष में कर देता है। यह बन्धक पिता और पुत्र दोनों के संयुक्त सम्पत्ति के स्वत्वों पर बाध्यकर है, क्योंकि यह और बन्धक पूर्ववर्ती ऋण की अदायगी में किया गया है और यह पूर्ववर्ती ऋण यथार्थ में भी है। बन्धक तिथि के पहले के काल में है। ऋण और बन्धक दोनों एक दूसरे से स्वतन्त्र हैं और ये दोनों एक ही संव्यवहार के भाग नहीं हैं।
किन्तु जब पिता 1 जनवरी, 1991 को क से रुपया उधार इस समझौते पर लेता है कि वह कुछ मास पश्चात् संयुक्त सम्पत्ति का बन्धक का विक्रय क को कर देगा और तत्पश्चात् पहली जुलाई 1991 को वह संयुक्त सम्पत्ति को 1 जनवरी, 1991 को त्रऋण को अदायगी में बन्धक कर देता है या क को बेच देता है तो वह संव्यवहार (बन्धक या विक्रय) पुत्र के स्वत्व पर बाध्यकारी नहीं है क्योंकि यह पूर्ववर्ती ऋण की अदायगी के लिए नहीं था। वहाँ ऋण संव्यवहार के पूर्व तो है किन्तु वास्तव में स्वतन्त्र नहीं है। ऋण का लेना और विक्रय करना दोनों पृथक्- पृथक् नहीं है वरन् एक ही संव्यवहार के भाग हैं।
महत्वपूर्ण लिंक
- हिन्दू सहदायिकी (Hindu Coparcener)- निर्माण एवं अधिकार
- संयुक्त हिन्दू परिवार का कर्ता- स्थिति, अधिकार, कर्त्तव्य एवं दायित्व
- सहदायिक के सम्पत्तिअधिकार (Property Rights of Coparceners)
- पवित्र दायित्व का सिद्धान्त (ऋण के संबंध में)
- प्रथाएँ एवं रूढ़ियाँ (Customs & Conventions)
- हिंदू विधि – स्वरूप एवं प्रकृति
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