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ब्रिटिश शासन के मध्यम वर्ग, बुद्धिजीवी वर्ग एवं ब्रिटिश शासन का इन पर प्रभाव

ब्रिटिश शासन के दौरान मध्यम वर्ग, बुद्धजीवी वर्ग एवं ब्रिटिश शासन का इन पर प्रभाव

किसी भी समाज में सामाजिक वर्गों का निर्धारण उसकी उत्पादन-व्यवस्था आधार पर किया जाता है। अतः सामाजिक वर्ग वास्तव में आर्थिक वर्ग माने जाने चाहिए । उत्पादन-व्यवस्था के आधार पर वर्ग-संबंध स्थापित होते हैं और एक उत्पादन-व्यवस्था टूटती है तो साथ में इस पर आधारित सामाजिक एवं आर्थिक वर्ग भी टूटने लगते हैं । नई उत्पादन-व्यवस्था नए उत्पादन-संबंधों एवं नए सामाजिक आर्थिक वर्गों को जन्म देती है भारतीय कृषि, उद्योगों, व्यापार, ग्रामीण व्यवस्था, शहरी व्यवस्था और यहाँ की राजनीतिक एवं सास्कृतिक व्यवस्था पर अंग्रेजी शासन के प्रभाव के कारण कुछ पुराने वर्ग नष्ट हुए (जैसे हस्तशिल्पी वर्ग) और कुछ नए वर्ग पैदा हुए (जैसे सूदखोर वर्ग, पूँजीपति वर्ग, बुद्धिजीवी वर्ग, मध्यम वर्ग, मजदूर वर्ग) यद्यपि देश के विभिन्न भागों में नए वर्गों के उदय की यह प्रक्रिया एक-जैसी नहीं रही, किन्तु देर-सवेर इन वर्गों की भूमिका ने सारे भारत को प्रभावित किया । ब्रिटिश शासन के दौरान मुख्यतः राजे-महराजे, जमींदार, मजदूर वर्ग, मध्यम वर्ग, एवं बुद्धिजीवी वर्ग, कृषक वर्ग, प्रमुख रहे।

मध्य वर्ग

किसी भी सामाजिक व्यवस्था में मध्य वर्ग का निर्धारण एक कठिन बात हैं अंग्रेजी शासन के दौरान भारतीय समाज में मध्य वर्ग के अंतर्गत तीन श्रेणियों के लोग शामिल किए जा सकते है :

  1. सरकारी ऑफिस कर्मचारी,
  2. पेशेवर लोग, जैसे वकील, डॉक्टर, अध्यापक लेखक, पत्रकार आदि, और
  3. छोटे व्यापारी, कारीगर आदि। सरकारी व ऑफिस कर्मचारी तथा पेशेवर लोग ही इनमें मुख्य हैं।

ब्रिटिश शासन के दौरान एक नई प्रशासनिक व्यवस्था की शुरूआत हुई जिससे सरकारी कर्मचारियों का जन्म हुआ। व्यापार तथा उद्योगों, बीमा, डाक-तार, रेलवे आदि में बहुत-से कर्मचारी नियुक्त हुए । अंग्रेजी शिक्षा के माध्यम से ब्रिटिश सरकार ने भारत में एक ऐसे वर्ग को जन्म दिया जो रंग एवं राष्ट्रीयता में भारतीय था किंतु मिज़ाज में अंग्रेज था और विदेशी संस्कृति तथा नैतिक मूल्यों में उसकी आस्था थी।

दूसरी ओर डॉक्टरों, वकीलों, लेखकों, पत्रकारों, अध्यापकों, विद्वानों तथा समाज सुधाराकों का वर्ग उभरा। इसी वर्ग से बुद्धिजीवियों का जन्म हुआ । ये तमाम लोग उदारवादी विचारधारा में आस्था रखते थे तथा भारत के पुरातनपंथी अतीत से छुटकारा पाकर नए सामंतवादी समाज की स्थापना का आदर्श इनके सामने था। राजा राममोहन राय इसके सबसे पहले प्रतिनिधि थे।

मध्य वर्ग का जन्म ब्रिटिश शासन के बाद ही हुआ तथा इसका चरित्र एवं भूमिका भी पेचीदा रही। जहाँ तक प्रशासनिक सेवाओं में लगे मध्य वर्ग का सवाल है इनका दृष्टिकोण राष्ट्रीय आंदोलनो के प्रति उदासीन रहा क्योंकि ब्रिटिश प्रशासन में इन्हें तमाम सुख-सुविधाएँ उपलब्ध थीं। 19वीं शताब्दी में भारतीयों ने प्रशासनिक सेवाओं में हिस्सेदारी के लिए संघर्ष किया और उसके फलस्वरूप जो लोग इन सेवाओं में नियुक्त हुए, उन्हें काफी सुविधा, मान-सम्मान उपलब्ध रहा। छोटे-छोटे सरकारी क्लर्क भी बाबूवादी चिंतन की खुमारी में सुखी रहे। आर्थिक तथा सामाजिक दृष्टि से ये अच्छी हालत में थे। अंग्रेजी शिक्षा के कारण इनका अंग्रेजी शासन की न्यायप्रियता में भी विश्वास था।

किंतु मध्य वर्ग के वे सदस्य जो अधिक प्रबुद्ध थे, भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग में शामिल हो गए और उन्होंने भारत में राष्ट्रीयता की भावना और चिंतन को आगे बढ़ाने में महान योगदान दिया। वे लोग मध्य वर्गीय चिंतन से उठकर राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय रूप से आगे आए। अतः इनकी व्याख्या बुद्धिजीवी वर्ग के साथ की जाएगी।

बुद्धिजीवी वर्ग

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के सूत्रधार उदारवादी उच्च अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त भारतीय बुद्धिजीवी थे। भारतीय पुनर्जागरण के जन्मदाता राजा राम मोहन राय उदारवादी मूल्यों से प्रेरित थे और भारतीय समाज को पुरानी रूढ़िवादी दशा से निकालकर नए मूल्यों के आधार पर स्थापित करना चाहते थे। वे पाश्चात्य संस्कृति तथा लोकतांत्रिक आदर्शों एवं भावनाओं से प्रेरित थे। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में जैसे-जैसे शिक्षा का प्रसार हुआ, वैसे-वैसे ही भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग उभरकर आया। प्रेम की स्वतंत्रता ने भी, चाहे यह कितनी भी सीमित क्यों न रही हो, बुद्धिजीवी वर्ग को उभारा।

बुद्धिजीवी वर्ग निस्संदेह ब्रिटिश शासन की देन था। पाश्चात्य सभ्यता तथा चिंतन से जुड़े हुए मूल्यों के प्रति सम्मान की भवना इस वर्ग में मुख्य थी। हर समाज में बुद्धिजीवी वर्ग की भूमिका चिंतन एवं चेतना के चेतना के क्षेत्र में मुख्य रहती है। भारत में भी यही हुआ। जब प्रबुद्ध वर्ग ने यह महसूस किया कि अंग्रेजों का शासन भारत में उदारवादी लोकतांत्रिक शासन के रूप में नहीं वरन् शोषणात्मक विदेशी शासन के रूप में है तो उन्होंने भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना का स्वर फूंका। पाश्चात्य संस्कृति और दर्शन ने उन्हें अंग्रेजों का गुलाम नहीं बनाया वरन् अंग्रेजी शासन के खिलाफ लड़ने के वैचारिक हथियार एवं प्रबुद्ध चेतना दी। आरंभ में यह बुद्धिजीवी वर्ग ब्रिटिश शासन की प्रगतिशील भूमिका को भारत के लिए वरदान मानता रहा और इस शासन के द्वारा भारत में नई प्रगति की कल्पना करने लगा। जब इनके सुनहरे भविष्य के सपने अंग्रजों की औपनिवेशिक भूख तथा नंगे शोषण और जुल्म के झटकों से टूटने लगे तो इस नए वर्ग का मोहभंग हुआ और इन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन में अत्यंत सक्रिय भूमिका निभाकर अंग्रेजी शासन की चूल हिलाकर रख दी। भारत में सारे सामाजिक-आर्थिक एवं राजनीतिक सुधारों की माँग बुद्धिजीवी वर्ग ने ही। प्रेम-स्वतंत्रता का लाभ उठाते हुए उन्होंने जन-जागरण के क्षेत्र में जबरदस्त काम किया। सारे राजनीतिक आंदोलनों के सूत्रधार एवं नेता इसी वर्ग के लोग रहे। साहित्य, कला, विज्ञान, दर्शन आदि के क्षेत्र में इसी वर्ग के लोग आए। आधुनिक भारत के निर्माण में तथा इसे पुरानी परंपरागत संस्कृति से निकालकर लोकतांत्रिक समाज बनाने में इसी वर्ग की मुख्य भूमिका रही है।

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्य बात यह है कि बुद्धिजीवी वर्ग तथा पूँजीपति वर्ग ने राष्ट्रीय आंदोलन को जन-आधार दिया। किंतु नेतृत्व बुद्धिजीवी तथा विशिष्ट वर्ग (पूँजीवादी वर्ग) के हाथ में होने के कारण जब ब्रिटिश शासन का अंत हुआ तो सत्ता पूँजीपति वर्ग के हाथ में आई और भारत में मजदूर-किसान का शासन स्थापित होने के बजाए उदारवादी पूँजीवादी लोकतंत्र की स्थापना हुई।

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