हिन्दू विधि में संरक्षक (Guardian in Hindu Law)

हिन्दू विधि में संरक्षक

हिन्दू विधि में संरक्षक से तात्पर्य उन व्यक्तियों से है जो दूसरों के शरीर या सम्पत्ति की या शरीर और सम्पत्ति दोनों की देखभाल का दायित्व रखते हैं। संरक्षक तथा वार्ड अधिनियम के अन्तर्गत भी संरक्षक की परिभाषा इसी अर्थ में की गई है। हिन्दू अवयस्कता एवं संरक्षकता अधिनियम 1956, की धारा 4 के अन्तर्गत संरक्षक की परिभाषा इस प्रकार दी गई है- संरक्षक से तात्पर्य उस व्यक्ति से है जो अवयस्क के शरीर की या उसकी सम्पत्ति की या उसके शरीर एवं सम्पत्ति दोनों की देखभाल करता है। यह निम्नलिखित को सम्मिलित करता है-

  1. प्राकृतिक संरक्षक
  2. अवयस्क के पिता या माता के इच्छापत्र द्वारा नियुक्त संरक्षक।
  3. न्यायालय द्वारा घोषित या नियुक्त संरक्षक।
  4. कोर्ट ऑफ वार्ड्स से सम्बन्ध किसी अधिनियम के द्वारा या अन्तर्गत इस रूप में कार्य करने अधिकृत व्यक्ति।

संरक्षकों के प्रकार

अधिनियम की धारा 4 में चार प्रकार के संरक्षकों का उल्लेख है-

  • नैसर्गिक संरक्षक (Natural Guardian),
  • पिता अथवा माता के इच्छापत्र द्वारा नियुक्त संरक्षक, जिसे वसीयती संरक्षक कहा जा सकता है,
  • न्यायालय द्वारा नियुक्त अथवा घोषित संरक्षक,
  • कोर्ट ऑफ वार्ड्स से सम्बन्धित किसी विधि के अन्तर्गत इस प्रकार (संरक्षक के रूप में) कार्य करने के लिए अधिकृत संरक्षक।

उपर्युक्त प्रकार के संरक्षकों के अतिरिक्त निम्नलिखित दो प्रकार के और भी संरक्षक होते हैं-

  1. वस्तुतः (De-facto) संरक्षक,
  2. तदर्थ (Ad-hoc) संरक्षक ।
  • नैसर्गिक संरक्षक

    नैसर्गिक या प्राकृतिक संरक्षक तात्पर्य अवयस्क और उसकी सम्पत्ति की सुरक्षा करने वाले माता-पिता और अवयस्क पत्नी की स्थिति में पति से है। दूसरे शब्दों में, वह व्यक्ति जो अवयस्क से प्राकृतिक अथवा अन्य किसी रूप से सम्बन्धित होने के कारण उसकी सम्पत्ति या शरीर की देखभाल करने का दायित्व अपने ऊपर लेता है, नैसर्गिक संरक्षक कहा जाता है। यद्यपि हिन्दू विधि में संरक्षकों की सूची सीमित नहीं है, फिर भी अवयस्क का प्रत्येक सम्बन्धी उसका नैसर्गिक संरक्षक नहीं हो सकता। वर्तमान अधिनियम में इसी दृष्टि से नैसर्गिक संरक्षकों की सूची दी गई है।

नैसर्गिक संरक्षक उसका पिता पिता होता है और उसके बाद उसकी माता। अवयस्क के पिता-माता को छोड़कर अन्य किसी व्यक्ति को उसका संरक्षक बनने का अधिकार नहीं प्राप्त है। न्यायालय को भी पिता के जीवित रहने की दशा में, यदि वह अवयस्क का संरक्षक बनने के अयोग्य नहीं है, अवयस्क के शरीर आदि के लिये संरक्षक नियुक्त करने का अधिकार नहीं है।

  • वसीयती संरक्षक

    वसीयती संरक्षक से तात्पर्य उस संरक्षक से है जो अवयस्क के प्राकृतिक संरक्षक की इच्छा इच्छा से नियुक्त किये जाते हैं तथा अवयस्क के लिये संरक्षक के रूप में कार्य करने के अधिकारी होते हैं। वसीयती संरक्षक कहलाते हैं। इस प्रकार के संरक्षक प्राकृतिक संरक्षकों की मृत्यु के बाद ही क्रियाशील हो सकते हैं।

अधिनियम के अनुसार निम्नलिखित प्रकार के व्यक्ति किसी को अवयस्क के शरीर तथा सम्पत्ति के लिए संरक्षक नियुक्त कर सकते हैं-

  • पिता, नैसर्गिक अथवा दत्तकग्रहीता।
  • विधवा माता, नैसर्गिक अथवा दत्तकग्रहीता।

पिता- कोई भी हिन्दू पिता जो नैसर्गिक संरक्षक के रूप में कार्य करने का अधिकारी है तथा जो अधिनियम द्वारा अवयस्क का नैसर्गिक संरक्षक होने के अयोग्य नहीं हो गया है, अपनी इच्छा द्वारा अवयस्क के शरीर अथवा उसकी विभवत सम्पदा अथवा दोनों के लिए संरक्षक नियुक्त कर सकता है। अवयस्क का संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में अविभक्त हक कतो के हाथ में रहता है। अतः अविभक्त सम्पत्ति के लिए संरक्षक नहीं नियुक्त किया जा सकता।

पिता वसीयती संरक्षक को नियुक्त करके माता के नैसर्गिक संरक्षक होने के अधिकार को अतिक्रमित नहीं कर सकता। किन्तु यदि माता स्वयं बिना संरक्षक नियुक्त किये हुए मर जाती है तो उस दशा में पिता द्वारा नियुक्त वसीयती संरक्षक ही मान्य समझा जायेगा। इस प्रकार यदि पिता अपनी पत्नी के जीवन काल में किसी वसीयती संरक्षक की नियुक्ति करके मर जाता है तो वह नियुक्ति प्रभाव शून्य होगी तथा माता अधिनियम की धारा 6 के प्रावधानों के अनुसार प्राकृतिक संरक्षक बन जायेगी।

संरक्षक नियुक्त होने के लिये कौन आवेदन दे सकता है?

निम्नलिखित कोटि के व्यक्तियों के आवेदन-पत्र पर न्यायालय संरक्षक नियुक्त करने का विचार कर सकता है-

  1. वह व्यक्ति जो संरक्षक नियुक्त होने का इच्छुक हो, अथवा अवयस्क का संरक्षक का होने का दावा करता हो, अथवा
  2. अवयस्क का कोई सम्बन्धी अथवा मित्र, अथवा
  3. उस जिले अथवा अन्य किसी स्थानीय क्षेत्र का कलेक्टर, जिसमें- अवयस्क साधारणतया रहता है, अथवा अवयस्क की सम्पत्ति हो, अथवा
  4. यदि अवयस्क किसी वर्ग का है तो कलेक्टर, जिसे उस वर्ग के सम्बन्ध में प्राधिकार प्राप्त है।
  • वस्तुतः संरक्षक (De facto guardianship)-

    अवयस्क का वस्तुतः संरक्षक न कोई विधिक संरक्षक है, न कोई वसीयती संरक्षक है तथा न किसी न्यायालय द्वारा नियुक्त संरक्षक है बल्कि वह इस प्रकार का व्यक्ति होता है जिसने स्वयं अवयस्क की सम्पदा तथा मामलों की देखरेख का प्रबन्ध अपने हाथों में ले लिया है तथा प्राकृतिक संरक्षक की तरह आचरण करने लगा है। अवयस्क के वस्तुतः संरक्षक को यह अधिकार नहीं प्राप्त होता है कि वह किसी बाध्यकारी ऋण के लिये अवयस्क क की ओर से कोई प्रामिसरी नोट लिख दे तथा वह अवयस्क की सम्पत्ति का अन्य संक्रामण ही कर दे। किन्तु यदि कोई नोट पहले से लिखा गया हो और उससे सम्बन्धित आभारों को समाप्त करने के लिये कोई अन्य संक्रमण किया गया हो तो वह मान्य होगा।

  • तदर्थ संरक्षक (Ad Hoc Guardian) –

    तदर्थ का विशेष अर्थ है-‘इस विशेष उद्देश्य के लिए’। कोई संरक्षक जो किसी उद्देश्य के लिए होता है, तदर्थ संरक्षक की संज्ञा दी जाती है। इस प्रकार के संरक्षक को कोई स्थान नहीं प्रदान किया गया है। श्री अरविन्दो सोसाइटी पांडिचेरी बनाम रामोदास नायडू के मामले में मद्रास उच्च न्यायालय ने यह कहा कि भले ही कोई तदर्थ संरक्षक जैसा कार्य करे किन्तु उसके द्वारा अवयस्क के लिए किया गया समस्त कार्य अकृत एवं शून्य होगा और वह अवयस्क को बाधित नहीं करेगा, भले ही उसके द्वारा किया गया कार्य अवयस्क के हित में प्रतीत हो। तदर्थ संरक्षक न तो विधिक संरक्षक है और न वस्तुतः संरक्षक है।

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