अवयस्क की संविदा की प्रकृति एवं प्रभाव

अवयस्क की संविदा- प्रकृति एवं प्रभाव

अवयस्क की संविदा

भारतीय संविदा अधिनियम 1872 की धाराएँ 10 एवं 11 संविदा करने के सक्षम पक्षकारों का उल्लेख करती है धारा 11 में यह उपबन्ध है कि-“हर ऐसा व्यक्ति संविदा करने के लिए सक्षम है जो इस विधि के अनुसार जिसके वह अध्यधीन है, प्राप्त वय हो, और स्वस्थ चित्त हो, और किसी विधि द्वारा जिसके वह अध्यधीन है, संविदा करने से निरर्हित न हो।”

इस प्रकार धारा 11 निम्नलिखित व्यक्तियों को संविदा करने के लिए सक्षम घोषित करती है-

  • प्राप्त वय हो अर्थात् अवयस्क न हो;
  • स्वस्थ चित्त हो अर्थात् विकृत चित्त न हो;
  • ऐसा व्यक्ति जिन्हें किसी विधि द्वारा अक्षम न घोषित किया गया हो।

अवयस्क कौन है ?

भारतीय व्यस्कता अधिनियम की धारा 3 का विश्लेषण करने से स्पष्ट होता है कि 18 वर्ष से कम आयु का व्यक्ति अवयस्क हैं।

संविदा की प्रकृति

जहां धारा 10 संविदा करने के लिए सश्रम पक्षकारों की अपेक्षा करती है वहीं धारा 11 अवयस्क को करार करने के लिए अक्षम घोषित करती है परन्तु न तो धारा 10 और न ही धारा 11 यह बताती है कि अवयस्क द्वारा करार किये जाने की स्थिति में संविदा की प्रकृति क्या होगी अर्थात् संविदा शून्य होगी या शून्यकरणीय। 1903 से पूर्व न्यायालयों में भी इस विषय पर मतभेद रहा। परन्तु मोहरी बीबी बनाम धर्मोदास घोष के वाद में प्रिवी कौंसिल ने यह निर्णय देकर कि “अवयस्क संविदा करने के लिए सक्षम नहीं है इसलिए अवयस्क द्वारा किया गया करार पूर्णत: शून्य है।” इस मतभेद का अन्त कर दिया। भारतीय न्यायालयों ने मोहरीबीबी में दिये निर्णय का अनुसरण किया है।

इंग्लैण्ड में अवयस्क द्वारा की गयी सभी संविदाएं शून्य नहीं होतीं जबकि भारत में अवयस्क की सभी संविदाएं शून्य होती हैं। इंग्लैण्ड में कुछ संविदायें शून्य तथा कुछ शून्यकरणीय होती हैं।

अनुसमर्थन-

अवयस्क की संविदा प्रारम्भ से ही शून्य होती हैं अतः अवयस्कता में की गयी संविदा का अनुसमर्थन वयस्क होने पर नहीं किया जा सकता-सूरज नारायण v. सुक्खू अहीर। परन्तु वहां करार प्रवर्तनीय होता है जहां अवयस्कता में दिये गये धन के अतिरिक्त वयस्कता में भी कुछ धन दिया गया हो और तब करार किया गया हो। कुन्दन बीबी Vs. श्री नारायण ।

विबन्ध-

अवयस्क अपनी आयु के बारे में झूठा कथन करके संविदा करता है और तत्पश्चात् वह यह कहता है कि संविदा के समय में वास्तव में वह अवयस्क था तो विबन्ध के आधार पर उसे ऐसा कहने से रोका नहीं जा सकता है अर्थात् अवयस्क के सम्बन्ध में विबन्ध का सिद्धान्त लागू नहीं होता है।

अवयस्क दृष्कृति के लिए उसी प्रकार दायी होता है जैसे वह वयस्क हो । अर्थात् दृष्कृति के मामले में अवयस्कता और वयस्कता में कोई भेद नहीं है।

प्रत्यास्थापना का सिद्धान्त या पुनर्स्थापना का साम्यिक सिद्धान्त

प्रत्यास्थापना का अर्थ होता है वापस लेना अर्थात् जब अवयस्क ने अपनी आयु के बारे में झूठ बोलकर अर्थात् अपने को वयस्क बताकर कोई सम्पत्ति प्राप्त की हो, तो जो सम्पत्ति उसके कब्जे में हो उसे वापस करना प्रत्यास्थापन का सिद्धान्त कहलाता है।

अंग्रेजी विधि में प्रत्यास्थापन सिद्धान्त लागू करने के लिए आवश्यक है कि अवयस्क जिसने शून्य या शून्यकरणीय संविदा के अन्तर्गत माल या सम्पत्ति प्राप्त किया है, वह उसके कब्जे में हो और उसे पहचाना जा सके। प्रत्यास्थापन का सिद्धान्त मुद्रा के सम्बन्ध में लागू नहीं होता है।

भारतीय विधि-

भारतीय विधि में प्रत्यास्थापन के सिद्धान्त से सम्बन्धित लाहौर उच्च न्यायालय द्वारा निर्णीत खानगुल वर्सेस लक्खा सिंह का वाद एक उपयुक्त उदाहरण है- ‘अ’ ने जो अवयस्क था, ‘ब’ से 17500 रु. में अपनी जमीन बेचने की संविदा की। यह धन ‘अ’ ने अपने को वयस्क बताकर प्राप्त किया था। बाद में ‘अ’ न तो रुपया वापस करना चाहता था और न ही करार पूर्ण करना चाहता था। ‘ब’ ने ‘अ’ पर वाद किया।

‘निर्णीत हुआ कि ‘अ’ धन वापस करने को बाध्य था। न्यायालय का मत था कि यह अनुचित बात होगी कि अवयस्क न तो संविदा पूरी करे और न ही पैसा जो उसने कपट से प्राप्त किया है वापस करे।

लाहौर उच्च न्यायालय के निर्णय को भारतीय विधि कमीशन ने उचित मानते हुए विनिर्दिष्ट अनुतोष अधि० 1963 की धारा 33 में नई धारा 33(2) (ब) जोड़कर प्रत्यास्थापन सिद्धान्त को मान्यता प्रदान किया और स्पष्ट किया कि अवयस्क यदि शून्य संविदा के अन्तर्गत, कोई लाभ प्राप्त किया है, तो उसे वापस करना होगा बशर्ते कि संविदा को अपास्त करने के लिए अवयस्क ने स्वयं पहल किया हो और अवयस्क के झूठे कथन (आयु सम्बन्धी) से दूसरे व्यक्ति को धोखा हुआ हो।

भारत में मुद्रा के सम्बन्ध में भी प्रत्यास्थापन का सिद्धान्त लागू होता है।

अपवाद

सामान्य नियम यह है कि अवयस्क के साथ किया गया करार शून्य होता है, परन्तु अवयस्क को संरक्षण प्रदान करने के निमित्त न्यायालयों द्वारा अनेक अपवाद सृजित किये गये हैं। जैसे-

  1. जबकि अवयस्क ने संविदा के अन्तर्गत उत्पन्न अपने आभारों को पूरा कर दिया है

    यदि अवयस्क संविदा के अन्तर्गत उत्पन्न अपने आभार को पूरा कर दिया है और उसे कुछ भी करना शेष नहीं रह गया है तो वह प्रतिज्ञाग्रहीता की स्थिति में होता है और वह संविदा को दूसरे वयस्क पक्षकार के विरुद्ध प्रवर्तित करा सकता है। परन्तु यदि वयस्क पक्षकार संविदा के अन्तर्गत उत्पन्न अपने आभार को पूरा कर देता है और अवयस्क पक्षकार अपने आभार को पूरा नहीं किया है तो वयस्क पक्षकार संविदा को अवयस्क पक्षकार के विरुद्ध प्रवर्तित नहीं करा सकता है।

  2. जबकि संविदा अवयस्क के लाभ के लिए की गयी हो

    यदि अवयस्क का संरक्षक अवयस्क की ओर से संविदा करने का प्राधिकार रखता है और अवयस्क के भले (लाभ) के लिए संविदा करता है तो ऐसी संविदा प्रवर्तनीय होगी।

  3. अवयस्क निम्नलिखित करारों को भी प्रवर्तित करा सकेगा
  • ऐसा बन्धक करार जिसके अधीन उसने बन्धनकर्ता को ऋण दिया है।
  • अपने पक्ष में निष्पादित वचनपत्र,
  • अवयस्क की ओर से उसके संरक्षक द्वारा अवयस्क की सम्पत्ति के बीमे का करार ।
  • अवयस्क भागीदार नहीं हो सकता, किन्तु सभी भागीदारों की सहमति से वह सभी भागीदारी लाभ के लिए शामिल किया जा सकता है।
  • अवयस्क मालिक नहीं हो सकता परन्तु वह अभिकर्ता हो सकता है।
  • वर्तमान में अवयस्क विवाह की संविदा से भी आबद्ध है क्योंकि वैवाहिक संविदा सामान्यतः अवयस्क के लिए लाभकारी है।

अवयस्क संविदा के सम्बन्ध में भारतीय विधि और अंग्रेजी विधि में भेद-

  1. अंग्रेजी विधि में सामान्य नियम के रूप में अवयस्क के साथ की गयी संविदा अवयस्क के विकल्प पर शून्यकरणीय होती है। इस सामान्य नियम का कतिपय अपवाद इन्फैण्ट रिलिफ ऐक्ट (1874) में मिलता है जिसमें अवयस्क के साथ की गयी संविदा शून्य होती है।

इसके विपरीत-

भारतीय विधि में सामान्य नियम के रूप में अवयस्क के साथ की गयी संविदा शून्य होती है परन्तु इसके कतिपय अपवाद हैं। यदि अवयस्क संविदा के अन्तर्गत उत्पन्न अपने समस्त आभारों को पूरा कर दिया है तो वह इसे दूसरे पक्षकार के विरुद्ध प्रवर्तित करा सकता है। इसी प्रकार अवयस्क के लाभ के लिए उसके संरक्षक द्वारा की गयी संविदा को भी अवयस्क प्रवर्तित करा सकता है।

  1. अंग्रेजी विधि के अन्तर्गत अवयस्क द्वारा की गयी सेवा संविदा बन्धकारी होती है, यदि वह अवयस्क के भले के लिए है। परन्तु

भारत में सेवा संविदा अवयस्क के भले के लिए नहीं मानी जाती है और इस कारण शून्य होती है। इसका अपवाद इण्डियन अप्रेन्टिसेज एक्ट 1850 में मिलता है।

  1. प्रत्स्यास्थापन के सम्बन्ध में अंग्रेजी विधि में यदि कोई अवयस्क अपनी आयु के बारे में झूठा कथन देकर करार करता है और माल या सम्पत्ति प्राप्त करता है तो उसे दूसरे पक्षकार को वापस करने का आदेश दिया जा सकता है यदि माल या सम्पत्ति इसके कब्जे में है, परन्तु मुद्रा वापस करने का आदेश नहीं दिया जा सकता।

भारत में ऐसी दशा में संविदा अधिनियम के अन्तर्गत तो अवयस्क को माल या सम्पत्ति वापस करने का आदेश नहीं दिया जा सकता परन्तु विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम 1963 की धारा 33 के अन्तर्गत ऐसे अवयस्क को करार के अन्तर्गत प्राप्त माल या सम्पत्ति को वापस करने का आदेश दिया जा सकता है। भारत में अवयस्क को करार के अन्तर्गत प्राप्त मुद्रा को भी वापस करने का आदेश दिया जा सकता है।

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