विभिन्न शैलों का वर्गीकरण (Classification of Rocks)

शैलों का वर्गीकरण

शैलों का वर्गीकरण

शैलें अनेक प्रकार की होती हैं। निर्माण की मौलिक प्रकृति एवं उत्पत्ति के आधार पर उन्हें तीन वर्गों में विभक्त किया जाता है-

शैलों का वर्गीकरण

  1. आग्नेय शैलें (Igneous rocks),
  2. अवसादी शैलें (Sedimentary Rocks),
  3. कायान्तरित शैलें (Metamorphic Rocks)

आग्नेय शैलें (Igneous Rocks)

ये भू-पटल की प्रारम्भिक शैलें हैं जो पृथ्वी के पिघले हुए पदार्थों के ठण्डे हो जाने पर बनी हैं। इनका निर्माण उस अतीत काल में हुआ है, जब कोई जीव तथा वनस्पति नहीं थे, अतः इनके अवशेष इन शैलों में दृष्टिगत नहीं होते। ये पृथ्वी पर सर्वप्रथम बनीं, फिर भी सभी आग्नेय शैलें प्राचीनतम नहीं हैं। ज्वालामुखी के उद्भेदन से आज भी इन शैलों की निर्माण क्रिया जारी है। किन्तु इतना निश्चित है कि अन्य शैलों की रचना इन्हीं से हुई है। अतः आग्नेय शैलों को प्राथमिक शैलें कहना ही अधिक श्रेयस्कर है।

आग्नेय शैलों के लक्षण

ये कठोर और रवेदार होती हैं, जो तरल पदार्थ के ठण्डे होने पर बनती हैं। ये रवे विभिन्न आकार, रूप एवं क्रम में रहते हैं। इनमें पानी प्रवेश नहीं कर सकता, इस कारण इनमें रासायनिक परिवर्तन नहीं होते, बल्कि भौतिक विखण्डन अधिक होते हैं। सूर्य-ताप, हिम-जल की क्रिया से इनका विखण्डन सुगमता से होता है।

इनका जमाव स्थल होता है, किन्तु संधियों पर अपरदन तथा अपक्षय का प्रभाव पड़ता है। ये सघन होती हैं और इनमें परते नहीं होती हैं शैलों में समतल पर सन्धि पड़ने तथा लावा की एक परत पर लावा की दूसरी परत के पुनः जमाव से आग्नेय शैलों में परत होने का भ्रम हो जाता है।

इनमें प्राणिज अवशेष भी नहीं मिलते। इन शैलों का अपरदन कठिनाई से होता है। आग्नेय शैलों का वर्गीकरण विभिन्न आधारों पर किया जाता है। इनमें उनकी स्थिति तथा संरचना मुख्य है।

स्थिति के आधार पर आग्नेय शैलों के प्रकार

  1. अन्तर्वेधी शैल-

    पृथ्वी के अनतरंग भाग में पिघले हुए पदार्थ हैं जिनको मैग्मा (Magma) कहते हैं। इनका औसत तापमान 5950 सेण्टीग्रेड होता है। इनके धीरे-धीरे जमने पर बड़े-बड़े रवे बनते हैं और इन्हें शैल बनने में समय भी अधिक लगता है। इस प्रकार के शैलों को अन्तर्वेधी आग्नेय शैल (Intrusive Igneous Rockc) कहते है। इनका विशिष्ट उदाहरण ग्रेनाइट तथा ग्रेवों शैल हैं। पृथ्वी के तल के उत्थापन या अपरदन के पश्चात् ही ये शैलें ऊपर निकलती हैं। अधिक गहराई पर स्थित इन शैलों को वित्तलीयशैली (Plutonic Rocks) कहते हैं। इनका नामकरण ‘प्लूटो’ शब्द से हुआ है जिसका अर्थ है ‘पाताल देवता ।’

कतिपय कारणों से भूमि के आन्तरिक भाग से पिघला हुआ पदार्थ बाहर निकलने का प्रयास करता है और प्रायः मार्ग न मिलने पर भू-पृष्ठ में फैलकर जम जाता है, जिससे भू-भाग का गुम्बदनुमा या वीक्ष (Lens) के आकार का बन जाता है। जब इसकी आकृति सेडार वृक्षवत् (Cedar treelike) होता है तो इन्हें कुकुच्छैल या छत्रक या लैकोलिथ (Laccolith) कहते हैं। इसका आधार चपटा होती है और ये सांड़ के डील की भांति प्रतीत होते हैं। लैकोलिथ का अर्थ है ‘प्रस्तर का भण्डार’। इनका एक आधार होता है और द्रव पदार्थ के प्रवेश मार्ग किनारों की ओर फैले होते हैं। इनके निर्माण की प्राथमिक अवस्था में परतदार या आग्नेय शैलों का अवरण होता है। कालान्तर में अनाच्छादन से ये असम्बद्ध पहाड़ियों का रूप ग्रहण कर लेते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका के ऊंटाह राज्य के हेनरी पर्वत में अनेक लैकोलिथ मिलते हैं। ब्रिटेन में भी इसके उदाहरण मिलते हैं।

जब इन गुम्बदों में अधिक भार के कारण दरारें पड़ जाती हैं तो इन्हें महास्कंध (Bathylith) कहने लगते हैं। यह अन्तर्वेधी मैग्मा का सबसे बड़ा और सर्वप्रसिद्ध रूप होता है। इनके किनारे खड़े होते हैं और नीचे की ओर आधार गहराई तक चल जाते हैं। इनका आधार कभी दिखाई नहीं देता। ये सामान्यतः ग्रेनाइट द्वारा निर्मित होते हैं। इनमें राँची के पठार को निर्मित करने वाले ग्रेनाइट की शैल हैं। राजस्थान का इरिनपुरा ग्रेनाइट इसका उदाहरण है।

  1. मध्यवर्ती शैल-

    जब आन्तरिक द्रव पदार्थ बाहर निकलते समय धरातल तक पहुँचने में असमर्थ रहता है, तो मार्ग की प्रस्तरीभूत शैलों के मध्य वह लम्बवत् दीवार, पुल तथा बाँध के रूप में जम जाता है। इनकों भित्ति (Dike) कहते हैं और ये भू-पृष्ठ की परतों के साथ समकोण बनाते हैं। ये शैलें उन शैलों से, जिनमें लावा प्रवेश करता है, अधिक कठोर और शक्तिशाली होती हैं। इसीलिए किसी देश के धरातल पर दीवारों या श्रेणियों के रूप में निकली हुई लावाभित्ति मिलती है। बिहार के सिंहभूम जनपद में लावाभित्ति मिलती है जो नवीनतम् डोलेराइट (New dolerite) के नाम से प्रसिद्ध है। उत्तरी अमेरिका के संयुक्त राज्य में मुद्रित या वलयभित्ति क्लीवलैण्ड (Ring dike) लावाभित्ति के नाम से प्रसिद्ध हैं।

जब पिछली शैलों का जमाव भू-पृष्ठ की तहों के समान्तर तथा अधिक मोटाई में होता हैं तो इसे लावापट्ट या सिल (Sill) कहते हैं। ये लावाभित्ति से सम्बन्धित होती हैं। इनकी मोटाई कुछ सेण्टीमीटर से लेकर कई सौ मीटर तक हो सकती है। हडसन नदी के दूसरी ओर न्यूयार्क के सम्मुख स्थित लावापट्ट (Palisade sill) 160 किलोमीटर लम्बी एक सीधी पहाड़ी है। इंलैण्ड में नाम्बरलैण्ड से लेकर टीज नदी तक फैली हुई श्याम शैल या हिनसिल (Whinsill) डरबन के निकट लुप्त हो जाती है। रोम साम्राज्य-काल में प्रसिद्ध नार्दम्बरलैण्ड दीवार इसी पर निर्मित थी। यह 128 किलोमीटर लम्बी और 30 मीटर मोटी है। भारत में मध्य प्रदेश के कोरिया तथा बिहार के कोयला खदानों में लावापट्ट प्राप्त होती है। जब लावापट्ट कम मोटी होती है तो इसे चादर कहते हैं।

छोटे आधार के महास्कंध को स्कन्ध (Stock) कहते हैं। इनका आधार भी दृष्टिगत नहीं होता है। जब इनका स्वरूप गोलाकार होता है तो उसे वृत्त स्कन्ध कहते हैं। कभी-कभी अवसादी शैलों की मोड़दार परतों में कड़ी तहों के विलग हो जाने पर रिक्त स्थान के छिछली शैलों का असमान अन्तर्वाह (Intlux) हो जाता है, तो इसको मसूर शैल या फकोलिथ (Phacolith) कहते हैं। इसकी आकृति वीक्ष मे मिलती-जुलती है। जब यह अन्तर्वाह तश्तरीनुमा होता है तो इस आकृति को न्युदुब्ज शैल लोपोलिथ (Lopolith) कहते हैं। ऐसे भराव प्रायः अनुस्तरी (Concordant) होते हैं। दक्षिणी अफ्रीका के बुशवेल्ड में इसके सर्वोत्तम उदाहरण मिलते हैं। ट्रांसवाल की न्युदुब्ज शैल 480 किलोमीटर लम्बी है।

  1. बहिर्वेधी शैलें-

    जब पिंघली हुई शैलें भू-पृष्ठ पर निकलकर जम जाती हैं तो शीघ्रता से ठण्डे होने के कारण इनमें रखे नहीं बनते, इसे बहिर्वेधी आग्नेय शैलें (Extrusive igneous rocks) कहते हैं। प्रायः ज्वालामुखी के उद्भेदन के समय पिघला हुआ पदार्थ धरातल पर निकल जाता है, जिसको लावा (Lava) कहते हैं। लावा से निर्मित शैलों को ज्वालामुखी शैल भी कहते हैं। सन्धियों से निकले हुए लावा ने धरातल के एक विस्तृत भाग को ढंक लिया है, क्योंकि तरलता के कारण यह तारकोल की भाँति बहता है। ऐसे अनेक लावा- प्रवाहों से भारत में उत्तरी-पश्चिमं दक्कन तथा अमेरिका का कोलिम्बिया पठार बने हुए हैं। लावा शीशे की तरह होता है। इसका उदाहरण ओबसीडियन (Obsidian) है। बहिर्वेधी आग्नेय शैलों के विशिष्ट उदाहरण बेसाल्ट हैं। इन्हें अस्फटीय शैलें (Non-crustalline rocks) भी कहते हैं। इनकी बनावट भिन्न-भिन्न होती हैं, क्योंकि इनमें खनिजों का असमान मिश्रण मिलता है।

संरचना के आधार पर आग्नेय शैलों के प्रकार

आग्नेय शैलों की रासायनिक संरचना भिन्न-भिन्न होती है। इनमें संघटक तत्त्वों का मिश्रण विभिन्न मात्रा में होता है, किन्तु सभी शैलों में अत्याधिक मात्रा में सिलिका का मिश्रण अवश्य होता है। सिलिका इस प्रकार का कड़ा पत्थर है जिससे गैस तैयार होती है। संरचना के आधार पर आग्नेय शैलें दो वर्गों में विभक्त की जाती हैं-

  1. अधिसिलक शैलें (Acid Igneous Rocks)-

    इन शैलों में सिलिका की मात्रा 80 प्रतिशत तक होती है। ये पृथ्वी के ऊपरी परत में उपलब्ध होती हैं। लोहे तथा मैग्नीशियम की कमी के कारण इनका रंग पीला और फीका होता है। साधारणतः इनमें स्फटिक तथा फेल्सपार की अधिकता होती है। ठोस पिण्ड-रूप होने के कारण अधिसिलिक शैलें सरल होती हैं और अपरदन की क्रिया से कम प्रभावित होती हैं, इसी कारण इमारतों के निर्माण में इनका उपयोग होता है। इस शैल का उत्तम उदाहरण ग्रेनाइट है। बालू एवं सिलिका की मात्रा अधिक होने से पिघला हुआ पदार्थ तत्काल जम जाता है और ऊँचे पर्वत बन जाते हैं। इनमें सामान्य रूप से 21.3% स्फटिक, 52.3% फेल्सपार तथा 11.5% अभ्रक प्राप्त होता है।

  2. अल्पसिलिक शैलें (Basic Igneous Rocks)-

    इन शैलों की रचना की सिलिका की मात्रा 52 प्रतिशत तक होती है। इनमें लोहे के ऑक्साइड, चूना और एल्यूमिनियम की प्रधानता होती है। इसमें क्षार पदार्थ बिल्कुल नहीं होता। इनमें बालू तथा सिलिका की मात्रा कम होती है, जिससे इनका रंग गहरा एवं काला होता है। ये पृथ्वी के सिमैवाले भाग में पायी जाती हैं। यद्धपि ये शैलें ग्रेनाइट शैलों की अपेक्षा ऊँचे तापमान पर पिघलती हैं। किन्तु उनकी अपेक्षा पतली होती हैं। इन पर मौसमी क्रिया का अधिक प्रभाव पड़ता है, बेसाल्ट इसका साधारण उदाहरण है। महासागरीय ज्वालामुखी क्षेत्रों तथा द्वीपों में ये शैलें अधिक मिलती हैं।

बालू तथा सिलिका की मात्रा कम होने से पिघली हुई शैलें विलम्ब से जमती हैं और धरातल पर फैल जाती हैं। फलतः इनसे पर्वत-निर्माण नहीं होता। भारत का दक्षिणी पठार, अबीसीनिया का पठार तथा आस्ट्रेलिया का पठार इसके उदाहरण हैं।

इसके अलावा भी इसके दो वर्ग किये जा सकते हैं।

  • माध्यमिक आग्नेय शैलें (Intermediate Igneous rocks)-

    इनमें सिलिका की मात्रा 55% से 65% तक होती है। ऑक्साइड मुख्य शैल है।

  • अतिअल्पसिलिका आग्नेय शैलें (Ultra Basic Igneous Rocks) –

    इनमें सिलिका की मात्रा 45% से कर्म होती है। प्यूडोलाइट मुख्य शैलें हैं।

आग्नेय शैलों का आर्थिक महत्व

आग्नेय शैलें खनिज भण्डार हैं। उत्तरी अमेरिका की लारेन्शियल शील्ड शैलें बहुमूल्य खनिजों जैसे सोना, लोहा, ताँबा आदि से भरपूर हैं। आस्ट्रेलिया के पश्चिमी पठार तथा दक्षिणी अफ्रीका में सोना व हीरे की खानें हैं।

अवसादी शैलें (Sedimentary Rocks)

जल, वायु एवं हिम के द्वारा स्थानान्तरित मिट्टी, कंकड़ तथा पत्थरों के निक्षेप मतों के रूप में भू-पटल पर बन जाते हैं, इन्हें अवसादी शैलें कहते हैं। ये भिन्न-भिन्न आकार तथा प्रकार के छोटे एवं बड़े कणों से बनी होती हैं। इनमें उन जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों के अवशेष पाये जाते हैं जो निर्माण काल में परतों के मध्य पड़ गये होते हैं। भू-पृष्ठ के तीन चौथाई भाग पर ये विस्तृत हैं, किन्तु भू-पृष्ठ की रचना में इनका योग केवल 5 प्रतिशत है। मानवमात्र के लिए ये सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं।

अवसादी शैलों के निर्माण में स्फटिक, मिट्टी तथा चूना की अधिकता होती है। इसके शैल-चूर्ण विभिन्न रसायनों तथा कार्बनिक तत्त्वों से निर्मित होते हैं। इन शैलों का वर्गीकरण विभिन्न आधारों पर किया जाता है। उनमें उनकी रचना-विधि तथा उत्पत्ति स्थान मुख्य हैं।

रचना-विधि के आधारपर अवसादी शैलों के प्रकार

  1. अपरदन चूर्ण में निर्मित शैलें या अप्राणिज शैलें-

    अपनयनकारों द्वारा शिला-चूर्ण एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाकर निखेपित कर दिये जाते हैं। इस प्रकार, बनी शैलें शिलाचूर्ण निर्मित शैलें होती हैं। विश्व में अधिकांश शैलें इस कोटि में आती हैं। इनके दो वर्ग हैं। (अ) बलुई शैलें (Arenaceous Rocks) (ब) मृण्मय शैलें (Argillaceous Rocks)।

    • बलुई शैले

      इन शैलों में स्फटिक खनिज की प्रधानता होती है। फलतः ये बालू तथा बजरी में बदल जाती हैं। चिकनी मिट्टी, तथा चूना तथा सिलिका के सूख्म कणों के कारण रेत के कड़े तथा विभिन्न आकार के कण जमकर शैल बन जाते हैं। इसमें बलुआ पत्थर मुख्य है। इसमें 7% के लगभग स्फटिक तथा 7% के लगभग चिकनी मिट्टी के पदार्थ होते है। बलुआ शैलों के क तथा भद्दे होते हैं। यह छिद्रयुक्त होता है और पानी को आत्मसात कर लेता है। ग्रिटस्टीन भी इसी प्रकार की शैलें हैं जो भवन-निर्माण के काम आती हैं। इसका रंग गहरा स्लेटी अथवा भूरा होता है।

    • मुण्मय शैलें

      ये मिट्टी के सूक्ष्म कणों के निक्षेप से बनी शैलें हैं। इसमें चिकनी मिट्टी की मात्रा अधिक होती हैं, जिसमें श्वेत अभ्रक, क्लोराइड तथा एल्युमिनियम का अंश होता है। अतः ये शैलें मुलायम किन्तु अप्रवेश्य होती हैं। ऊपरी धरातल पर आ जाने पर अपक्षय तथा अपरदन का प्रभाव शीघ्र पड़ता है। इसी कारण इन शैलों का प्रयोग भवन निर्माण में नहीं होता है। इसका प्रमुख उदाहरण वे शैल (Shale) हैं जिसकी परतें शीघ्र अलग हो जाती हैं। चिकनी मिट्टी अथवा मृत्तिका (Clay) जब सूखकर कठोर हो जाती हैं तो इसको पकाश्म (Mud stone) कहते हैं।

  1. रसायनों से निर्मित शैलें-

    बहता हुआ जलं अपने साथ कुछ घुलनशील तत्त्वों को बहा ले जाता है। ये रासायनिक पदार्थ पानी न रहने पर तहों में जम जाते हैं। भारी कण निचलीतह में जमते हैं और हल्के ऊपरी तह में, और इस प्रकार शैलें बन जाती हैं। शेलखरी या जिप्सम (Gypsum), सेंधा लवण (Rocks Salt), अवशैल (Stalactite) तथा अडकाश्ग (Oolite) इस प्रकार की शैलें हैं।

  2. कार्बनिक तत्त्वों में निर्मित शैल या प्राणिज शैलें-

    जानवरों तथा पेड़-पौधों के अवयव शनैः शनै: एकत्र होते रहते है और कठोर शैलों के रूप में बदल जाते हैं। इसमें कुछ चूने की मात्रा अधिक होती है और कुछ में कार्बन की।

    • चूनेदार शैलें (Calcareous Rocks)-

      चूनेदार शैलों में चूने मी मात्रा अधिक होती है और इसका निर्माण जीव-जन्तुओं के अस्थि-पंजरों तथा वनस्पतियों के अवशेष से होता है। उष्ण तथा शीतोष्ण कटिबन्धों के छिछले समुद्रों में ये शैलें अधिक मिलती हैं। चूने का पत्थर, डोलोमाइट (Dolomite), चूनेकी खड़िया (Chalk) इस प्रकार की शैलें हैं।

चूने का पत्थर प्रवेश्य, घुलनशील तथा नरम होता है। इससे सीमेंट बनाया जाता है तथा भवन निर्माण होता है। कोयला प्रधान चूने का पत्थर अपेक्षाकृत कठोर होता है। यह ऊबड़-खाबड़ होता है।

    • कार्बनप्रधान शैलें (Carboniferous rocks)-

      ये शैलें पेड़-पौधों के अवशेष से बनी होती हैं। इसमें कार्बन तत्व अधिक मात्रा में होता है।  उष्णता तथा दाब के फलस्वरूप वनस्पति का परिवर्तित रूप खनिज बन जाता है। कोयला तथा तेलयुक्त शैल इसी प्रकार की शैलें हैं।

उत्पत्ति स्थान के आधार पर अवसादी शैलों के प्रकार

  1. महाद्वीपीय शैलें-

    वायु द्वारा मरुस्थलीय तथा समुद्र तटीय प्रदेशों में बनी प्रस्तरीभूत शैलें (Aeolina rocks) कहलाती हैं। इनकी परतें कम संगठित तथा कठोर होती हैं। इनके कण गोल तथा चिकने होते हैं। इनका रंग लाल होता है। बलुआ पत्थर और चिकनी मिट्टी इस श्रेणी में आते हैं।

महाद्वीपीय शैलों में बजरी, रोड़े, मिट्टी, संगुटिकाश्म (Conglomerates) तथा संकीणाश्म (Breccia) विशेष महत्वपूर्ण होते हैं। बजरी के छोटे-छोटे रोडे या बालू का मिश्रण होता है। रोडों का घर्षण नदी के द्वारा होता है। बहूड़ राशि (Shinle) तथा मिट्टी में समुद्र की तरंगों द्वारा प्रक्षिप्त टुकड़े होते हैं, जो सामुद्रिक क्रिया से गोल हो जाते हैं। बहुड़ राशि के बड़े-बड़े टुकड़ों के जुड़ने में संगुटिकाश्म बनती हैं। इनके जोड़ने का कार्य बालू करती है। नुकीली बजरा या बड़ राशि के टुकड़ों के चिकपने से बनी शैलें संकीणाश्म होती हैं।

  1. समुद्री शैलें-

    ये शैलें समुद्र के उथले भागों में बनती हैं। इनकी तीन श्रेणियाँ हैं- बलुआ पत्थर, शैल तथा चूने का पत्थर ।

अवसादी शैलों का आर्थिक महत्व

अवसादी शैलें मानव जीवन के लिए मूल्यवान हैं। कोयला तथा खनिज तेल जो आज शक्ति एवं सभ्यता के आधार स्तम्भ हैं, इन्हीं शैलों की उपज हैं। चूना और खड़िया से सीमेन्ट तथा बालू से काँच बनता है। बलुआ पत्थर भवन निर्माण में प्रयोग होता है। इन्हीं शैलों में सोना, टिन तथा ताँबा आदि धातुएँ भी पायी जाती हैं। इससे मानव के निवास के लिए गृह, भोजन के लिए अन्न तथा उद्योगों के लिए शक्ति उपलब्ध होती है। अग्नि मिट्टी से धातुओं को गलाने की भट्टियाँ बनती हैं। इनसे नमक, खाद तथा नत्रजन प्राप्त होती हैं।

कायान्तरित शैलें (Metamorphic Rocks)

आग्नेय तथा अवसादी शैलों का रूप एवं गुण उष्णता, दाब तथा भू-संचालन के कारण बदल जाता है। इस प्रकार की शैलें अधिक कठोर हो जाती हैं। खनिज तत्वों का भी रूपान्तर हो जाता है और इनकी विशेषताएँ भी नवीन हो जाती हैं। शैलों की मूल स्थिति तो बनी रहती है किन्तु पूर्ण परिवर्तन हो जाने पर मूल-रूप को पहचानना कठिन हो जाता है और प्रायः शैलें रवेदार बनजाती हैं।

कायान्तरित शैलों का सार्वभौमिक रूप स्फटिकों की समानान्तर व्यवस्था है। इस प्रकार की बनावट को शल्कन (Foliation) की संज्ञा प्रदान की जाती है। रूपान्तर की इस क्रिया को कायान्तरण (Metamorphism) कहते हैं। परिवर्तित शैलें पर्वतीय क्षेत्रों में उपलब्ध होती हैं। इस कारण अवसादी शैलों की अपेक्षा इनका विस्तार कम है।

कायान्तरित शैलों के प्रकार

कायान्तरण पाँच प्रकार का होता है-

  • संस्पर्श कायान्तरण (Contact Metamorphism)
  • गतिक कायान्तरण (Dynamic Mtamorphism )
  • स्थैतिक कायान्तरण (Static Metamorphism )
  • जलीय कायान्तरण (Hydro Metamorphism)
  • उष्ण जलीय कायान्तरण (Hydro-thermal Metamorphism)
  1. संस्पर्श कायान्तरण-

    ज्वालामुखी क्रिया में लावा के प्रवाह में भू-पृष्ठ की भीतरी शैलें झुलस जाती हैं। यह लावा दरारों एवं कन्दराओं में घुसकर दाब भी पैदा करता है। इस प्रकार के स्पर्श से शैलें परिवर्तित हो जाती हैं। चूने का पत्थर इसी प्रकार से संगमरमर बन जाता है। कोयले की सतहें इस प्रकार के शैलों से प्रभावित होकर कठोर कोक में परिवर्तित हो जाती हैं।

  2. गतिक कायान्तरण-

    पर्वत- निर्माणकारी हलचलों के फलस्वरूप अधिकतर शैलें बहुत गहराई पर दब जाती हैं। इस भारी दबाव और इससे उत्पन्न अधिक उष्णता से ये शैलें पूर्णतः बदल जाती हैं और स्फटिक बन जाती हैं। इस प्रकार के रूपान्तरण में हजारों वर्ष लग जाते हैं। स्लेट, ग्रेफाइट तथा स्फटिक पत्थर इसी प्रकार की शैलें हैं। इसमें चीका मिट्टी तथा शैल का स्लेट, बलुआ पत्थर का क्वार्टजाइट और कोयला का ग्रेफाइट बन जाते है।

  3. स्थैतिक कायान्तरण-

    जब भू-गर्भ में स्थित शैलों पर ऊपर का भारी दाब पड़ता है तो इनका रूपान्तरण हो जाता है।

  4. जलीय कायान्तरण-

    जब शैलों पर भार कम होता है और उष्णता भी कम रहती है, किन्तु जलीय भार के प्रभाव से उनमें रूपान्तरण हो जाता है, तो इसे जलीय कायान्तरण कहते हैं।

  5. उष्ण जलीय कायान्तरण-

    उष्ण जल तथा भाप के कारण शैलों में परिवर्तन हो जाता है तो यह जलीय कायान्तरण कहलाता है, जैसे चूने का पत्थर संगमरमर हो जाता है।

चट्टानों का आर्थिक महत्त्व (Economic Importance of Rocks)

चट्टान मानव जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण पदार्थ है। मानव जीवन को लगभग 2000 से भी अधिक वस्तुएँ चट्टान एवं इनके माध्यम से प्राप्त होती हैं। अधिकांश कोयला चट्टानों से प्राप्त होता है। पृथ्वी की पर्वत निर्माणकारी हलचलें, भूकम्प एवं अन्य प्रकोपों द्वारा बड़े-बड़े जंगलों को मिट्टी से दबा देती हैं। तब सैकड़ों वर्ष के बाद वह कोयले में परिवर्तित हो जाते हैं। इमारती पत्थर, औद्योगिक खनिज, कोयला, लोहा, तेल आदि एवं कीमती धातुएँ,सोना, चाँदी आदि चट्टानों से प्राप्त होती हैं। समस्त पृथ्वी की ऊपरी पपड़ी, जिस पर मानव बसा हुआ है, चट्टानों के बारीक पूर्ण से ही निर्मित हैं।

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