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पृथ्वी की उत्पत्ति की विभिन्न ज्वारीय परिकल्पना

पृथ्वी की उत्पत्ति की विभिन्न ज्वारीय परिकल्पना

पृथ्वी की उत्पत्ति अत्यन्त रहस्यपूर्ण है। इस विषय में विभिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न मत प्रकट किये हैं। ज्यों-ज्यों विज्ञान की उन्नति होती जा रही है, पृथ्वी की उत्पत्ति का रहस्य प्रकाश में आ रहा है। खगोल विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि पृथ्वी सौरमंडल का एक सदस्य ग्रह है और इसकी उत्पत्ति सौरमंडल के अन्य ग्रहों की भांति हुई है। इस विषय में विभिन्न कालों में भिन्न-भित्र विद्वानों ने निरीक्षण, तर्क और कल्पना के आधार पर अपने मत एवं विकल्प प्रस्तुत किये हैं। परन्तु सभी विचार परिकल्पना की श्रेणी में आते हैं, सिद्धान्त की श्रेणी में नहीं।

पथ्वी की उत्पत्ति की विभिन्न विचारधाराओं को तीन वर्गों में विभक्त कर उनकी व्याख्या की जा सकती है-

  1. एक तारक या अद्वैतवादी परिकल्पना (Monistic hypothesis)
  1. काण्ट की गैसीय परिकल्पना
  2. लाप्लास की नीहारिका परिकल्पना
  3. रसेल की युग्म तारा परिकल्पना
  1. द्वैतारक या द्वैतवादी परिकल्पना (Dualistic Hypothesis)
  1. चेम्बरलिन तथा मोल्टन की ग्रहाणु परिकल्पना
  2. जेम्स जीन्स तथा जेफ्री की ज्वारीय परिकल्पना 1919-1926
  3. रसेल की युग्म तारा परिकल्पना 1937
  1. नवीन परिकल्पनाएँ (New Hypothesis)

बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अन्तरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में हुई प्रगति नवीनतम खोजों तथा कृत्रिम उपग्रहों द्वारा एकत्रित नवीन खगोलीय सूचनाओं पर आधारित कुछ नवीन परिकल्पनाएँ भी प्रस्तुत की गई हैं। इसमें प्रमुख परिकल्पनायें निम्नांकित हैं-

  1. होयल तथा लिटिलटन की नवतारा परिकल्पना 1937
  2. रॉसगन की आवर्तन एवं ज्वारीय परिकल्पना
  3. बनर्जी की सिफीड परिकल्पना, 1942
  4. डॉ. ऑफवेन की विद्धुत चुम्बकीय परिकल्पना,
  5. वॉन वीज सेकर की नीहारिका-मेघ परिकल्पना, 1943
  6. ओटो श्मिड की अन्तः तारकीय धूल परिकल्पना, 1943
  7. ड्रोबी शेवेस्की की वृहस्पति-सूर्य द्वैतारक परिकल्पना, 1974

काण्ट की वायव्य-राशि परिकल्पना

(Gaseous Hypothesis of Kant)

बफन की परिकल्पना के बाद जर्मनी के प्रसिद्ध दार्शनिक इमैनुअल काण्ट (Kant, E) ने सन् 1755ई. में पृथ्वी की उत्पत्ति सम्बन्धी परिकल्पना का प्रतिपादन किया। काण्ट का कथन या “मुझे पदार्थ दो, मैं पृथ्वी की उत्पत्ति कर दिखलाऊँगा।” न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण नियम पर प्रस्तुत किया। काण्ट ने यह बताया है कि न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण नियम में प्रत्येक वस्तु पृथ्वी की ओर आकर्षित होती है तथा केन्द्रपसारी बल में प्रत्येक वस्तु पृथ्वी से दूर हटने की कोशिश करती है। काण्ट महोदय ने विचारानुसार प्रारम्भ में बहुत से पौराणिक पदार्थ से बने कठोर कण समस्त विश्व तथा आकाश में फैले हुए थे। ये सभी पौराणिक कठोर आद्य कण गुरुत्वाकर्षण के कारण एकत्र होकर आपस में टकराने लगे। इन कणों के टकराने से ताप उत्पन्न हुआ। ताप से द्रव तथा द्रव से गैसीय अवस्था में आया, वह गैसीय पुंज केन्द्रित हो जाने पर परिभ्रमण करने लगा। इस लगातार परिभ्रमणशील गति से गुरुत्वाकर्षण बल की अपेक्षा केन्द्रपसारी बल अधिक बढ़ा। इस केन्द्रापसारी बल के अधिक बढ़ने से गैसीय पुंज के मध्यवर्ती भाग में उभार पैदा हो गया। इस उभार में नौ गोलाकार छल्ले बने जो कि निहारिका के रूप में अलग हो गये। ये नवग्रह तथा इनके अतिरिक्त उपग्रह बने और जो अवशिष्ट भाग बचा वह सूर्य बना। इस प्रकार सौर परिवार की रचना हुई। बाद में चलकर यह परिकल्पना तर्कहीन प्रमाणित कर दी गयी, क्योंकि यह नियम गणित के गलत नियमों पर कल्पित किया गया था। अतः इसकी निम्न प्रकार से आलोचना की गयी हैं।

आलोचनाएँ-
  1. सर्वप्रथम इस परिकल्पना में यह त्रुटि सामने आती है कि आद्या कण गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण आपस में टकराने लगे। यह शक्ति पहले किस स्थिति में छिपी थी और बाद में कैसे प्रकट हो गयी।
  2. काण्ट ने इस बात की भी पुष्टि की कि वायुमंडलीय आद्य कणों की आपसी भ्रमण करने से टकराना प्रारम्भ हुआ। इस टकराव के कारण ही गुरुत्वाकर्षण शक्ति ने जोर पकड़ा, लेकिन गति विज्ञान के ‘कोणीय संवेग’ की सुरक्षा के सिद्धान्त’ के अनुसार वायुमंडलीय आद्य कणों के आपस में टकराने से कणों में परिभ्रमणशील गति पैदा नहीं हो सकती। इस सिद्धान्त के अनुसार किन्हीं पदार्थों के विभिन्न भागों के आपसी टकराव से उनके परिभ्रमण गति में कोई परिवर्तन नहीं आ सकती है।
  3. काण्ट ने यह भी बतलाया है कि निहारिका के परिभ्रमण के आकार में वृद्धि होने के साथ साथ गति में भी वृद्धि हुई। यह नियम ऊपर दिये हुआ सिद्धान्त के विपरीत है, क्योंकि कोशीय संवेग की स्थिरता सिद्धान्त में बतलाया गया है कि वस्तु का आकार बढ़ता है तो उसकी गति में कमी आती है साथ ही गति में वृद्धि आती है तो आकार घटता है। इस सिद्धान्त तथा नियम के अनुसार काण्ट की कल्पना को गलत सिद्ध किया जाता है।
  4. काण्ट की इस परिकल्पना को इतना श्रेय अवश्य मिलता है कि आगे आने वाले विद्वान लाप्लास ने इसके आधार पर सुप्रसिद्ध साध्य को प्रतिपादित किया।

लाप्लास की निहारिका परिकल्पना

(Nebular Hypothesis of Laplace)

लाप्लास फ्रांसीसी विद्वान थे। इन्होंने अपना मत सन् 1796ई. में व्यक्त किया। इस सिद्धांत का वर्णन इन्होंने अपनी पुस्तक ‘Exposition of the World System’ में प्रस्तुत किया है। लाप्लास ने अपने सिद्धान्त में काण्ट के विचार को प्रथम स्थिति में किसी हद तक माना हैं, लेकिन इन्होंने काण्ट के कुछ गलतियों को दूर करके अपने सिद्धान्त को पूर्ण संशोधित करके व्यक्त किया है। इन्होंने काण्ट की परिकल्पना में मुख्य रूप से तीन दोष माने है-

  1. प्रथम दोष उन्होंने यह बतलाया कि आद्य पदार्थों के कणों के परस्पर आपसी टकराव से बहुत सारी मात्रा में भाप पैदा नहीं हो सकती है।
  2. दूसरी त्रुटि इन्होंने यह बतलायी है. कि आद्य कणों के परस्पर आपसी टकराव से गति उत्पन्न नहीं हो सकती है।
  3. तीसरी त्रुटि इन्होंने यह बतलायी कि निहारिका के आकार में वृद्धि होने से उसकी भ्रमणशील गति में वृद्धि आ सकती है।

उपर्युक्त त्रुटियों को अलग करने के लिए लाप्लास ने अपना निहारिका सिद्धान्त प्रस्तुत किया जो कि काण्ट के सिद्धान्त से मेल खाता है। लाप्लास के मतानुसार अतीत काल में ब्रहामण्ड में एक गतिशील एवं गर्म महापिण्ड (निहारिका) घूम रहा था। निहारिका की गतिशील स्थिति से विकिरण द्वारा उसका रूप धीरे-धीरे कम होने लगा। इस स्थिति से निहारिका का बाहरी भाग ठण्डा होने लगा। निहारिका के लगातार धीरे-धीरे ठण्डे होने से उसकी ऊपरी भाग में सिकुड़न पड़ने लगी। इसके फलस्वरूप निहारिका के आकार तथा आयतन में कमी आने लगी। आयतन में कमी आने से निहारिका की भ्रमणशील गति में निरन्तर वृद्धि होने लगी। अत्यधिक भ्रमणशील गति के कारण निहारिका में केन्द्रपसारी बल बढ़ने लगा और उसका मध्यवर्ती भाग कुछ हल्का होने लगा, क्योंकि निहारिका का मध्यवर्ती भाग बाहर की ओर उभर आता है । इस निहारिका का ऊपरी भाग लगातार शीतल होने से काफी घना हो जाता है, लेकिन निचले भाग के साथ-साथ घूम नहीं सकता। इस स्थिति में निहारिका का ऊपरी भाग निरन्तर ठण्डा होने से मध्य भाग सिकुड़ा और धीरे-धीरे छल्ले के रूप में अलग होने लगा। थोड़ी देर बाद देखते हैं कि गोल छल्ला निहारिका से अलग हो जाता है और निहारिका का चक्कर काटने लगता है। लाप्लास के मतानुसार इस निहारिका में से केवल एक ही छल्ला बाहर निकलता है और बाद में यह छल्ला नौ छल्लों में विभाजित हो जाता है।

इस प्रकार यह सभी छल्ले एक दूसरे से अलग हो जाते हैं और वह एकत्रित भाग गर्म वायव्य-ग्रन्थि का रूप ले लेता है जो धीरे-धीरे ठण्डा होकर ठोस ग्रह का रूप धारण कर लेता है। इस प्रकार लाप्लास की परिकल्पना के अनुसार नौ ग्रह बने और इन ग्रहों से अनेक उपग्रहों का आविर्भाव हुआ और निहारिका का शेष बचा हुआ भाग सूर्य बना।

आलोचनाएं-
  1. लाप्लास के सिद्धान्त की अनेक विद्वानों ने आलोचना की है। यद्धपि यह गणित के नियम को मानकर ही चले थे और प्रारम्भ में ही गतिशील एवं तप्त निहारिका बतलायी गयी लेकिन इनके अनुसार उपग्रहों की रचनाओं पर कोई प्रकाश नहीं डाला गया है।
  2. विद्वानों ने कहा कि सभी कण एकत्रित होकर नौ ही ग्रह क्यों बने। इससे अधिक और इससे कम भी तो सकते थे। अतः यह बात कुछ असंगत -सी प्रतीत होती है।
  3. इस सिद्धान्त की मान्यता कुछ दिन तक ही चल सकी और बाद में चलकर बिल्कुल समाप्त कर दी गयी, लेकिन इस सिद्धान्त ने एक नयी परिकल्पना को जन्म दिय जो आगे चलकर काफी समय तक मान्य रही।

रोशे की परिकल्पना

(Hypothesis of Rosche)

उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में रोशे नामक प्रसिद्ध फ्रांसीसी विद्वान ने लाप्लास के सिद्धान्त का संशोधन कर अपनी निहारिका प्रस्तुत की। लाप्लास की मान्यता थी कि विशाल निहारिका से एक वलय अलग हो गया और उसी से बाद में कई वलय उत्पन्न हुए, जो बाद में चलकर ग्रह बने। लेकिन रोशे का कहना है कि निहारिका से लगातार कई वलय उत्पन्न हुए और प्रत्येक वलय की राशि ठण्डी होकर घनीभूत हो गयी तथा ठोस पिण्ड का रूप धारण कर लिया, जो बाद में चलकर ग्रह के रूप कहलाये तथा निहारिका का अवशिष्ट भाग सूर्य बना। लाप्लास का कहना है कि निहारिका के चारों ओर बहुत दूर तक हल्की गैस राशि फैली हुई थी। रोशे की धारणा है कि इतनी विस्तृत प्रसार वाली गैस राशि का घनत्व इतना कम होगा कि उसके सिकुड़ने से एक बहुत बड़ी चपटी आकृति के गोलाकार वलय की रचना सम्भव नहीं हो सकेगी। इस बात को सिद्ध करते हुए उन्होंने बतलाया कि केन्द्रीय निहारिका से लगातार कई वलय अलग हुए।

अन्त में रोशे ने बतलाया कि पृथ्वी एक वायव्य पिण्ड से घनीभूत होकर द्रव्य अवस्था में परिवर्तित हुई धीरे-धीरे ठोस बनी और अब भी हम देखते हैं कि सम्पूर्ण पृथ्वी पूर्ण रूप से ठण्डी नहीं हुई है केवल इसका ऊपरी भाग जिस पर मानव, जीव-जन्तु जगत्, पेड़-पौधे निवास करते हैं, ठण्डा है और जमकर ठोस हो गया है। अभी भी पृथ्वी का आन्तरिक भाग तप्त लावा से भरा पड़ा है जो कि धीरे-धीरे अतीत में ठण्डा हो पायेगा।

समालोचमा-
  1. इस सिद्धान्त में यह बतलाया गया है कि सौर-मैडल के सभी ग्रहों की बनावट एक से तत्त्वों की है क्योंकि सभी ग्रह एक ही बड़े छल्ले से बने हुए हैं, जो कि वह भी पहले निहारिका का ही भाग था। अतः सौर-मंडल का आधुनिक सिद्धान्त इस मत की पुष्टि करता है जो कि रोशे की परिकल्पना के अनुकूल है।
  2. इस परिकल्पना में मुख्य विशेषता यह है कि समस्त ग्रहों की अक्षीय तथा कक्षीय भ्रमणशील गति पूर्ण रूप से स्पष्ट हो जाती है। अतः निहारिका के घूमने से जो वलय बना था वह भी भ्रमणशील अवस्था में था जो अन्त में चलकर ग्रह बन गया था।
  3. रोशे की परिकल्पना इस बात की पुष्टि करती है कि सौर मंडल के सभी ग्रह करीब-करीब एक ही तल और एक ही दिशा में घूमते हैं। लाप्लास ने यह स्पष्ट किया है कि वह सभी ग्रह एक छल्ले से बने होने के कारण एक ही आधार पर गतिशील हैं।
  4. इस सिद्धान्त की वास्तविक विशेषता यह है कि सर्वप्रथम सभी ग्रह गैसीय अवस्था में थे। बाद में चलकर द्रव्य अवस्था में और द्रवों से ठोस अवस्था में परिवर्तित हुए। अतः पृथ्वी का ऊपर से ठोस और अन्दर से पिघला रहना लाप्लास के मत की पुष्टि करता है। लाप्लास ने बतलाया कि पृथ्वी निहारिका के बने एक छल्ले के ठण्डा होने से बनी है, इसी कारण इसका ऊपरी भाग ठण्डा होकर ठोस हो गया है और आन्तरिक भाग अभी गर्म अवस्था में पड़ा हुआ है। यह बात आधुनिक भू-भौतिक शोधकर्ताओं से आज भी स्पष्ट होती है कि पृथ्वी का आन्तरिक भाग गर्म तथा पिघली हुई अवस्था में अब भी है।
आलोचनाएँ-
  1. इस सिद्धान्त की आलोचना में प्रसिद्ध विद्वान मोल्टन का मत है कि वलयों (Rings) के घनीभूत हो जाने से ऐसे गोल ग्रह कभी भी नहीं बन सकते है जो कि आज प्रकाश में स्पष्ट नजर आते हैं। गति-विज्ञान के अनुसार इस स्थिति में छोटे तथा असमान ग्रह बनेंगे जो कि वास्तविक सौर परिवार के ग्रहों से भिन्न होंगे।
  2. विद्वानों का कहना है कि यह आज सूर्य निहारिका का विशिष्ट भाग है तो सूर्य के मध्य भाग में अब भी उभार आने चाहिए। इससे यह बात स्पष्ट हो जायेगी कि इसमें से एक छल्ला अब भी अलग होने वाला है, लेकिन सूर्य में अब भी ऐसी कोई उभारीय स्थिति दिखाई नहीं देती।
  3. रोशे ने अपने सिद्धान्त में समस्त ग्रहों की समरचना तथा उनकी गतियों को स्पष्ट किया है। अतः इसके अनुसार ग्रहों तथा सूर्य की विषुवतरेखीय कक्षा को समान्तर ही रहना चाहिए था, लेकिन इसके बावजूद भी सूर्य तथा ग्रहों की कक्षा में 6° का अन्तर आज भी पाया जाता है।
  4. इस सिद्धान्त में लाप्लास ने बताया कि शनि के छल्लों और निहारिका से ग्रहों की उत्पत्ति सम्बन्धी सिद्धान्त की आपसी तुलना देखकर की है, लेकिन यह तुलना उसके लिए बेकार सिद्ध हुई। विद्वान मैक्सवेल के मतानुसार यदि किसी छल्ले का निर्माण हो जाता है तो वह एक ग्रह के रूप में एकत्रित नहीं हो सकता। मैक्सवेल के अनुसार छल्ले में गति की विभिन्न स्थितियाँ उसके संघनन (Condensation) में विरोध उत्पन्न करती हैं, उसे जल्दी से तोड़ देती हैं।
  5. इस सिद्धान्त में यह त्रुटि पायी जाती है कि सौर मंडल के सभी ग्रह तथा सूर्य की संरचना निहारिका द्वारा ही हुई है तो सूर्य की भ्रमणशील गति उसकी वर्तमान गति से कई सौ गुनी अधिक होनी चाहिए। इस नियम के अनुसार उसका वेग अपने ग्रहों से अधिक होना चाहिए लेकिन वास्तविकता इसके विपरीत है क्योंकि उसका वेग ग्रहों के वेग की अपेक्षा कई गुना कम है।
  6. प्रसिद्ध भू-गर्भशास्त्री हॉब्स (W. H. Hobes) ने कहा है कि यह सिद्धान्त केवल सौर मंडल के बारे में गलत स्थिति नहीं बतलाया बल्कि पृथ्वी की उत्पत्ति के बारे में भी पूर्णरूप से भ्रामक है।
  7. गैस गतिक सिद्धान्त के अनुसार वातीय छल्लों का घनीभूत होना तथा साथ ही ग्रह के रूप में परिवर्तित न होकर अन्तरिक्ष में विलीन हो जाना था।
  8. इस सिद्धान्त के अनुसार वायव्य पिण्डों से कणों में आपसी लगातार संलग्नता की मात्रा अत्यधिक कम होगी। इसमें बलयों का आविर्भाव लगातार होना चाहिए था, रूक-रुक कर नहीं।

लॉकियर की उल्कापिण्ड परिकल्पना

(Lockyer’s Meteoritic Hypothesis)

वैसे तो लाप्लास सिद्धान्त काफी दिन तक मान्य रहा है, और बहुत से लोग इसी के सिद्धान्त के अनुयायी हो गये। आज भी ऐसे बहुत विद्वान हैं जो लाप्लास के सिद्धान्त को पूर्णरूपेण मानते हैं। इसलिए लाप्लास के सिद्धान्त के आधार पर लॉकियर ने अपनी नयी परिकल्पना प्रस्तुत की। वास्तव में देखा जाय कि लॉकियर की परिकल्पना लाप्लास के सिद्धान्त का केवल संशोधित रूप ही है। एक समय लॉकियर बैठे आकाश की ओर देख रहे थे, रात के समय उन्होंने देखा कि आकाश के तारे टूट रहे हैं। ये टूटे हुए तारे ही उल्का (Meteor) के रूप में माने जाते हैं। इसका गहन अध्ययन करने पर उन्होंने देखा कि सभी टूटे हुए तारे पृथ्वी की ओर चले जाते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण ही यह तारे नीचे की ओर आते हैं। पूर्ण निरीक्षण के उपरान्त यह पता चला है कि यह टूटे हुए उल्का तारे जो पृथ्वी पर आकर मिल जाते हैं तथा पृथ्वी एक ही पदार्थ से बने होंगे, जो किसी समय सौरमंडल की रचना के समय अलग-अलग हो गये होंगे। लॉकियर महोदय ने आगे इन सब बातों का और अधिक गहन अध्ययन किया और कल्पना की कि सौर मंडल एक ठोस उल्का पिण्ड से बना हुआ है।

लॉकियर ने अपनी इस परिकल्पना के अनुसार बतलाया कि सर्वप्रथम आकाशीय वायुमंडल में दो बहुत बड़े तारे आपस में टकराये और दोनों की इस प्रकार घमासान टक्कर हुई कि उसके अंग चूर-चूर हो गये। इस टक्कर से उनमें घर्षण पैदा हुआ तथा साथ ही ताप, प्रकाश, वात का आविर्भाव हुआ। ताप इतना उत्पन्न हुआ कि तारों का टूटा हुआ भाग पिघल कर द्रव्य में परिणित हो गया और वायव्य रूप में बादल की भाँति छा गया। इस घने बादल में आकर्षण शक्ति का प्रभाव एकमात्र सर्वत्र था। आपसी टकराव तथा आकर्षण शक्ति के कारण यह बादलरूपी महापिण्ड घूमने लगता है और घूमते-घूमते सर्पिल (चक्राकार) निहारिका (Spiral Nebula) में बदल जाता है, अब घूमती हुई सर्पिल निहारिका का ऊपरी भाग धीरे-धीरे ठण्डा हो जाता है तथा ठंडा हुआ केन्द्रीय भाग निहारिका से अलग हो जाता है। अलग हुआ भाग एक ठोस पिण्ड के रूप में सिकुड़ जाता है और उस सिकुड़ी हुई निहारिका में से क्रमशः नौ भाग अलग हो जाते हैं। यह नौ भाग सौर मंडल के नवग्रह बनकर, केन्द्रीय अवशिष्ट भाग सूर्य का चक्कर लगाने लगते हैं। यही लॉकियर की उल्का पिण्ड की परिकल्पना थी।

आलोचनाएँ-
  1. इस परिकल्पना में वह सभी त्रुटियाँ शामिल हैं जो लाप्लास सिद्धान्त में हैं, क्योंकि यह परिकल्पना लाप्लास के सिद्धान्त पर ही, आधारित है।
  2. इस परिकल्पना में यह बात पूर्णतः भ्रामक सिद्ध होती है कि टूटी हुई उल्काएँ एक साथ एकत्रित होकर महापिण्ड का रूप धारण कर लेती हैं।
  3. चेम्बरलिन महोदय ने बतलाया कि इतनी बड़ी निहारिका के बनने में केवल उल्का पिण्ड पर्याप्त नहीं है। अतः परिकल्पना पूर्णतया निराधार है।

द्वैतारक या द्वैतवादी परिकल्पना का अर्थ यह है कि इनमें होने वाले ग्रहों की रचना एक से अधिक या अधिकांशः दो तारों से हुई। ग्रहों की रचना 20वीं शताब्दी के प्रारम्भिक चरणों से हुई है, क्योंकि बीसवीं शताब्दी के बाद वैज्ञानिकों ने पृथ्वी की उत्पत्ति सम्बन्धी धारणाओं में रुचि ली। और अधिकांश संख्या में विद्वानों ने अपने विचार प्रस्तुत किये । अतः इसे द्वैतवादी संकल्पना ‘Bi-Parental Concept’ भी कहा जाता है। इस संकल्पना में मुख्य परिकल्पना चैम्बरलिन तथा मोल्टन की ग्रहाणु परिकल्पना, जेम्स, जीन्स तथा जेफरीज की ज्वारीय परिकल्पना, एच. एन रसेल की द्वैतारक परिकल्पना इत्यादि हैं।

चेम्बरलिन तथा मोल्टन की ग्रहाणु परिकल्पना

(Planetesimal Hypothesis of Chamberlin and Moulton)

निहारिका परिकल्पना के पश्चात् संयुक्त राज्य अमेरिका के भू-विज्ञानी मोल्टन ने और ज्योति विज्ञानी चेम्बरलिन ने ग्रहाणु परिकल्पना को जन्म दिया। उनके विचार में सूर्य शून्य में परिभ्रमण कर रहा था कि एक महानतम तारा सूर्य के निकट पहुँच गया। सूर्य के धरातल से गैस एवं वाष्प की सौर-ज्वालाएं निकलीं। उसने इस ज्वालाओं को आकर्षित कर लिया। फलतः महानतम तारे की आकर्षण शक्ति से सूर्य के धरातल से छोटे-छोटे टुकड़े दूर फेंक दिये गये। मूल पिण्ड का अवशेष भाग वर्तमान सूर्य है और जो टुकड़े बिखर गये थे वे कालान्तर में घनीभूत हो गये और उनसे ग्रहों एवं उपग्रहों की रचना हुई। उन टुकड़ों को ग्रहाणु की संज्ञा प्रदान की गयी। इस परिकल्पना के जन्मदाताओं का विचार था कि ये ग्रह पूर्णतया ठोस थे और ग्रह निर्माण के पूर्व सूर्य तप्त एवं गैस पूर्ण नहीं था, बल्कि ठोस कणों से निर्मित चक्राकार एवं ठण्डा था।

आपत्तियाँ
  1. ग्रह सदैव ठोस रहे हैं किन्तु अन्य प्रमाणों से विदित होता है पृथ्वी किसी समय तरल अवस्था में अवश्य थी।
  2. परस्पर टकराने से ग्रहाणुओं का गैस या धूलि के रूप में बिखर जाना उचित लगता है, इकट्ठा हो जाना युक्तिसंगत नहीं प्रतीत होता।
  3. यह परिकल्पना कोणीय संवेग के बारे में नहीं समझा पाती। नक्षत्रों के बनने तथा उसी चौरस स्थान पर चक्कर काटने के सम्बन्ध में तो यह परिकल्पना स्पष्ट है, किन्तु पृथ्वी की उत्पत्ति (चेम्बरलिन के मतानुसार सूर्य और नक्षत्रों के बीच कोणीय संवेग के वितरण को समझाने में असमर्थ है।
  4. लाप्लास के अनुसार वातीय निहारिका लाखों वर्ष उत्तापदीप्त रही, किन्तु वैज्ञानिक कैल्विर की आपत्ति है कि एक प्रसूतवाती इतने दीर्घकाल तक उत्तापदीप्त कैसे रही।
व्याख्या-

चेम्बरलिन के मतानुसार पृथ्वी के ग्रहाणुओं के गिनने तथा केन्द्रीय दाब और अणुओं के पुनर्संगठन के फलस्वरूप उष्णता बढ़ गयी जो कालान्तर में ज्वालामुखी के उद्भेदन का कारण बनी।

इस परिकल्पना के समर्थकों का विचार है कि जब वायुमंडल में जलवाष्प संतृप्तता-बिंदु पर पहुँच गयी तो झीलों के रूप में महानगरों की उत्पत्ति हुई। एक समय ऐसा आया कि ज्वलामुखी क्रिया का प्रभुत्व हो गया और प्राथमिक आग्नेय शैलों का निर्माण हुआ। इस प्रकार चेम्बरलिन ने पृथ्वी की उत्पत्ति के विषय में निम्नलिखित तीन कालों की कल्पना की है-

  1. ग्रहाणुओं के एकत्रीकरण का काल, 2. ज्वालामुखी उद्भेदन का काल, 3. भूतत्त्व का वर्तमान काल।

सूर्य के निष्कासित ग्रहाणुओं का कुल पदार्थ द्रव्यमान को देखते हुए कम होना चाहिए। इस परिकल्पना द्वारा भी यह सत्य प्रतीत होता है क्योंकि कुल ग्रहों का द्रव्यमान सौर-परिवार के द्रव्यमान का 1/700 है।

दो तारे एक-दूसरे के समीप क्यों आये? मुख्य तारे की आकर्षण शक्ति के प्रभाव से सर्पिल निहारिका के खण्डित पिण्ड पुनः मुख्य तारे से क्यों नहीं मिल गये? इस प्रकार के प्रश्न इस परिकल्पना की समीक्षा के लिए किये जाते हैं, जिनका उत्तर इनमें नहीं मिलता। ये ही इस परिकल्पना के विरुद्ध उठायी गयी आपत्तियाँ हैं।

निहारिका तथा ग्रहाणु परिकल्पना की तुलना

निहारिका परिकल्पना

ग्रहाणु परिकल्पना

1. पृथ्वी की उत्पत्ति केवल एक ग्रह से हुई है। 1. दो ग्रहों के पारस्परिक आकर्षण से हुई।
2. आदिम अवस्था में पृथ्वी गैस थी। 2. पृथ्वी गैस थी।
3. आरम्भ में पृथ्वी उष्ण थी। 3. पृथ्वी शीतल थी।
4. पृथ्वी का तापमान क्रमशः क्षीण होता गया। 4. पृथ्वी का तापमान क्रमश बढ़ता गया।
5. पृथ्वी की आदिम अवस्था में वायुमंडल वर्तमान था। 5. पृथ्वी की आदिम अवस्था में वायुमडल वर्तमान नहीं था।

जेम्स जीन्स तथा जेफरी की ज्वार-भाटा परिकल्पना

(The Hypothesis of Jeans of Jeffrey) (1988, 90)

ब्रिटिश गणितज्ञ जीन्स और जेफरी ने ज्वार-भाटा परिकल्पना को प्रस्तुत किया। यह अधिक मान्य भी है। इन्होंने कल्पना की है कि सूर्य गैस का एक विशाल पिण्ड था और अतीत काल में ब्रह्माण्ड में एक बहुत बड़े तारे ने सूर्य के समीप जाते हुए अपनी आकर्षण शक्ति से सूर्य में ज्वार उत्पन्न कर दिया। ज्यों-ज्यों यह बड़ा तारा सूर्य के समीप आता गया, ज्वार की ऊंचाई तथा आकार बढ़ता गया। जब तारा सूर्य से कम-से-कम दूर आ गया तब उसके ठीक नीचे गैसीय सूर्य के गोले से करोड़ों किलोमीटर लम्बा सिगार के आकार का एक ज्वार उठ गया, जेफरी के अनुसार सूर्य और इसके समीप आने वाले विशाल तारे में टक्कर हो गयी, जिसके परिणामस्वरूप सूर्य तथा उस विशाल तारे का कुछ भाग आकाश में बिखर गया। इन्हीं से ग्रहों का निर्माण हुआ। तारे के अपने रास्ते पर जाते हुए सूर्य से कम दूरी पर आने के साथ दूर तक नहीं जा सका और न सूर्य में ही वापस आ सका। इस प्रकार ज्वार से निकला हुआ पदार्थ एक लम्बे सिगार के रूप में हो गया, जो बीच में मोटा तथा दोनों किनारों की ओर पतला था। किनारों के पतला होने का कारण दोनों शक्तियों का आकर्षण था। साथ-ही-साथ यह सिगार रूपी पदार्थ सूर्य की परिक्रमा करने लगा। पुनः सिगार की आकृति के इस पदार्थ के ठण्डा होने तथा सिकुड़ने से उसकी आकृति विश्रृंखल हो गयी और ग्रहों का निर्माण हुआ। इसी प्रकार विभिन्न ग्रहों के सूर्य के समीप आने के कारण तथा उनसे ज्वार निकलकर अलग होने से उपग्रहों का निर्माण हुआ। जेफरी के अनुसार सूर्य के समीप आने वाले तारे से सूर्य की भिड़न्त हुई, जिससे सूर्य तथा विशालकाय तारे के कुछ अंश आकाश में आकर्षण शक्ति के कारण केन्द्रित होकर छिटक गये और इन्हीं से ग्रहों की रचना हुई, जेफरी ने अपने प्रयास से इस परिकल्पना की त्रुटि को पूरा किया।

जीन्स की परिकल्पना से यह सिद्ध हो जाता है कि ग्रह निर्माण की घटना अद्भुत है, किन्तु तथ्य कुछ दूसरा ही है। जीन्स महोदय जिसे अद्भुत तथा असम्भव घटना समझते हैं वह वर्तमान युग में एक साधारण घटना है। हमारी आकाश गंगा के भीतर ही कई ऐसे नक्षत्र हैं जिनके अपने ग्रह है। जीन्स महोदय की परिकल्पना धार्मिक व्यक्तियों की लिए रुचिकर होनी ही चाहिए थी, किन्तु आज के वैज्ञानिक जीन्स की परिकल्पना को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है।

पक्ष में प्रमाण
  1. यदि सौर मंडल के कुल तारे एक सीध में रखे जायें, तो इनकी आकृति सिगार जैसी हो जायेगी। मध्य में बड़े ग्रह और दोनों किनारों पर छोटे ग्रह पड़ते हैं, केवल मंगल ग्रह इस क्रम के विपरीत पड़ता है।
  2. विभिन्न ग्रहों के उपग्रहों की संख्या एवं आकार भी इसके अनुकूल ही हैं। छोटे ग्रहों के उपग्रह नहीं है, मध्यम वर्ग के ग्रहों के उपग्रह कम हैं, परन्तु बड़े ग्रहों के उपग्रह अधिक हैं।
  3. यम नामक ग्रह का पता ज्वार-भाटे की परिकल्पना के प्रस्तावित होने के बाद लगा और इस ग्रह का आकार इसकी पुष्टि में सहायक सिद्ध होता है।
  4. उपग्रहों का विस्तार भी सौर-मंडल की आकृति में है क्योंकि जिन ग्रहों के कई उपग्रह हैं। उनके बीच के उपग्रह बड़े तथा किनारे के उपग्रह छोटे हैं। इससे इस परिकल्पना की उपयोगिता और बढ़ जाती है।
  5. इस परिकल्पना के अनुसार बड़े ग्रह अधिक काल तक गैस रूप में रहे। अतः उनके उपग्रह अधिक संख्या में बने, किन्तु उनका आकार छोटा रहा। बड़े ग्रहों के समीपवर्ती ग्रहों के उपग्रह कम संख्या में बने, परन्तु आकार में बड़े बने। सिरे वाले ग्रह बुध तथा यम आकार में छोटे होने के कारण जल्दी ठण्डे हो गये, अतः उनके उपग्रह नहीं बने।
  6. सभी. ग्रह सूर्य की आकर्षण शक्ति के कारण अपनी कीली पर झुके हुए हैं और इसी झुकाव की दशा में सूर्य की परिकल्पना करते हैं। सभी ग्रहों का झुकाव भित्र है।
विपक्ष में आपत्तियाँ
  1. इस क्रम में मंगल अनुपयुक्त हो जाता है, जिसका समाधान इस परिकल्पना में उपलब्ध नहीं है।
  2. जो विशाल तारा ज्वार-उद्भेदन का अभिकती था वह क्या हो गया? सूर्य के आकर्षण से इस विशाल तारे में क्यों चंचु उत्पन्न हो गये? सौर मंडल के निर्माण के पश्चात् क्या वह विशाल तारा मृत हो गया, जिससे वह पुनः परिभ्रमण करते हुए सूर्य के निकट नहीं आ सका? यदि वह पुनः सूर्य के निकट आ सका तो उसका सूर्य पर क्या प्रभाव पड़ा? इन प्रश्नों का उत्तर इस परिकल्पना की व्याख्या से परे है।
  3. सूर्य के उद्रेक से निर्मित ग्रहों को सूर्य के निकट से ही परिकल्पना करनी चाहिए थी, किन्तु हम जानते हैं कि ग्रह सूर्य के व्यास की 500 गुनी दूरी पर उसकी परिक्रमा करते हैं और वरुण सूर्य के व्यास की 3,200 गुनी दूरी पर पेरिस्की ने गणितीय आधार यह सिद्ध किया है कि जीन्स का सिद्धान्त सूर्य और ग्रहों के मध्य दूरी को समझाने में असमर्थ है। अमरीकी खगोलज्ञ रसेल ने भी सन् 1937ई. में आपत्ति प्रकट की है। काण्ट और लाप्लास के सिद्धान्त सूर्य के न्यून कोणीय संवेग को नहीं समझा पाते, उसी प्रकार जीन्स की परिकल्पना ग्रहों के अधिक कोणीय संवेग को पूर्ण हैं समझाने में असमर्थ है।

इस त्रुटियों के कारण वैज्ञानिक आज भी पृथ्वी की उत्पत्ति के रहस्य के उद्घाटन के निमित्त परिकरबद्ध है।

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