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पृथ्वी की आंतरिक संरचना (Internal structure of Earth)

पृथ्वी की आन्तरिक संरचना

पृथ्वी की आन्तरिक संरचना

पृथ्वी के आभ्यन्तर के विषय में निम्न चार विचारधाराएँ हैं-

  1. ठोस के आन्तरतम (Solid Core)
  2. तरल आन्तरतम (Liquid Core)
  3. गैसीय आन्तरतम (Gaseous Core)
  4. आन्तरिक भाग तथा पर्पटी ठोस, किन्तु मध्य भाग तरल ।

ठोस के आन्तरतम परिकल्पना

जर्मन भू-गर्भशास्त्री सुइस ने इस धारणा को प्रस्तुत किया है कि दबाव बढ़ जाने से प्रत्येक पदार्थ का गलनाक बढ़ जाता है, किन्तु प्रयोग से ज्ञात हुआ है कि यह एक सीमा तक ही सम्भव है। ऊँचे तापमान में कोई भी खनिज पदार्थ ठोस नहीं रह सकता है, ज्वालामुखी के विस्फोट, आग्नेय शैलें और गरम स्त्रोत इसका समर्थन करते हैं। ब्रिटिश विद्वान पिट तथा जर्मन भूगोलवेत्ता रिटर ने इस विचार का प्रतिपादन किया। किन्तु इसके विपक्ष में कहा गया है कि ज्वार-भाटे के समय पृथ्वी गोलाकार पिण्ड एक ठोस पिण्ड का कार्य करता है और भूकम्प तरंगें बहुत गहराई तक पहुँच जाती हैं, जो ठोस गोलाकार पिण्ड में ही सम्भव हो सकता है। अन्य नक्षत्र भी पृथ्वी की तरह ठोस मिलते हैं। सन् 1936 ई. में लेटमान महोदय ने भूकम्प विज्ञान सम्बन्धी प्रमाणों से सिद्ध किया है कि पृथ्वी का केन्द्र ठोस हो सकता है।

तरल आन्तरतम परिकल्पना

वैज्ञानिक लाप्लास द्वारा प्रतिपादन तरल आन्तरतम परिकल्पना के पक्ष में ज्वालामुखी का उद्भेदन तथा भू-कम्प तरंगों की रुकावट की घटना प्रस्तुत की जाती है। वीचर्ट महोदय ने सन् 1890 ई. में तरल आन्तरतम की परिकल्पना को प्रस्तुत किया, जिसको भू-वैज्ञानिक ओल्डम ने सिद्ध किया किन्तु इसके विरुद्ध निम्न-प्रमाण भी मिलते हैं-

  1. सागर में ज्वार-भाटा उत्पन्न करने के लिए जल-मंडल के नीचे 400 किलोमीटर मोटाई का ठोस गोलाकार पिंड होना चाहिए। तरल आन्तरतम पर सारी शक्तियों के प्रभाव से पृथ्वी की तहें दो बार मुड़ जाती हैं। पृथ्वी का आन्तरतम तरल होता तो पृथ्वी के धरातल पर ज्वार उठते, किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होता।
  2. ऊपर की ठोस तह इतने युगों में ठोस और घनी हो जाती । भौगोलिक युगों में मोटी तह हो जाने पर ज्वालामुखी के विस्फोटों में लगातार कमी होती चली जाती, परन्तु ऐसा नहीं है।
  3. एक ठोस की तरह तरल आन्तरतम पर रखी नहीं रह सकती। जैसे ही वह ठोस होगी, तह की शैल अधिक गुरुत्वाकर्षण के कारण नीचे बैठ जायेगी। इस दशा में पृथ्वी के तरल आन्तरतम की कल्पना का त्याग करना पड़ा।

स्वीडन के वैज्ञानिक अरीनिडस ने यह कल्पना की थी कि पृथ्वी धातुओं से बनी है और इसके अत्यन्त गहरे भाग में धातुएँ भरी हुई हैं। इसका ऊपरी भाग ठोस है, बीच में द्रव-पदार्थ हैं और सबसे नीचे का भाग गैसीय अवस्था में है। किन्तु इस कथन को स्वीकार करने में दो कठिनाइयाँ हैं-

  1. ज्वार के समय समस्त पृथ्वी-पिंड एक ठोस की भाँति कार्य करता है।
  2. भूकम्प का तरंगे काफी गहराई तक उसी प्रकार चली जाती हैं, जैसे वे एक ठोस पिण्ड में आ सकती हैं।

गैसीय आन्तरतम परिकल्पना

भू-पटल की शैलों तथा पृथ्वी के घनत्व के आधार पर न्यूटन ने निर्धारित किया था कि आकर्षण शक्ति पदार्थों के द्रव्य की मात्रा के अनुपात में बढ़ती जाती है और उनके बीच दूरी के अनुपात में कम होती हैं। इस नियम के अनुसार सम्पूर्ण पृथ्वी का घनत्व 55 है, पर्पटी का 2.7 है तथा केन्द्रीय भाग का 8 है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि पृथ्वी का आन्तरिक भाग बहुत भारी पदार्थों से बना हैं। पृथ्वी के गोले की परिदृढ़ता, पृथ्वी का चुम्बकत्व, उल्काओं में लोहे तथा निकिल के यौगिकों का महत्वपूर्ण अंश भी इस तथ्य के समर्थन में आते हैं। अतः लाप्लास द्वारा प्रस्तुत गैसीय आन्तरतम की धारणा अव्यावहारिक प्रतीत होती है।

सुइस का सिद्धान्त (Theory of Suess)

पृथ्वी का बाह्य शैलों का रवेदार भाग मुख्यतः सिलका से बना है, जिसमें फेल्सपार, अभ्रक, इत्यादि खनिज हैं। सिलिका से बनी हुई शैलों का घनत्व बहुत भिन्न होता है क्योंकि रवेदार शैलें दो प्रकार की होती हैं, जिसमें प्रथम, हल्के सिलिका की शैलें तथा द्वितीय, घने सिलिका की शैलें हैं। उपर्युक्त बातों से लुइस नामक जर्मन वैज्ञानिक के विचार की पुष्टि होती है कि अवसादी शैलों के नीचे साधारण ग्रेनाइट तुल्य पदार्थों की एक तह है कि हम सिएल (Sial) कहते हैं। इसमें सिलिका तथा एलुमिनियम की प्रधानता होती है। इसका घनत्व 2.7 से 2.9 होता है। इससे अधिकतर महाद्वीपों का निर्माण होता है। इसके नीचे अधिक घनत्व का पदार्थ होता है जिसमें सिलिका तथा मैग्नीशियम की अधिकता होती है और इसकों हम सिमै (Sima) कहते हैं ।

इसकी तुलना में भारी मूल आग्नेय शैलें ही रखी जा सकती हैं। सिमै की प्रतिनिधि शैल बेसाल्ट (Basalt) तथा गेब्रो (Gabro) हैं। इसका घनत्व 2.9 से 4.75 के बीच है। इसकी परतें अधिकतर महासागरों का निर्माण करती हैं, पर महाद्वीपों के नीचे भी स्थित हैं। पृथ्वी का केन्द्रीय भाग लोहा एवं निकिल का बना हुआ है और इसको निफे (Nife) कहते हैं।

सुइस ने सिमै के पश्चात् पृथ्वी के केन्द्रीय भाग को निफे (Nife) नाम दिया है। इसकी शैलों का घनत्व 8 से 11 है, जिसमें लोहा तथा निकिल की प्रधानता है।

सुइस के मतानुसार सिएल-निफे से निर्मित है और महाद्वीपों का निचला भाग तथा महासागरीय तल सिमै के बने हुए हैं।

पृथ्वी की परतों का विभाजन

भूकम्प की लहरों के आधार पर पृथ्वी की तीन परतें भी ज्ञात होती हैं-

  1. स्थल मंडल (Lithosphere)-

    इसकी मोटाई पृथ्वी के धरातल से 100किमी. की गहराई तक मानी जाती है। यह हल्की जलज शैलों द्वारा निर्मित है। इसमें ग्रेनाइट, शैलों की प्रधानता है जिसमें सिलिका तथा एलुमिनियम धातुओं की प्रधानता होती है। इसमें भू-कम्प की प्रधान तरंगों की चाल 51 किमी. प्रति सेकण्ड और तिरछी तरंगो की 3 किमी. प्रति सेकण्ड होती है। इनकी शैलों के घनत्व 2.7 है।

  2. उत्ताप मंडल (Phryosphere) –

    यह भू-गर्भ का मध्यवर्ती भाग है जो 100 किमी. से 2,900 किमी. गहराई तक माना जाता है। इन शैलों में सिलिका तथा मैग्नीशियम की अधिकता है। इसमें प्रधान तरंगों 6 से 7 किमी. प्रति सेकण्ड और तिर्यक तरंगें 3 से 4 किमी. प्रति सेकण्ड की गति से चलती है। बेसाल्ट शैलों के इस प्रदेश का घनत्व 3.5 है।

  3. गुरु या केन्द्र (Barysphere)-

    मंडल का यह भाग 2,900 किमी. गहराई से पृथ्वी के केन्द्र तक पड़ता है। यह पृथ्वी का एक तिहाई भाग है। इसका घनत्व 8 से 11 है। इस भाग में लोहा या निकिल की प्रमुखता है। इसमें तिरछी तरंगे प्रवेश नहीं कर पातीं और द्रव में प्रवेश करते समय-प्रधान तरंगों की गति में कमी आ जाती है। यह भाग लोचदार, मुलायम किन्तु दृढ़ प्रतीत होता है।

वर्तमान अन्वेषणों के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि पृथ्वी का आन्तरिक भाग पूर्णतया द्रव-पदार्थ द्वारा निर्मित नहीं है, बल्कि सबसे नीचे केन्द्रीय भाग में 1,250 किमी. अर्द्ध व्यास का ठोस भाग है जिसका घनत्व 18 है। मध्य के द्रव-सिलिकेट द्वारा निर्मित द्रव- क्षेत्र लगभग 2,250 किमी. मोटा है।

उपर्युक्त कल्पना के समर्थन में विश्व-उत्पत्ति-शास्त्र (Cosmogomy) भौतिकशास्त्र में शिलाओं की संपीड्यता का प्रायोगिक अध्ययन तथा उल्का पिण्ड विज्ञान (Science of Meteroties) प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।

जेफरी के सिद्धान्त तथा भू-कम्प तरंगें

(Theory of Jeffrey’s and Earthquake Wave)

कुछ वैज्ञानिकों ने भूकम्प तरंगों के अध्ययन से भी पृथ्वी की आन्तरिक रचना का अनुमान लगाया हैं। तरंगें मुलायम शैलों की अपेक्षा ठोस शैलों में तीव्रता से गुजरती हैं। कम घनत्व की शैलों में ये तरंगें धीरे-धीरे समान गति से गुजरती हैं, परन्तु आन्तरिक भाग की ओर इसकी गति तीव्रतर हो जाती हैं जबकि इससे अधिक गहराई पर तरंगों की गति एक-सी रहती है। इस प्रकार तीन वर्ग को तीन विभिन्न भू-गर्भीय गतियों के आधार पर शैलों की तीन परतें होती हैं- ऊपरी, मध्यवर्ती तथा अधःस्तर। ऊपरी तह में ग्रेनाइट का गुण अधिक है जिसमें अवसादी, कायान्तरित तथा आग्नेय शैलें सम्मिलित हैं। इसकी मोटाई 15 किलोमीटर मानी जाती है।

यह कम घनत्व का स्तर है। इसका घनत्व 2.7 है। इसकी तरंगें Pg कहलाती हैं जिनकी गति 5.4 किमी. प्रति सेकण्ड होती हैं। दूसरी तरंगें Sg कहलाती हैं जिनकी गति 3.3 किमी. प्रति सेकण्ड होती हैं। यह गति 15 किमी. की गहराई तक पायी जाती है। महासागरों में ग्रेनाइट शैल का स्तर नहीं मिलता।

मध्यवर्ती तह में बेसाल्ट की प्रधानता है जो 20 से 30 किमी. गहरी हैं। यह पिघलती हुई दशा में एक निश्चित रासायनिक बनावट है जो दबाव व भौतिक दशा के अन्तर्गत भिन्न-भिन्न खनिजों के मिश्रण से रवेदार हो सकती है या ठोस की दशा में बदलते समय रवा नहीं बन सकता है, द्रव्य ही रहता है।

इस स्तर में प्रधान तरंगों की गति 6 किमी. तथा गौण तरंगों की गति 4 किमी. प्रति सेकण्ड होती है। इसमें महासागरों के अवसाद बेसाल्ट पर आधारित रहते हैं। बेसाल्ट की परत लगभग 5 किमी. मोटी होती है।

बेसाल्ट की परत के नीचे प्रावार शैल (Mantle rock) की परत 2,900 किमी. गहराई तक मिलती है। प्रावार शैल तथा भू-पृष्ठ के मध्य एक सीमाको निर्धारण भू-वैज्ञानिक मोहोरों विसिस महोदय ने किया। मोहरों विसिस ने 35 किमी. पर इस पेटी में भूकम्प तरंगों में एक परिवर्तन या असांतत्य पाया। इसको मोहों संज्ञा प्रदान की गयी। इसका घनत्व 35 है। प्रावाल- शैल की पेटी के निचले भाग का घनत्व 5.7 है।

अंतःस्तर में प्रावाल शैल की परत से 5,100 किमी. तक बाह्य-भू-क्रोड मिलता है। इसके निचले भाग का घनत्व 15.2 है। इसके पश्चात् पृथ्वी के केन्द्र से 6,370 किमी. तक आन्तरिक भू-क्रोड मिलता है जिसका घनत्व 17.2 है। इन स्तरों में घनत्व की अधिकता से तरंगें दुर्बल हो जाती हैं। प्रथम तरंगों की गति वक्र हो जाती है। प्रावाल शैल की परत से पृथ्वी के केन्द्र तक लोहा एवं निकिल की प्रमुखता मिलती है। यह भाग लचीला, मुलायम किन्तु दृढ़ प्रतीत होता है।

अमरीकी भू-विज्ञानी डैली तथा स्काटिश, गणितज्ञ जेफरी इस भाग को बेसाल्ट या लास या टैचीलाइट का बना हुआ ही मानते हैं, जबकि बेगरन और होम्स इसे एम्फीबोलाइट (Amphibolite) का बना मानते हैं, किन्तु अधःस्तर भाग अवश्य की बेसाल्ट जैसे घने पदार्थों से बना हुआ माना जाता है। जिसमें ओलिविन (Olivine) तथा खनिज की अधिकता है और ये पदार्थ स्वाद सहित चमकदार दशा में हैं। इसकों डुनाइट (Dunite) द्वारा सम्बन्धित किया जाता है। इस प्रकार भू-कम्पी तरंगों के अध्ययन से पृथ्वी की आन्तरिक संरचना की जानकारी में भारी सहायता मिल सकी है।

भू-कंम्पीय तरंगों के अध्ययन के आधार पर जेफरी महोदय ने पृथ्वी को तीन परतों में माना है-

  1. बाह्य या ऊपरी परत,
  2. मध्यवर्ती परत,
  3. निचली परत ।

जेफरी के मतानुसार अधिक घनत्व की शैलें निचली परल में और कम घनत्व की शैलें ऊपरी परत में मिलती हैं। ऊपरी परत में ग्रेनाइट, मध्यवर्ती. परत में डिओराइट तथा निचली परत में बेसाल्ट की बहुलता रहती है। गोले का केन्द्र सबसे भारी धातुओं से निर्मित रहती है।

सर आर्थर होम्स महोदय ने पृथ्वी को दो परतों में माना है- प्रथम परत भू-पृष्ठ से सम्बोधिक की गयी है। भू-पृष्ठ में सिएल मिट्टी, ग्रेनाइट तथा सिमै (बेसाल्ट) परते सम्मिलित हैं जिसकी मोटाई भी विभिन्न आधारों एवं प्रमाणों के आधार पर निर्धारित की गयी है। दूसरी परत अधः स्तर कहलाती जो बेसाल्ट से भी अधिक घनत्व के पदार्थों से निर्मित है। इसमें ओलिविन तथा खनिजों की अधिकता है।

गटेनबर्ग का भू-गर्भ विभाजन 

गटेनबर्ग ने अपने प्रयासों द्वारा सन् 1951ई. में भू-गर्भ को समानान्तर पेटियों में विभाजित किया है।

  1. अवसादी परत (Sedimentary Layer) –

    इसका विस्तार महाद्वीपों एवं महासागरों में अनियमित है। इसकी मोटाई भी भिन्न-भिन्न है।

  2. ग्रेनाइट शैल परत (Granite Rock Layer) –

    इसका विस्तार महाद्वीपों पर ही है। महासागरों में यह लेश मात्र प्राप्त होती है। अवसादी ग्रेनाइट परत से भू-पटल की रचना होती है। इन दोनों परतों की मोटाई 15 से 30 किमी. होती है।

  3. अल्पसिलिक शैल परत (Basic Rock Layer)-

    यह परत भू-पटल के नीचे पायी जाती है। इसकी खोज ए. मोहोरो विसिस महोदय ने सन् 1909 में की थी। इसलिए इस परत को मोहों संज्ञा भी प्रदान की जाती है।

  4. अत्यन्त सिलिका शैल परत (Ultra Basic Rock Layer)-

    इसकी खोज गटेनवर्ग ने की थी। अतः इसकों गटेनबर्ग परत भी कहते हैं। इसमें सिलिका शैलों की मांत्रा गहराई के अनुसार क्रमशः कम होती, जाती है। इसकी गहराई 2,900 किमी. तक होती है।

  5. भू-क्रोड (Core ) –

    भू-गर्भ के ऊपर की परतों के पश्चात् केन्द्र तक 3,470 किमी. तक भू-क्रोड है। इस प्रकार धरातल से पृथ्वी का केन्द्र 6,370 किलोमीटर है।

आर.ए. डैली का भू-गर्भ विभाजन 

आर.ए. डैली ने भू-गर्भ को चार संकेन्द्रीय पेटियों में विभाजित किया है-

  1. स्थल मण्डल (Lithosphere)-

    यह परत कठोर है और इसकी मोटाई लगभग 800 किलोमीटर है।

  2. दुर्बलता मण्डल (Astheno sphere)-

    यह परत न तो कठोर है और न दृढ़। इसकी मोटाई 360 किलोमीटर होती है।

  3. मध्य मण्डल (Mesosphere) –

    इसकी मोटाई 2,400 किलोमीटर है। वह परत दुर्बलता मण्डल की अपेक्षा कठोर है।

  4. केन्द्र मंडल (Controsphere) –

    शेष भाग केन्द्र मण्डल है। इसका व्यास लगभग 2,538 किलोमीटर है। इसका रासायनिक गठन दुर्बलता मण्डल तथा मध्य मण्डल के ही समान है।

इसमें रवेदार शैलें अधिक घनत्व की हैं। जिनमें दृढ़ता भी है।

हाब्स तथा चेम्बरलिन महोदय ने भी पृथ्वी को निम्न परतों पर विभक्त किया है।

हाब्स की परतें

  1. अवसादी एवं आग्नेय शैलें,
  2. उत्काश्म (Meteoric Stone),
  3. उल्हा (Meteoric Iron),
  4. उल्का अश्म लोहा (Meteoric Stone Iron)

चेम्बरलिन की परतें

  1. बाह्य आग्नेय शैल
  2. ग्रहाणु पदार्थ (आग्नेय)
  3. ग्रहाणु पदार्थ।

एम. बोल्डस्मिड का पृथ्वी के आंतरिक विभाजन

एम. बोल्डस्मिड ने पृथ्वी की आन्तरिक परतों का क्रम निम्न प्रकार बताया है-

  1. बाह्य परत की मोटाई 120 किलोमीटर तथा घनत्व 2.8 है।
  2. इसके बाद एक्लोजाइड से 120 किलोमीटर से 1 किलोमीटर गहराई तक है जिसका घनत्व 3.6 से 4 है।
  3. तत्पश्चात् सल्फाइड तथा ऑक्साइड की परत मिलती है जिसकी गहराई 1,700 किलोमीटर है और घनत्व 5 से 6 तक है।
  4. केन्द्र में लोहा तथा निकिल की परत है जिसका घनत्व बहुत अधिक है।

उपर्युक्त कटिबन्धों के समकक्ष ही जर्मनी के प्रसिद्ध वैज्ञानिक बेन्डर ग्राक्ट तथा होम्स पृथ्वी के अन्तराल के तत्वों को निम्नांकित भागों में विभक्त किया है-

कटिबन्ध मोटाई घनत्व
1.       बाहरी सिएल का पपड़ा या सिलिकन प्रदेश 15 से 50 किलोमीटर 2.75 से 2.9
2.       भीतरी सिएल-पृष्ठ या आन्तरिक सिलिकन प्रदेश 50 से 1140 किलोमीटर 3.1 से 4.75
3.       मिश्रित मण्डल 1140 से 2900 किलोमीटर 4.76 से 5.0
4.       धात्विक अन्तरतम भाग 2,900 किलोमीटर से भीतरी केन्द्र तक 11.0

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