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भारत में नगरीकरण (Urbanization in India)

भारत में नगरीकरण

भारत में नगरीकरण

नगरीकरण का अर्थ एवं संकल्पना

नगरीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जो सतत जारी रहती है या यों कहें कि यह एक चक्रीय प्रक्रिया है जो कभी नहीं रूकती। मानव के विकासकाल से लेकर आज तक जो भी सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था चली आ रही है उसमें दो रूप स्पष्ट झलकते हैं-

(1) ग्रामीण व्यवस्था (2) नगरीय व्यवस्था

इन व्यवस्थाओं द्वारा मानव समाज दो वर्ग में बँटा हुआ है। एक वर्ग के लोग ग्रामीण कहलाते हैं तो दूसरे-शहरी वैसे यह वर्ग कार्मिक आधार पर बन गये और आगे चलकर ये ही कार्य विस्तृत से अति विस्तृत रूप धारण करते गये जिनके आधार पर इनमें दूरी इतनी बढ़ गयी कि एक-दूसरे को मिलाया जाना असंभव हो गया। यद्यपि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। मानवीय आर्थिक क्रियाओं को निम्न वर्गों में रखा जाता है-

(i) प्राथमिक क्रियाएँ, (ii) द्वितीयक क्रियाएँ, (iii) तृतीयक कियाएँ

एक प्रकार से यह क्रियायें मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ मानव की बढ़ती हुई आवश्यकताओं के अनुरूप ही विकसित हुई हैं। इन क्रियाओं में प्रारंभिक या प्राथमिक क्रियाएँ ऐसी होती हैं जिनमें मानव अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति जैसे- रोटी, कपड़ा और मकान में लगा रहा। कहीं प्रकृति ने उन्हें अधिक संसाधन व सुविधाएँ प्रदान की तो कहीं कम। इस अंतर के कारण मानव समुदाय धीरे-धीरे दो वर्गों में बँटना शुरू हो गया।

एक वर्ग वह था जो बातावरण की दया से अधिक संपन्न हो गया और दूसरा वह जो प्रकृति की दया न होने से पीछे रह गया और इस प्रकार मानव समुदायों में एक विभाजन रेखा बन गयी। मानव जहाँ अपनी आजीविका के साधन जुटाने में ही लगा रहा उसका व्यवसाय सीमित रहा तथा जहाँ मानव जीविका के साधनों से जिसका परिणाम आगे चलकर, तकनीकी विका, वैज्ञानिक ज्ञान, सामाजिक-सांकृतिक विकास तथा कला, साहित्य में विकास आदि जैसी क्रियाओं में निपुण हो गया। इसलिए धीरे-धीरे इन समुदायों के वह व्यवसाय छूटते गये जो प्राथमिक थे क्योंकि अधिक विकास के बल पर वे सभी साधन (खाने-पीने के) उन लोगों से प्राप्त कर लेते जिो इस प्रकार के व्यवसाय में लगे हुए थे। इस प्रकार धरातल पर दो भिन्न समाजों की स्थापना हो गयी।

इसी प्रकार यदि गाँव में अधिक जनसंख्या है और एक कस्बे में कम तब भी गाँव कस्बा व कस्बा गाँव नहीं कहा जा सकता। उत्तर प्रदेश के कई गाँवों की जनसंख्या 10,000 से भी अधिक है जबकि अन्य प्रदेशों के कस्बों की जनसंख्या 5,000 ही है। इस प्रकार स्पष्ट है कि नगर व गाँव का विभाजन, कार्य, श्रम-विभाजन, विशेषीकरण तथा सामाजिक विषमता के आधार पर स्वतः हो जाता है। नगरीकरण की प्रक्रिया में जहाँ हम गाँव व नगर (Town) में अंतर स्पष्ट कर लेते हैं और इनमें विभाजन की सीमा-रेखा भी खींच लेते हैं, तो प्रश्न उठता है कि क्या ये सभी यथावत् बने रहते हैं? क्योंकि विभिन्न क्षेत्रों में जो भी गाँव थे वह कस्बे बन गये, जो कस्बे थे वह शहर तथा जो शहर थे वह आज महानगर बन गये हैं।

नगरीकरण की सीमा

प्रारंभ में नगरीकरण, किसी देश में उसके शहरों की जनसंख्या और देश की जनसंख्या के मध्य के अनुपात को माना जाता था। इसे कहा जाता है। लेकिन यह भ्रांतिमूलक तथ्य है क्योंकि कुछ शहरों में कम जनसंख्या होने पर भी शहरीकरण की सघनता अधिक देखने को मिलती है। इसलिए नगरीयकरण की तीव्रता को अधिक उपयुक्त आधार मानकर इसकी तीव्रता का आंकलन किया जाने लगा। इस आधार पर इसकी परिभाषा इस प्रकार से की जाने लगी। किसी शहरी, इकाई का देश की जनसंख्या में प्रतिशत जो शहरों में रहती है।’ नगरीकरण का आधार प्रस्तुत करती है। इससे उस शहर के आकार का पता चलता है जिसे सीमाबद्ध किया जा सकता है। किसी शहर की जनसंख्या यदि 5,00,000 है और कुल देश की जनसंख्या 10,00,000 है तो शहर की आबादी 20 प्रतिशत हुई और यदि यह 100,00,000 हो गयी तो शहर की केवल 0.5 प्रतिशत ही होगी। यह शहरीकरण की सीमा कहलायेगी।

इस प्रकार शहरीकरण की सीमाओं को आँकने के निश्चित आधार महत्त्वपूर्ण होते हैं जिनमें भी समय-समय पर शहरीकरण की गति के साथ परिवर्तन होता रहता है। जब कोई भी अधिवास शहरीकरण के उच्चस्तर पर पहुँचता है तो उसमें अनेक समस्याएँ जैसे-भीड़, यातायात के समयापरीत साधन नयी सरकारी व्यवस्था आदि पैदा हो जाती है। इस प्रकार शहरों मेंnरहनेवाली जनसंख्या का देश की जनसंख्या में प्रतिशत शहरीकरण का एक आधार हो सकता है, समस्याओं का समाधान नहीं।

इसके अलावा अन्य तथ्य भी जिन्हें सम्मिलित किया जाना चाहिए वे हैं-

  • शहरी जनसंख्या में कुल संख्या।
  • शहरी इकाइयों की कुल संख्या
  • एक निश्चित आकार के शहरों में रहने वाले लोगों की संख्या।
  • एक समूह (आकार) में शहरों को संख्या।

नगरीकरण को प्रभावित करने वाले कारक

नगरीकरण उस प्रक्रिया का नाम है जिसके अंतर्गत नगरीय बस्तियाँ बढ़ती जाती हैं। शहरी जनसंख्या का विस्तार होता चला जाता है और यह क्रम नगरों से शहर तथा शहरों से महानगर तक चलता रहता है।

इस प्रकार के क्रम के कुछ निश्चित कारण होते हैं उनमें कुछ भौतिक होते हैं-

  1. भौतिक कारक-

    भौतिक कारकों में निम्न कारक महत्त्वपूर्ण होते हैं-

  2. उच्चावच-

    मानव निवास, उद्योगों, कारखानों, यातायात व इमारतों आदि के लिए मैदान उपयुक्त स्थान होते हैं इसलिए ऐसे क्षेत्रों में चारों ओर की जनसंख्या धीरे-धीरे उन क्षेत्रों की ओर आकर बसने लगती है जो सुगम हों। दुर्गम स्थान कम जनसंख्या के आवास क्षेत्र होते हैं जैसे-पर्वत, पठार आदि। शहरों के विकास की यह प्रथम अवस्था होती है जहाँ यातायात, फैक्ट्रकी, कारखाने आदि लगाये जा सकें तथा अधिक आवास के केंद्र बन जायँ।

  3. जलवायु-

    भूमि की सुगमता के साथ-साथ जलवायु का अच्छा होना दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य है जहाँ अधिक जनसंख्या आकार निवास करती है। नम या आर्द्र जलवायु जहाँ सम तापमान व वर्षा हो वहाँ लोग अधिक बसते हैं। उद्योगों के विकास में भी जलवायु तत्त्व का अधिक महत्त्व होता है। इसलिए औद्योगिक विकास के साथ-साथ नगरीकरण तीव्रता से होता है फिर नगरीकरण की तीव्रता (Degree of Urbanization) इन तत्त्वों के साथ-साथ भिन्न-भिन्न पायी जाती है। यह कहा जा सकता है कि नगरों की उत्पत्ति व विकास के लिए सम जलवायु अनुकूल होती है। 96 प्रतिशत नगर उपोष्ण और समशीतोष्ण जलवायु में पाये जाते हैं।

  4. आर्थिक कारक-

    नगरों का निर्माण व विकास, व्यापार, परिवहन, प्रशासन व अनेक ऐसी गतिविधियों में होता है जिनमें आर्थिक पहलू महत्त्वपूर्ण होता है, यथा-

  • उद्योग
  • शक्ति के साधन
  • परिवहन व दूरसंचार के साधन
  • पूँजी
  • कुशल कार्मिक व तकनीकी विकास।

शक्ति के साधन- शक्ति के साधन इनके विकास का दूसरा महत्त्वपूर्ण पहलू है जहाँ विभिन्न स्रोतों से इसको प्राप्त कर कारखानों, मिलों, ऑफिसों व घरेलू कार्यों के लिए इसे काम में लाया जाता है। यह शक्ति कोयला, पेट्रोलियम या जलविद्युत आदि से प्राप्त की जाती है।

इस प्रकार नगरों के विकास में शक्ति के साधन का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है बिना विद्युत के कोई भी मशीन नहीं चल सकती। इसलिए जहाँ यह साधन उपलब्ध है वहाँ नगर विकास स्वतः होता चला जाता है।

5. सामाजिक कारक-

नगरों के विकास में सामाजिक व सांस्कृतिक कारकों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। वास्तव में यह मानवीय कारक है। मानव की जैसी प्रवृत्ति है वह व समाज का विकास कई तरह से करता है। स्वयं के विकास के साथ-साथ ऐसी सामाजिक व्यवस्था बनाता है जिसमें उसकी कला, संस्कृति जीवित रह सके और मानवीय उद्गारों की अभिव्यक्ति विभिन्न रूप से उसकी कला, संस्कृति जीवित रह सके।

ग्रीक या यूनान में शहरीकरण का विकास इसी निमित्त हुआ। भारत में मोहनजोदड़ों, हड़प्पा धीरे-धीरे नगर ही बन गये थे बाद में नालंदा, तक्षशिला नगर बने। इस प्रकार यह एक मानवीय गुण है कि नगरों का विकास जिसमें सभी क्रियाएँ हों, स्वतः होता है। मानव पहले सामूहिक रूप से रहता है, अपने समूह का विस्तार करता है, आपस में व्यापार-वाणिज्य लेन-देन, अनेक क्रियाएँ शुरू करता है। आस-पास के क्षेत्रों से माल लाता भी है, बेचता भी है, इसके लिए सड़कों, रेलों आदि जैसे परिवहनों का विकास करता है।

6. राजनैतिक कारक –

इन तथ्यों के साथ-साथ राजनैतिक जीवन की शुरूआत होती है। सभी व्यवस्थाओं को सुचारू रूप से चलाने के लिए, प्रशासन देने के लिए तथा एक सकरकार जो समाज को भी चलाये और सुरक्षा भी प्रदान करे।

यह सभी मानवीय आवश्यकताओं में से हे जो मानव स्वयं चाहता है अन्यथा कहीं भी कुछ भी ठीक से चल ही नहीं सकता है। इसलिए नगरों के विकास में राजनीति प्रमुख रही है जहाँ अनेकों उथल-पुथल व लड़ाइयों के साथ न गरों का पतन भी हुआ और नये नगर बसाये भी गये। इस प्रकार नगरों के विकास व इनके पतन की अपनी कहानी है, एक अलग इतिहास है।

अतः इनके लिए महान, सड़कें, परिवहन, पानी, बिजली, ऑफिस, गाड़ियाँ आदि सुलभ कराते हैं। एक स्थान कम पड़ता है तो पास का क्षेत्र हथिया कर उसमें ये सारी व्यवस्थाएँ शुरू हो जाती हैं और इस प्रकार उपनगरों (Suburbans) का विकास हो जाता है।

भारत में नगरीकरण की प्रवृत्तियाँ

वर्तमान समय की महत्त्वपूर्ण घटनाओं में से एक घटना नगरीकरण की भी है। नगरों में जनसंख्या का तीव्रगति से बढ़ना तथा नगरों की संख्या में आपार वृद्धि वर्तमान युग का महत्त्वपूर्ण तथ्य है। ऐसा कहा जाता है कि सबसे पहले नगर इसी पृथ्वी पर 5000 से 6000 वर्ष पूर्व देखने में आये। अतः नगर पृथ्वी पर नये नहीं हैं। लेकिन मानव इतिहास में नगरीकरण की प्रक्रिया की गति बहुत धीमी रही है। प्रश्न यह है कि नगरीकरण क्या है इसका शाब्दिक अर्थ है नगरीय हो जाना अथवा बना देना। नगरीकरण जनसंख्या के नगरीय होनेसे संबंध रखता है। यह नगरीय जनसंख्या जिन भूभागों पर रहने लगती है, नगरीय भूभाग कहलाता है। इस प्रकार जनसंख्या का नगरीय होना विभिन्न भूभागों के नगरीय होने से जुड़ा हुआ है। अतः नगरीकरण में जनसंख्या का होना सबसे महत्त्वपूर्ण है वास्तव में नगरीय जनसंख्या व उसके अनुपात में वृद्धि होना नंगरीकरण कहलाता है।

भारत की जनसंख्या में भारी वृद्धि होने के साथ-साथ नगरीय जनसंख्या में भी तेजी से बढ़ोत्तरी हो रही है। 1961-71 की शताब्दी में यह दर 24.66 प्रतिशत अंकित की गई है। 1971-81 ई0 की शताब्दी में यह दर 24.60 प्रतिशत रही है। इन पिछले अस्सी वर्षों में नगरीय जनसंख्या में वृद्धि और भी तीव्र गति से हुआ है। 1901 ई0 में कुल नगरीय जनसंख्या 25.7 मिलियन थी जो 2001 में बढ़कर 285.35 मिलियन तक पहुँच गई। इस प्रकार पिछले 100 वर्षों में नगरीय जनसंख्या ग्यारह गुनी से भी अधिक हो गयी। नगरीय जनसंख्या का कुल जनसंख्या में प्रतिशत उतनी तेजी से नहीं रहा है। जितनी की उनकी कुल जनसंख्या में वृद्धि हुई है। 1901 ई0 में नगरीय जनसंख्या का कुल जनसंख्या में प्रतिशत 10.91 था जो 2001 में बढ़कर 27.78 हो गया। 1971-81 में नगरीय जनसंख्या में 49.22 मिलियन की वृद्धि हुई है। जबकि 1981-91 के दशक में नगरीय जनसंख्या में 61 मिलियन की वृद्धि हुई। 1991-2001 में यह वृद्धि 68 मिलियन रही। 2001 में नगरों की संख्या 5161 तक पहुँच गई।

1991 ई0 की जनगणना के अनुसार देश की नगरीय जनसंख्या 217,177,625 है। यह 3768 नगरीय समूहों कस्बों में वितरित मिलती है। नगरीय जनसंख्या की वृद्धि दर 1971-81 में 46.14 प्रतिशत रही जबकि 1981-91 ई0 में यह वृद्धि दर 36.19 प्रतिशत एवं 1991-2001 में 31.40 प्रतिशत रह गई। इसके 1991-2001 में कुल जनसंख्या में वृद्धि दर 21.34 प्रतिशत अंक की गई अतः स्पष्ट है कि नगरीय जनसंख्या में वृद्धि की गति कुल जनसंख्या से अधिक है।

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