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भारत के विदेशी व्यापार के उदीयमान प्रतिरूप (Emerging Patterns of India’s Foreign Trade)

भारत के विदेशी व्यापार के उदीयमान प्रतिरूप

भारत के विदेशी व्यापार के उदीयमान प्रतिरूप

स्वतंत्रता के बाद व्यापार का औपनिवेशिक प्रतिरूप एक विकासशील अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं के अनुरूप परिवर्तित हुआ। औद्योगीकरण को समुन्नत करने के लिये मशीनरी, उपकरणों तथा कुछ कच्चे मालों का आयात आवश्यक हो गया। देश की बढ़ती हुई जनसंख्या के पोषण के लिये खाद्यान्न भी आयात करने पड़े।

व्यापार में वास्तविक गति औद्योगिक आधार को मजबूत करने के लिये पंचवर्षीय योजनाओं के प्रारंभ होने के बाद आयी। पूँजीगत सामान, मशीनों, उपकरणों तथा खाद्यान्नों के भारी आयात के कारण व्यापार का संतुलन प्रतिकूल हो गया। यद्यपि 1970 के दशक से हरितक्रांति के द्वारा खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने से खाद्यान्नों का आयात बंद हो गया किंतु विकासशील तथा विविधीकृत अर्थव्यवस्था के लिये आवश्यक पेट्रोलियम, इसके पदार्थों तथा अन्य मदों के आयात के कारण व्यापार में घाटा बढ़ता गया। खाड़ी युद्ध के बाद पेट्रोल के मूल्यों में भारी वृद्धि के कारण स्थिति बदतर हो गयी। देश में विदेशी मुद्रा का संकट उत्पन्न हो गया तथा उसे विदेशी मुद्रा चुकाने के लिये स्विस बैंकों में सोना गिरवी रखना पड़ा। तबसे व्यापार का घाटा निरंतर बढ़ते हुए 2003-4 में 62.394 करोड़ रूपये के रिकार्ड स्तर पर पहुँच गया।

भारत के विदेशी व्यापार की प्रमुख विशेषताएँ (Salient Features of India’s Foreign Trade)

  1. स्वतंत्रता के पूर्व भारत का व्यापार संतुलन उसके पक्ष में था, जो देश के आर्थिक विकास के लिये आयातों की वृद्धि के कारण प्रतिकूल होता गया। व्यापार का घाटा 1950-51 में 49 करोड़ रूपये से बढ़कर 2003-04 में 62,394 करोड़ रूपये हो गया।
  2. आयातों की संरचना विगत पाँच दशकों में बहुत बदल गयी है। बढ़ते हुए औद्योगीकरण के कारण प्राकृतिक रबड़, कच्ची कपास, कच्चे ऊन, कच्चे जूद, रसायन जैसे कच्चे मालों तथा इलेक्ट्रानिक वस्तुओं, मशीनरी, परिवहन उपकरण तथा सर्वोपरि पेट्रोलियम एवं इसके उत्पादों की माँग बहुत बढ़ गयी है। खाद्यान्नों, कागज, अखबारी कागज, लोहा एवं इस्पात तथा पूँजीगत वस्तुओं का आयात घट गया है।
  3. निर्यातों का संघटन भी अत्यधिकक परिवर्तित हो गया है। कृषीय एवं संबद्ध पदार्थों, अयस्क एवं खनिजों में गिरावट दर्ज हुई है, जबकि विनिर्मित वस्तुओं (धागों, सूती वस्त्रों, सिलेसिलाये परिधान, रत्न एवं जवाहरात आदि के निर्यातों में भारी वृद्धि हुई है। यह भारतीय अर्थव्यवस्था के विविधीकरण का सूचक है।
  4. स्वतंत्रता के बाद नये व्यापारिक साझीदार बन गये हैं। ब्रिटेन तथा जापान का अंशदान घटा है, जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका, एशिया के अल्पविकसित देशों का अंशदान बढ़ा है। रूस का अंशदान उसके विघटन के बाद घट गया है। संयुक्त राज्य अमेरिका 2003-04 में वृहत्तम व्यापारिक साझीदार था, इसका अंशदान कुल भारतीय व्यापार में6 प्रतिशत था। इसके पश्चात् संयुक्त अरब अमीरात (5.1 प्रतिशत), चीन (5.0 प्रतिशत), ब्रिटेन (4.4प्रतिशत) बेल्जियम (4.1 प्रतिशत), जर्मनी (309 प्रतिशत) हांगकांग (3.4 प्रतिशत), जापान (3.1 प्रतिशत), सिंगापुर (3प्रतिशत), स्विट्ज़रलैंड (2.7 प्रतिशत), तथा मलेशिया (2.1 प्रतिशत) का स्थान रहा। ये देश मिलकर भारत के व्यापार में 48.2 योगदान देते हैं। इससे देश के व्यापार के विविधीकरण में सहायता मिली है।

विदेशी व्यापार का परिमाण

अर्थव्यवस्था की प्रगति तथा विविधीकरण के कारण भारत के विदेशी व्यापार का परिमाण स्वतंत्रता के बाद बहुत बढ़ गया। भारत के व्यापारिक संबंध विश्व के सभी प्रदेशों के साथ है। 7,500 से अधिक वस्तुएँ लगभग 190 देशों को निर्यात की जाती हैं तथा 6,000 वस्तुएँ 140 देशों से आयात होती हैं। निर्यातों से हस्तशिल्प, हथकरघा, वस्त्र, रत्न, आभूषण सहित अनेक वस्तुएँ सम्मिलित हैं, विगत वर्षों में परामर्श सहित परियोजना निर्यात सिविल निर्माण तथा टर्न की अनुबंध बहुत बढ़ गये हैं। विकसित देशों को सॉफ्टवेयर निर्यात एक अभिनव विकास है। आयातों में भी भारी वृद्धि हुई है जिनमें पेट्रोलियम एवं इसके उत्पाद, उर्वरक, निर्यात उत्पादन के लिये मूल्यवान तथा अर्द्ध मूल्यवान रत्न, पूँजीगत सामान, औद्योगिक उत्पादन के लिये कच्चे माल एवं प्राविधिकी उन्नयन सम्मिलित हैं। विश्वव्यापी मँहगाई तथा भारी मात्रा में आयातों ने भारत के विदेशी व्यापार पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है, जिससे व्यापार का संतुलन विपक्ष में हो गया है।

भारत में नियोजन काल के आरंभ से ही विदेशी व्यापार में निरंतर वृद्धि हो रही है। व्यापार का मूल्य 1950-51 में 1,251 करोड़ रूपये से बढ़कर 2003-04 में 6,45,558 करोड़ रूपये हो गया है।

वस्तुतः विगत 53 वर्षों में अर्थात् 1950-51 से 2003-04 की अवधि में भारत के विदेशी व्यापार की मात्रा में 515 गुना वृद्धि हुई है। आयातों की वृद्धि 534 गुनी हुई है, जबकि निर्यातों में 484 गुना वृद्धि दर्ज हुई। फिर भी, भारत का विश्व के व्यापार में 1 प्रतिशत से भी कम तथा सिंगापुर, डेनमार्क, बेल्जियम एवं स्विट्जरलैंड जैसे छोटे देशों की तुलना में बहुत अल्प अंशदान है।

निर्यातों की संरचना

भारत के निर्यातों को मोटे तौर पर पाँच वर्गों में रखा जा सकता है- (1) कृषीय एवं संबद्ध पदार्थ, (2) अयस्क एवं खनिज, (3) विनिर्मित सामान (4) खनिज ईंधन एवं स्नेहक तथा (5) कृषीय एवं सम्बद्ध पदार्थों के निर्यातों में निरंतर ह्रास हुआ है। इस वर्ग में कहवा, चाय, तेल, तंबाकू, काजू, मसाले, चीनी, शीरा, कपास, चावल, मछली, माँस, फल, सब्जियाँ, दालें तथा विविध प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ सम्मिलित हैं। अयस्कों तथा खनिजों के निर्यात में भी ऐसा ही ह्रास (197071) के अपवाद सहित) दृष्टिगोचर होता है।

इसके विपरीत, विनिर्मित वस्तुओं के निर्यात में 1960 61 में 45.3 प्रतिशत की अपेक्षा 2003-04 में 76.0 प्रतिशत के रूप में निरंतर वृद्धि दृष्टिगोचर होती है। खनिज ईंधन के निर्यात भी 1960-61 में 1 प्रतिशत से बढ़कर 2003-04 में 5.6 प्रतिशत हो गये।

निर्यातों की संरचना में उल्लेखनीय परिवर्तन हुए हैं जिनहें निम्नवत् देखा जा सकता है-

  1. 1970 के दशक तक अधिकतम विदेशी मुद्रा जूट एवं जूट के पदार्थों के निर्यात (10.3 प्रतिशत) से प्राप्त हुई थी, अब यह निर्यात से होने वाली आय का मात्र38 प्रतिशत योगदान देते हैं।
  2. चाय एवं चीनी के निर्यात में विदेशी स्पर्द्धा तथा घरेलू खपत बढ़ने के कारण भारी गिरावट दर्ज हुई। इनका अंशदान 1960-61 में क्रमशः31 प्रतिशत एवं 4.67 प्रतिशत से घटकर 2003-04 में मात्र 0.56 प्रतिशत एवं 0.42 रह गया।
  3. चावल एवं समुद्री उत्पाद (मछली एवं अन्य) के निर्यातों की मात्रा में तो पर्याप्त वृद्धि हुई किंतु कुल निर्यातों में उनके अंशदान का प्रतिशत कुछ घटा है।

आयातों की संरचना

भारतीय आयातों को तीन प्रमुख वर्गों में रखा जा सकता है-

  1. खाद्य एवं पशु पदार्थ,
  2. कच्चे माल एवं माध्यमिक उत्पाद तथा
  3. पूँजीगत सामान।

कृषि में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के कारण उपभोक्ता वस्तुओं, खाद्यान्नों, कच्ची कपास आदि के आय में गिरावट की उत्पनति दर्ज हुई है। औद्योगिक प्रगति के कारण विनिर्मित वस्तुओं के आयात में भी पर्याप्त कमी आयी है। अब पेट्रोलियम, तेल एवं स्नेहक, रासायनिक उर्वरक, खाद्य तेल, कागज, लोहा एवं इस्पात, अलौह धातुएँ, गैर-विद्युतीय मशीनरी, रसायन एवं औषधि, मोती एवं मूल्यवान रत्न देश के आयातों के प्रमुख मद हैं।

आयातों की संरचना में भी भारी परिवर्तन हुए हैं। पूँजीगत सामान तथ पेट्रोलियाम का अंशदान बढ़ गया है जबकि उपभोक्ता वस्तुओं का अंशदान घट गया है। खाद्यान्नों का आयात नगण्य सा रह गया है, किंतु खाद्य तेलों का अंश दान (3.25 प्रतिशत) बढ़ गया है। रसायन एवं पदार्थ भी 1960-61 में 3.5 प्रतिशत से बढ़कर 2003-04 में 5.97 प्रतिशत हो गये हैं। मशीनों तथा परिवहन उपकरणों का मूल्य अब कुल आयात मूल्यों में लगभग 11.91 प्रतिशत हो गया है। लोहा एवं इस्पात का अंशदान 1960-61 में 11 प्रतिशत से घटकर 2003-04 में 1.93 प्रतिशत मात्र रह गया है।

पेट्रोलियम एवं उत्पादों के आयात मूल्यों में 1960-61 में 6.1 प्रतिशत की अपेक्षा 2003-04 में 26.3 प्रतिशत (1980-81 में सर्वोच्च 41.9 प्रतिशत) की भारी वृद्धि दर्ज हुई। यह एकमात्र पदार्थ है जिसके आयात के कारण देश के व्यापार का संतुलन बिगड़ रहा है। मोती तथा मूल्यवान जवाहरात अन्य प्रमुख मद हैं जो देशी आभूषण उद्योग के लिये आयात किये जाते हैं। इनका आयात मूल्य 1970-71 में 1.5 प्रतिशत से बढ़कर 2003-04 में -9.1 प्रतिशत हो गया। पूँजीगत्,वस्तुओं के आयात का मूल्य 1960-81 में 31.7 प्रतिशत से घटकर 2003-04 में 13.3 प्रतिशत रह गया।

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