स्वीकृति क्या है?

स्वीकृति क्या है?

स्वीकृति क्या है?

स्वीकृति प्रस्ताव को संविदा में परिवर्तित कर देती है। एक व्यक्ति ने दूसरे को प्रस्ताव किया और दूसरे ने उस प्रस्ताव को स्वीकार किया अर्थात अपनी सहमति प्रकट की। ऐसी दशा संविदा का निर्माण करती है इसीलिए प्रसिद्ध विधिवेत्ता ऐन्सन का यह कथन उचित प्रतीत होता है कि “स्वीकृति का प्रस्ताव के साथ वही सम्बन्ध है जो जलती हुई माचिस की तीली का बारूद की गाड़ी के साथ” अर्थात् जिस प्रकार बारूद का माचिस की जलती हुई तीली से सम्पर्क होने पर बारूद का रूप बदल जाता है उसी प्रकार प्रस्ताव का स्वीकृति से सम्पर्क होने पर प्रस्ताव का रूप बदलकर संविदा में परिवर्तित हो जाता है।

‘स्वीकृति’ शब्द का अर्थ होता है किसी बात को स्वीकार करना या उससे सहमत होना, जैसा कि अधिनियम की धारा 2(ख) वर्णन करती हैं-“जबकि वह व्यक्ति, जिससे प्रस्ताव किया जाता है, उसके प्रति अपनी अनुमति प्रदान करता है तब यह कहा जाता है कि प्रस्ताव स्वीकृत हो गया है।”

इस प्रकार एक प्रस्ताव तभी स्वीकृत होगा जब-

  1. एक व्यक्ति ने दूसरे व्यक्ति को प्रस्ताव किया हो : और
  2. उस दूसरे व्यक्ति ने प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया हो या उसके प्रति अपनी सहमति दी हो ।

स्वीकृति कौन कर सकता है ?

जिस व्यक्ति के सम्मुख प्रस्ताव रखा जाता है केवल वही व्यक्ति उसे स्वीकार कर सकता है, अन्य नहीं।

उदाहरण के लिए- यदि ‘क’ के सम्मुख ‘ख’ ने प्रस्ताव रखा तो ‘क’ ही उसे स्वीकार कर सकता है और कोई दूसरा नहीं।

शर्तें

कोई स्वीकृति तभी विधिमान्य होती है जब निम्नलिखित शर्तें पूरी होती हैं-

  1. स्वीकृति सूचित की जानी आवश्यक है

    कोई स्वीकृति तब तक विधिमान्य नहीं होती जब तक उसे दूसरे पक्षकार को सूचित नहीं किया जाता, क्योंकि कोई बात मन में स्वीकार कर लेने से स्वीकृति नहीं हो जाती। एक अंग्रेजी वाद फेल्ट हाउस प्रमुख उदाहरण है-

वादी ने अपने भतीजे को उसका घोड़ा 30 पौंड 15 शिलिंग में खरीदने के लिए एक पत्र लिखा। पत्र में यह भी लिखा कि यदि कोई जवाब नहीं आया तो मैं मान लूंगा कि उपर्युक्त कीमत पर घोड़ा मेरा हो गया। भतीजे ने कोई जवाब नहीं दिया। एजेन्ट ने गलती से घोड़ा किसी और को बेच दिया। वादी संविदा भंग के लिए वाद लाया। न्यायालय ने वाद खारिज करते हुए यह निर्णीत किया कि संविदा का निर्माण ही नहीं हुआ था क्योंकि भतीजे ने अपनी स्वीकृति संसूचित नहीं की थी। इसके अतिरिक्त न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि प्रस्ताव कर्ता यह शर्त नहीं लगा सकता कि यदि कोई जवाब नहीं दिया गया तो यह मान लिया जायेगा कि प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया है।

  1. स्वीकृति की सूचना उस व्यक्ति से मिली हो जिसे स्वीकृति करने का अधिकार था –

    स्वीकृति की सूचना उस व्यक्ति द्वारा दी जानी चाहिए जिसे स्वीकृति का अधिकार दिया गया था क्योंकि किसी अन्य व्यक्ति द्वारा दी गयी स्वीकृति विधिमान्य नहीं होती। पावेल ली का वाद इसका प्रमुख उदाहरण है-

वादी, जो एक स्कूल के हेडमास्टर पद का उम्मीदवार था सेलेक्शन बोर्ड ने उसे इस पद के लिए चुन लिया परन्तु बोर्ड ने वादी को सूचित नहीं किया। बोर्ड के एक मेम्बर ने वादी को यह सूचना दी कि बोर्ड ने अपना प्रस्ताव रद्द कर दिया। वादी ने संविदा भंग के लिए वाद किया। निर्णीत हुआ कि वाद खारिज होने योग्य था क्योंकि स्वीकृति की सूचना उस व्यक्ति द्वारा नहीं दी गयी थी जिसे स्वीकृति करने का अधिकार था इसलिए संविदा का निर्माण नहीं हुआ था।

  1. स्वीकृति स्पष्ट अथवा गर्भित हो सकती है-

    स्वीकृति के लिए आवश्यक नहीं है कि यह स्पष्ट हो, बल्कि गर्भित स्वीकृति भी कानून द्वारा मान्य है। मुख से कहे गये अथवा लिखे गये शब्दों द्वारा दी गयी स्वीकृति स्पष्ट होती हैं, जबकि स्वीकृति के आचरण द्वारा अथवा व्यवहार द्वारा जानी गयी स्वीकृति गर्भित है। इस सम्बन्ध में धारा 8 का कहना है कि केवल प्रस्ताव की शर्तों के पालन मात्र से गर्भित स्वीकृति का होना माना जाता है। एक व्यक्ति सर्कस की किसी अमुक क्लास का टिकट खरीद कर इस बात की गर्भित स्वीकृति देता है कि वह उन रुपयों में सर्कस का शो देखने के लिए सहमत है।

  2. प्रस्ताव की संसूचना पूरी होने से पहले दी गयी स्वीकृति कोई स्वीकृति नहीं है –

    प्रस्ताव को जानकारी में लाये बिना यदि कोई व्यक्ति उसके लिए अपनी सहमति देता है तो यह सहमति किसी संविदा का निर्माण नहीं करती। (लालमन शुक्ल बनाम गौरीदत्त)

  3. प्रस्ताव को, उसके खण्डन होने से पहले, उसकी अवधि समाप्त होने से पहले प्रस्तावक की मृत्यु अथवा उसके दिमाग के खराब होने से पहले, स्वीकार किया जाना चाहिए। संक्षेप में यह कह सकते हैं कि प्रस्ताव के अन्त होने से पहले की गयी स्वीकृति ही मान्य है। प्रस्ताव के अन्त होने के बाद दी गयी स्वीकृति मान्य नहीं है।
  4. एक बार अस्वीकृत होने के बाद प्रस्ताव को तभी स्वीकार किया जा सकता है, जबकि वह स्वीकृति के लिए दूसरी बार प्रस्तुत किया जाय।

उदाहरण के लिए- ‘अ’, ‘ब’ को अपनी साइकिल 200 रुपये में बेचने का प्रस्ताव रखता है-‘ब’ कहता है कि वह केवल 150 रुपये में ही साइकिल खरीद सकता है। बाद में ‘ब’ 200 रुपये में साइकिल खरीदने को सहमत हो जाता है। ‘ब’ की यह बाद में दी गयी स्वीकृति मान्य नहीं होगी, क्योंकि प्रस्ताव को दोबारा प्रस्तुत किये जाने से पहले ही उसने उस पर अपनी स्वीकृति दी है।

  1. स्वीकृति न तो अपूर्ण और न ही किसी शर्त के साथ होनी चाहिए-

    एक वैध स्वीकृति के लिए यह भी आवश्यक हैं कि वह प्रस्ताव की शर्तों के अनुरूप होनी चाहिए। कोई भी आवश्यक बात जो प्रस्ताव में दी गयी हो स्वीकृति में नहीं छूटनी चाहिए, ताकि पुनः किसी बात को बल्कि वह शर्त रहित भी होनी चाहिए अर्थात् स्वीकृति के साथ कोई शर्त उसमें स्वीकारक की ओर से न जुड़ी हो । शर्त सहित स्वीकृति, स्वीकृति न होकर एक प्रति प्रस्ताव मानी जाती है।

  2. स्वीकृति उस ढंग से होनी आवश्यक है जो प्रस्तावक निश्चित कर देता है-

    जब प्रस्तावक प्रस्ताव करते समय सहमति देने का ढंग निश्चित कर देता है तो स्वीकारक़ की ओर से सहमति उसी ढंग से होनी चाहिए अन्य ढंग से नहीं।

उदाहरण के लिए – जब प्रस्तावक स्पष्ट करे कि स्वीकृति अमुक माध्यम से हों तो स्वीकृति उसी माध्यम में ही मान्य होगी, स्वीकृति देने के समय की निश्चितता भी हो सकती है जब कोई समय या ढंग निश्चित न हो तो स्वीकृति उचित ढंग व समय नमें की जानी चाहिए समय व ढंग मामले की युक्ति-युक्त दशाओं पर निर्भर होगी।

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