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विभिन्न कालों में भारत की विदेश नीति

भारत की विदेश नीति

भारत की वैदेशिक नीति में निरंतरता और परिवर्तन दोनों धारायें साथ-साथ चलती रहती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत ने उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद, रंगभेद के विरोध के साथ-साथ महाशक्तियों की गुटबाजी का विरोध करना शुरू किया। परंतु 1962 के चीन युद्ध के बाद भारत की विदेश नीति में बदलाव आना शुरू हो गया। भारत की विदेश नीति में प्राथमिकताएं कुछ बिंदुओं पर केंद्रित हो गयी। शनैः-शनैः नयी अर्थव्यवस्था की खोज, उत्तर-दक्षिण संवाद, दक्षिण-दक्षिण संवाद और परमाणु निरस्त्रीकरण जैसे विषय अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में अपना स्थान बनाने लगे। भारत की विदेश नीति पर इनका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही था। भारत के विदेश नीति के मौलिक तत्वों में कोई परिवर्तन नहीं आया है, मौलिक तत्व वहीं है जो पहले थे। अंतर केवल दर्शन एवं चिंतन के आधार पर आया है। पं० नेहरू के काल में प्रारंभिक दिनों में भारतीय विदेश नीति आदर्शवाद से ओत-प्रोत थी। परंतु अंतिम दिनों में पं० नेहरू ने आदर्शवाद के प्रति अपने मोह को गलत बताया तथा यथार्थवाद की ओर उन्मुख हुए थे। शास्त्री युग में यथार्थवाद को अधिक महत्व प्रदान करके तुष्टीकरण के दुर्बल चिन्हों को मिटाने की प्रक्रिया शुरू हुई। इसके बाद श्रीमती इंदिरा गांधी के शासनकाल में भारत की वैदेशिक नीति में आदर्शवाद ताथ यथार्थवाद का सुंदर समन्वय दिखाई देने लगा। वास्तव में श्रीमती गांधी ने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की जटिलताओं को परखा और भारतीय विदेश नीति के आदर्शवादी सिद्धांतों की रक्षा करते हुए, उसे पूर्व की तुलना में अधिक व्यावहारिक, सुदृढ़ एवं आत्मविश्वास पूर्ण बनाया। सर्वप्रथम बांग्लादेश के युद्ध में तथा इसके बाद पाकिस्तान के प्रति अपने रवैये का संकेत कर और साथ ही द्विध्रुवीय विश्व की दो महाशक्तियों के मध्य संतुलन कायम कर के श्रीमती गांधी ने भारतीय विदेश नीति का कुशल संचालन किया।

श्रीमती इंदिरा गांधी के बाद के सभी प्रधानमंत्री गुट निरपेक्षता की नीति पर चलते रहे। परंतु समीक्षक प्रधानमंत्री राजीव गांधी की विदेश नीति में अमेरिका के तरफ झुकाव को भी स्वीकार करते हैं। समीक्षकों का कहना है कि राजीव गांधी ने सोवियत संघ से अपने संबंधों को यथा बनाये रखते हुए अपनी विदेश नीति में अमेरिका को प्रमुखता देना शुरू कया। राजीव गांधी के समय से ही भारतीय विदेश नीति में परिवर्तन परिलक्षित होने लगा। राजीव गांधी के बाद प्रधानमंत्री बने विश्वनाथ प्रताप सिंह की कोई स्पष्ट विदेश नीति नहीं थी, यद्यपि उनका कार्यकाल मात्र || माह का ही था। चन्द्रशेखर मात्र 4 माह के लिये ही प्रधानमंत्री थे परन्तु खाड़ी युद्ध के समय अमेरिकी विमानों को भारत में तेल भरने की अनुमति देना उनके अमेरिका के प्रति अपने झुकाव को दर्शित करता है।

1991 में भारतीय विदेश नीति में सोवियत संघ के विघटन के बाद परिवर्तन दिखाई देने लगा। भारत समाजवाद से पूंजीवाद की ओर अग्रसर हुआ। जुलाई, 1991 में नयी आर्थिक नीतियां लागू हुई जो स्पष्टतः पूंजीवाद को बढ़ावा देती हैं। जून, 1991 में प्रधानमंत्री बने नरसिम्हाराव, राजीव गांधी द्वारा विरासत में दी गयी विदेशी नीति को आगे बढ़ाते रहे हैं। यद्यपि नरसिम्हा राव के समय में भारत द्वारा इजराइल को मान्यात प्रदान की गयी जो भारतीय विदेश नीति में परिवर्तन का परिचायक है। इसके बाद में परम्परा से हटकर कार्य वैदेशिक क्षेत्र में नरसिम्हा राव के समय में हुआ परंतु नरसिम्हा राव सदैव यह सिद्ध करना चाहते थे कि वे नेहरू द्वारा सृजित एवं पोषिक नीतियों पर चल रहे हैं तथ नेहरू ही आज भी हमारे प्रतिमान है। नरसिम्हा राव के बाद सत्ता में आये एच० डी० देवगौड़ा के नेतृत्व में गठित संयुक्त मोर्चा सरकार की अपनी कोई विदेश नीति नहीं थी। वह पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रयों की नीतियों को आगे बढ़ाते रहे। मार्च, 1997 में देवगौड़ा के बाद इंद्र कुमार गुजराल प्रधानमंत्री बने और उनकी अपनी एक नीति थी जिसे गुजराल सिद्धांत में भी उन्हीं तत्वों को आधार के रूप में स्वीकार किया गया था जो पूर्ववर्ती सरकारों की विदेश नीतियों में था। गुजराल सरकार के बाद पदारूढ़ वाजपेयी सरकार के भी विदेश नीति के मौलिक तत्व वहीं है जो नेहरू और इंदिरा सरकारों के विदेश नीति के थे। परंतु विगत तीन वर्षों में भारत-अमेरिका संबंधों में सुधार से स्पष्ट है कि भारतीय विदेश नीति में बदलाव आ रहा है।

पं० जवाहर लाल नेहरू आज भी हमारे एक प्रतिमान बने हुए हैं। फलतः सभी प्रधानमंत्रियों की विदेश नीतियों की तुलना की जाती है। नेहरू युग की घटनाओं और नीतियों के ध्यानपूर्वक और गहनता के चिंतने करने से स्पष्ट होता है कि आज देश में जो कुछ हो रहा है, उसकी जड़े, उसके आदर्श और उसके स्त्रोत नेहरू युग में छिपे हुए है। यहां पर विभिन्न प्रधानमंत्रियों के काल की विदेश नीतियों का तुलनात्मक अध्ययन किया जा रहा है। परंतु मोरारजी देसाई, चरण सिंह, वी० पी० सिंह, चन्द्रशेखर, एच० डी० देवगौड़ा फिल्म में केवल मेहमान कलाकार अथवा मध्यांतर के तरह आते हैं, इसलिये यहां उनकी चर्चा नहीं की जा रही है। भारतीय विदेश नीति की विवेचना निम्नलिखित शीर्षकों के अतंर्गत की जा रही है-

  1. जवाहर लाल नेहरू के कार्यकाल में विदेश नीति
  2. लाल बहादुर शास्त्री के कार्यकाल में विदेश नीति
  3. इंदिरा गांधी के कार्यकाल में विदेश नीति
  4. राजीव गांधी के कार्यकाल में विदेश नीति
  5. नरसिम्हा राव के कार्यकाल में विदेश नीति
  6. इंद्र कुमार गुजराल के कार्यकाल में विदेश नीति
  7. अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में विदेश नीति

नेहरू काल की विदेश नीति

भारतीय विदेश नीति पर पं० जवाहर लाल नेहरू की प्रतिभा, व्यक्तित्व एवं विचारधारा का व्यापक प्रभाव पड़ा है। पं० नेहरू साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद और फांसीवाद के प्रबल विरोधी तथा विवादों के शांतिपूर्ण समाधन के पक्षधर रहे हैं। पं० नेहरू मैत्री, सहयोग और सह-अस्तित्व के पोषक अवश्य थे परंतु साथ में अन्याय पूर्ण आक्रमण का प्रतिवाद करने के लिए शक्ति के प्रयोग को भी व्यापक महत्त्व प्रदान करते थे। शीत युद्ध एवं गुटों की विश्व राजनीति में भारत के लिये ही नहीं बल्कि विश्व के सभी स्वाधीन राष्ट्रों के लिये वे गुट निरपेक्षता की नीति को उचित ही नहीं बल्कि सर्वोत्तम नीति मानते थे। पं० नेहरू ने अपने इन्हीं विचारों के अनुरूप भारतीय विदेश नीति का सृजन किया। 1950 में नेहरू जी ने अपना मत व्यक्त करते हुए कहा था कि भारत अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के चौराहे पर खड़ा है। उसके एक और पश्चिम एशिया तो दूसरी तरफ दक्षिण पूर्व एशिया के अति महत्वपूर्ण सामरिक क्षेत्र है जिनका प्रवेश द्वार भारत को बनाया जा सकता है। उत्तर में चीन और दक्षिण में हिंद महासागर भारत को और अधिक महत्वपूर्ण बना देता है।

अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में नेहरूजी नैतिक मार्ग के अनसुरण करने में ही विश्वास करते थे। नेहरू जी ने समय-समय पर शांतिपूर्ण तरीके से वार्ता एवं सहोयगमूलक मेल-मिलाप पर बल परंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही भारत की विदेश नीति इस सिद्धांत के द्वारा संचालित एवं दिया। यद्यपि पंचशील के सिद्धांतों का आविर्भाव1954 में भारत चीन समझौते के बाद हुआ समायोजित होती रही है। कालांतर में 1956 में नेहरू-टीटों-नासिर वक्तव्यों में भी इसकी पुनरावृत्ति की गयी। नेहरू की अफ्रीकी एशियाई एकता तथा प्रगति की धारणा ने मिस्त्र के नासिर, घाना के क्वामें एनक्रूमा, गुयाना के सेकूतूरे, लेबनान के काल जम्बलाल तथा कासिम को प्रेरणा प्रदान की। इस प्रकार नेहरू का अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का सिद्धांत मैकियाविलीवाद तथा शक्ति राजनीति की अस्वीकृति पर आधारित है। उनकी विदेश नीति आदर्शवादी दृष्टिकोणों से ओत-प्रोत थी। नेहरू जी की मान्यता थी कि आज का आदर्शवाद कल का यथार्थवाद होगा। परंतु वास्तव में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में आदर्शवाद का कोई स्थान नहीं होता है क्योंकि यह देश के लिये अडितकर होता है। भावना प्रधान निर्णयों से ही देश का अपमान होता है। ऐसा ही निर्णय भारत ने चीन के संदर्भ में लिया था। यद्यपि पं० नेहरू को 1950 में ही सरदार बल्लभभाई पटेल ने चीन के नापाक इरादों के बारे मे बता दिया था परन्तु पं० नेहरू ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। 1950 में ही चीन ने तिब्बत में प्रवेश करके उसे अपने कब्जे में ले लिया था। जब भारत द्वारा चीन का इस ओर ध्यान दिलाया गया तो चीन ने स्पष्ट शब्दों में भारत को कठोर और निराशानजक उत्तर दिया। चीन का कहना था कि भारत चीन के घरेलू मामले में हस्तक्षेप न करें। 1962 में चीन ने हिन्दी चीनी भाई-भाई के नारों के बीच भारत पर आक्रमण करके 35000 वर्ग कि०मी० भू-भाग पर अपना आधिपत्य कर लिया। इस घटना पर नेहरू जी स्तब्ध रह गये। इस प्रकार शैशवकाल में ही तिब्बत तथा चीन के मामले में भारत की विदेश नीति विफल रही। यही वह कारण है कि पं० नेहरू भी अपने जीवन की संध्या में यथार्थवाद को महत्व देने लगे थे। नेहरू युग की विदेश नीति की सबसे बड़ी विशेषता प्राचीन और नूतन, आदर्शवाद तथा यथार्थवाद तथा परंपरा तथा परिवर्तन का अंतर्द्वन्द्व था।

लाल बहादुर शास्त्री के काल की विदेश नीति

पं० नेहरू के निधन के बाद देश की बागडोर लाल बहादुर शास्त्री के हाथों में आ गयी। लाल बहादुर शास्त्री ने भी नेहरू जी की ही वैदेशिक नीति को आत्मसात किया परंतु वे यथार्थवाद को अधिक महत्व देने लगे। 1965 में पाकिस्तान के आक्रमण का मुंहतोड़ जवाब देकर तथा स०रा० अमेरिका जैसी महाशक्ति के दबाव के आगे घुटने टेक कर शास्त्री जी ने यथार्थवादी नीति का परिचय दिया। इसके साथ-साथ ताशकंद समझौता के माध्यम से आदर्शवाद का भी एक सुंदर उदाहरण प्रस्तुत किया। यद्यपि ताशकंद समझौता व्यावहारिक रूप आख्तियार करने में सफल नहीं रहा तथापि प्रत्येक युद्ध के बाद ऐसे समझौते थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ करने पड़ते है।

शुरू में लाल बहादुर शास्त्री को एक कमजोर प्रधानमंत्री समझा गया। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर अमेरिका द्वारा भारत को दबाने की कोशिश की गयी परंतु शास्त्री जी ने गुट निरपेक्षता की नीति का अपेक्षाकृत अधिक दृढ़ता के साथ अनुसरण किया तथा इसे एक यथार्थवादी रूप प्रदान किया। शास्त्री जी के प्रारंभिक दिनों में भारत तथा अमेरिका के संबंधों के मध्य विशेष कटुता नहीं उत्पन्न हुई परंतु उत्तरी वियतनाम पर अमेरिकी विमानों द्वारा की गयी बम वर्षा की भारत द्वारा तीव्र आलोचना की गयी। इससे भारत अमेरिकी संबंधों में कटुता उत्पन्न हो गयी तथा मई,1965 में अमेरिका द्वारा शास्त्री की अमेरिका यात्रा का निमंत्रण वापस ले लिया गया। इसके बाद अमेरिका ने भारत-पाकिस्तान युद्ध में पाकिस्तान को शस्त्रों को आपूर्ति की। इससे और अधिक कटुता दोनों देशों के संबंधों में उत्पन्न हो गयी। यहीं नहीं युद्ध के दौरान चीन ने पाकिस्तान को पूर्ण समर्थन प्रदान कर दिया तथा भारत को आक्रमणकारी घोषित किया। फलतः भारत तथा चीन के संबंधों में कोई सुधार नहीं हो सका।

शास्त्री जी ने अपने पड़ोसियों के साथ शांति-पूर्ण सह-अस्तित्व के आधार पर संबंध बनाये रखने के लिये भी कदम उठाया। परंतु उन्होंने श्रीलंका के साथ नागरिकता विहीन प्रवासी तमिलों के विषय में शांतिपूर्ण समाधान खोजकर अन्य छोटे पड़ोसी राष्ट्रों को आश्वस्त किया कि भारत की आकांक्षा बल प्रयोग द्वारा अपना प्रभुत्व स्थापित करने की नहीं है। शास्त्री जी के समय परिस्थितियां काफी जटिल थी जिससे भारत की भूमिका अंतर्राष्ट्रीय मंच पर कोई विशेष नहीं रही। ध्यातव्य है कि 1964-65 में देश भयंकर अकाल से ग्रस्त था तथा बड़े अपमानजनक ढंग से देश को विदेशों से खाद्यान्न आयात करना पड़ा। परिस्थितियों की प्रतिकूलता के बावजूद शास्त्री जी ने 1962 के घावों को भरने का काम बखूबी से किया। शास्त्री जी के समय की विदेश नीति के संदर्भ में कहा जाता है कि शास्त्री जी ने निरर्थक आदर्शवाद को सार्थक यथार्थवाद में रूपांतरण कर दिया तथा शांतिप्रिय होने के बाद भी राष्ट्रहित को बढ़ावा दिये जाने के लिये सैनिक शस्त्रों की उपयोगिता को स्वीकार किया गया। इससे भारतीय विदेश नीति का क्षेत्र थोड़ा संकुचित अवश्य हुआ परंतु राष्ट्रहित को सुरक्षित करने के लिये ऐसा करना उचित ही था। शास्त्री जी ने दो वर्ष की अल्पावधि के काल में विदेश नीति को एक नया आयाम देने में सफल रहें।

इंदिरा गांधी के काल की विदेश नीति

शास्त्री जी के अचानक ताशकंद में निधन के बाद जनवरी, 1966 में देश के प्रधानमंत्री पद की बागडोर श्रीमती इंदिरा गांधी के हाथों में आ गई। इंदिरा गांधी की विदेश नीति में यथार्थवाद का प्रभाव था। इंदिरा गांधी ने बांग्लादेश मुक्ति आंदोलन चलाया तथा बांग्लादेश को एक नये स्वतंत्र देश की मान्यता प्रदान की, अमेरिका के प्रति दृढ़ता, रूस से साथ सम्मानजनक एवं गुटनिरपेक्षता पर आधारित मैत्री-संधि, पाक की शत्रुता का मुंहतोड़ जवाब आदि के माध्यम से राष्ट्रीय हितों की रक्षा की। इसके साथ ही शिमला समझौते के माध्यम से यह भी स्पष्ट कर दिया कि भारत उपनिवेशवाद तथा साम्राज्यवाद का विरोधी है तथा पड़ोसी देशों और विश्व के अन्य देशों के साथ मित्रता का इच्छुक है। यद्यपि श्रीमती गांधी पर अमेरिका द्वारा शुरू से ही दबाव डालने की नीति अपनायी गयी थी परंतु अमेरिका नीति की तीव्र आलोचना तथा सोवियत संघ से संधि करके मैत्रीपूर्ण नीति का परिचय दिया गया। अगस्त, 1971 में सोवियत संघ के साथ गुटनिरपेक्षता के अपने दर्शन और स्वयं की निर्णय शक्ति के सम्मान की रक्षा करते हुए मैत्री संधि की गई। ध्यातव्य है कि इस संधि के अंतर्गत सोवियत संघ भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति को स्वीकार करता है और विश्व शांति के लिये उपयोगी मानता है। इससे स्पष्ट है कि श्रीमती गांधी के कार्यकाल में भारतीय विदेश नीति के आधार मूल तत्वों में बिना किसी प्रकार का कोई परिवर्तन किये उसे राष्ट्रीय हित के लक्ष्यों की पूर्ति की दिशा में अधिक प्रभावी बनाया गया तथा उसको अधिक व्यावहारिक रूप प्रदान करने का प्रयास किया गया।

श्रीमती इंदिरा गांधी के जनवरी, 1980 से अक्टूबर, 1984 के द्वितीय काल में भारतीय विदेश नीति और अधिक प्रभावी हुई। श्रीमती गांधी के क्रियाकलापों में महाशक्तियों और अन्य राष्ट्रों ने विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति भारतीय रुख को अच्छी प्रकार से समझा। जुलाई-अगस्त, 1982 में श्रीमती इंदिरा गांधी की यात्रा से भारत अमेरिका संबंधों में एक नयापन देखने को मिला तथा भारत के प्रति अमेरिका के रुखों में साकारात्मक बदलाव देखने को मिला। सितम्बर, 1982 में सोवियत संघ की यात्रा को भारत सोवियत मैत्री में एक और युगांतकारी घटना का नाम दिया गया। श्रीमती इंदिरा गांधी के कार्यकाल में भारत में चीन द्वारा अपने राजदूत की नियुक्ति की गयी। ध्यातव्य है कि 1962 के चीन युद्ध के बाद चीन तथा भारत के मध्य राजनायिक एवं कूटनीतिक संबंध 1976 तक नहीं थे। अप्रैल, 1976 में चीन ने भारत में अपने राजदूत नियुक्त करने की घोषणा की तथा सितम्बर, 1976 में चीनी राजदूत द्वारा अपना परिचय पत्र प्रस्तुत किया गया। इस प्रकार चीन तथा भारत में राजनयिक संबंध पुनः स्थापित हुए। मार्च, 1983 में गुटनिरपेक्ष आंदोलन का अध्यक्ष तीन वर्ष के लिए श्रीमती गांधी को चुना गया। इन्हीं के शासनकाल में भातर ने संयुक्त राष्ट्र की विभिन्न संस्थाओं और निकायों का प्रतिनिधित्व किया। इसके बाद श्रीमती इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के लिये एक प्रमुख नेता के रूप में में उभरी तथा विश्व नेताओं की प्रथम श्रेणी में खड़ी हुई। श्रीमती इंदिरा गांधी की आवाज को अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में पर्याप्त स्थान मिलने लगा।

श्रीमती इंदिरा गांधी की विदेश नीति का वैचारिक पक्ष भी कम मुखर नहीं था। चाहे तीसरे विश्व का खाद्य संकट हो या पर्यावरण संरक्षण का सवाल हो या दक्षिण अफ्रीका में नस्लवाद के विरुद्ध आवाज उठाने की बात हो या निर्धन और विकासशील देश के पक्ष का प्रश्न हो, परमाणु प्रसार पर चिंता व्यक्त करना हो अथवा उपनिवेशवाद के विरुद्ध जनमत तैयार करना हो, उनका चिंतन एकाकी नहीं था, बल्कि समग्र विश्व के लिये था। यह भारत वसुधैव कुटुम्बकम के दर्शन के अनुकूल ही था। श्रीमती इंदिरा गांधी पड़ोसी देशों तथा परमाणु नीति के संदर्भ में उसी दिशा की ओर अग्रसर हुई जिस पर शास्त्री कदम उठा चुके थे। यह भी सही है कि श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपनी विदेश नीति या कूटनीति के अंतर्गत कुछ क्रांतिकारी एवं प्रगतिशील कदम उठाया परंतु मौलिक रूप से नेहरू जी की सुझायी गयी गुट निरपेक्षता की । नीति को ही केंद्र में रखकर भारतीय विदेश नीति का संचालन किया। श्रीमती इंदिरा गांधी की विदेश नीति में यथार्थवादी तथा आदर्शवादी महत्वाकांक्षाओं का सम्मिश्रण देखने को मिलता है। कई राजनीतिक समीक्षक 1971 के बांग्लादेश के मुक्ति अभियान तथा 1974 के पोखरण परमाणु परीक्षण को उनके अति यथार्थवादी सिद्धांत के रुप में भी देखते हैं।

राजीव गांधी के काल की विदेश नीति

अपनी माँ की मृत्यु के बाद 31 अक्टूबर, 1984 को भारत की सत्ता राजीव गांधी के हाथों में आयी। राजीव गांधी ने अपने काल में भारत की विदेश नीति की उसके परम्परागत आधारों पर कायम रखा तथा उसको और अधिक मजबूत बनाने के लिये प्रयास किया। राजीव गांधी ने अफ्रो-एशियाई देशं तथा गुटनिरपेक्ष आंदोलन में गहरी दिलचस्पी ली तथा सोवियत संघ के साथ भारत की मित्रता को एक नया आयाम देने तथा अमेरिका के साथ भारत के संबंधों को सुधारने की दिशा में काफी प्रयसा किया। राजीव गांधी ने 1988 में चीन की यात्रा करके भारत चीन के मध्य काफी अरसे से चल रहे सीमा विवाद को आपसी विचार विमर्श से हल करने की उम्मीद जगायी। ध्यातव्य है कि वर्तमान में भारत और चीन के संबंधों में जो सुधार आ रहा है उसकी नींव राजीव गांधी ने ही रखी थी। राजीव गांधी ने भारत को एक सैनिक शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करने की कोशिश की। यह 1987 में राजीव गांधी- जे० आर० जयवर्द्धने के मध्य हुआ समझौता तथा क्षेत्र में 1988 में तख्ता पलटने की कार्यवाही को भारत द्वारा विफल करना आदि भारत के एक सैनिक ताकत के रूप में दर्शित होता है।

1984 से 1986 तक राजीव गांधी गुट निरपेक्ष आंदोलन के अध्यक्ष की हैसियत से सहमति के क्षेत्रों का विस्तार करने, विवादास्पद मामलों पर विचार-विमर्श जारी रखवाने तथा विश्व समुदाय के समक्ष उपस्थित प्रमुख समस्याओं के समाधान के लिये रचनात्मक पहल करने की दिशा में निरंतर प्रयासरत रहें। यहीं नहीं गुट निरपेक्ष आन्दोलन के हरारे शिखर सम्मेलन के दौरान अफ्रीका कोष की स्थापना करवा कर के तथा स्वयं उसके अध्यक्ष का कार्यभार लेकर नस्लवाद के विरुद्ध देश की परम्परागत विदेश नीति का अनुसरण किया गया। श्रीमती इंदिरा गांधी के बाद पाकिस्तान के प्रति भारतीय विदेश नीति में कोई परिवर्तन नहीं दिखाई दिया। परंतु उनमें गत्यात्मकता अवश्य देखने को मिली। 17 दिसम्बर, 1985 को जनरल जियाउल हक ने भारत की यात्रा की तथा एक दूसरे के परमाणु संयंत्रों पर आक्रमण न करने का समझौता किया। पाकिस्तान में लोकतंत्र की वापसी और बेनजीर भुट्टों के प्रधानमंत्री बनने के बाद यह लगने लगा कि भारत तथा पाकिस्तान के मध्य संबंध अब सामान्य हो जायेंगे। इसी कड़ी में 16 जुलाई, 1989 में भुट्टो के आमंत्रण पर राजीव गांधी ने पाकिस्तान की यात्रा की। ध्यातव्य है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पहली बार किसी भारतीय प्रधानमंत्री की यह पाकिस्तान की सरकारी यात्रा की। यद्यपि 1960 में जवाहर लाल नेहरू तथा 1988 में राजीव गांधी दक्षेस के शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिये पाकिस्तान गये थे। परंतु इनको सरकारी यात्रा के रूप में नहीं माना जाता है। पंजाब में पाकिस्तान द्वारा आतंकवादियों को मदद देने के कारण तथा भारत के प्रति पाकिस्तान का अपवित्र दृष्टिकोण ने भारत तथा पाकिस्तान के मध्य स्थायी शांति तथा मैत्री की संभावना को क्षीण कर दिया था।

भारत द्वारा अपने पड़ोसी देशों से मधुर संबंध बनाये रखने की यथासंभव कोशिश हमेशा की जाती रही है। राजीव गांधी के शासनकाल में भी यही हुई। राजीव गांधी ने अपने कार्यकाल में दो बार भूटान की यात्रा की। बांग्लादेश वे स्वयं गये ‘पा वहां के राष्ट्रपति इरशाद का अपने यहां स्वागत किया। राजीव गांधी ने मालदीव तथा नेपाल के साथ अपने संबंधों का विशेष ख्याल रखा। यद्यपि राजीव गांधी के कार्यकाल में भारत तथा नेपाल के मध्य कटुता भी उत्पन्न हो गयी थी।

प्रधानमंत्री बनने के मात्र एक वर्ष के अंदर ही राजीव गांधी ने मिस्त्र, अल्जीरिया, सोवियत संघ, फ्रांस, स्विजटरलैंड तथा अमेरिका आदि देशों की यात्रा की। इसी अवधि सोवियित संघ, फ्रांस, स्विटजरलैंड तथा अमेरिका आदि देशों की यात्रा की। इसी अवधि में उन्होंने भारत महोत्सव की श्रृंखला प्रारंभ की जिसन चीन, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी तथा सोवियत संघ आदि देशों से अपने सांस्कृतिक संबंधों को मजबूत आधार प्रदान किया। सोवियत संघ के साथ निरंतर द्विपक्षीय संबंध मजबूत होते रहें। द्विपक्षीय संबंधों को अधिक संबल बनाने के लिये 2 मई, 1985 को राजीव गांधी 6 दिन की सोवियत संघ की यात्रा पर गये तथा नवम्बर, 1986 में सोवियत संघ के राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाच्योव भारत आये।

राजीव गांधी के शासनकाल में अतंर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत के सम्मान में वृद्धि हुई। राजीव गांधी ने विश्व में भारत के कार्यकलापों में अपनी विशिष्ट गतिशीलता एवं सहज मानवता का समावेश किया। निरस्त्रीकरण पर आयोजित संयुक्त राष्ट्र के विशेष सत्र में श्री गांधी ने विश्व शांति के प्रति अपनी प्रतिबद्धता प्रकट की तथा निरस्त्रीकरण के लिये एक समयबद्ध योजना भी प्रस्तुत की थी। राजीव गांधी ने विश्व अर्थव्यवस्था में विद्यमान विषमताओं को दूर करने तथा अपने साथ अच्छा व्यवहार सुनिश्चित किये जाने के लिये विकासशील देशों के मध्य बेहतर संबंधों तथा उनके आपसी सहयोग बढ़ाने पर बल दिया।

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