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सल्तनत काल के प्रमुख व्यापारिक मार्ग

सल्तनत कालीन व्यापारिक मार्ग

सल्तनत काल में स्थल मार्ग एवं जलमार्ग दोनों मार्गो से व्यापार होता था-

प्रमुख व्यापारिक मार्ग

स्थल मार्ग

देश के लगभग सभी बड़े-बड़े नगर, शहर, ग्राम थल एवं जल मार्ग से परस्पर जुड़े हुए थे। व्यापारियों की सुविधा हेतु मुख्य मार्गों पर स्थान-स्थान पर सराय, तालाब, छायादार वृक्ष आदि होते थे। इसके अतिरिक्त पर्वत श्रेणियों एवं मरुस्थल से होकर भी एक अन्य मार्ग तक्षशिला से लेकर बंगाल के सोनार गाँव तक जाता था, जो पेशावर, लाहौर, सरहिंद, दिल्ली, आगरा, कड़ा-मानिकपुर (इलाहाबाद), बनारस, गौड़ से होकर गुजरता था।

दिल्ली सल्तनत की राजधानी थी, अतः वह अनेक मार्गों के द्वारा देश के विभिन्न भागों से जुड़ी थीं। पूर्व में दिल्ली से एक मार्ग बदायूँ, कन्नोज, इलाहाबाद, बनारस और आगे गोड़ से होकर बंगाल तक जाता था एक अन्य मार्ग बरन (बुलंदशहर), बदायूँ, फर्रुखाबाद, कनौज, बनारस एवं बोध गया होकर गौंड जाता था। दिल्ली से पटना का मार्ग आगरा, कालपी, कड़ा इलाहाबाद, बनारस होकर जाता था। पटना पहले ही बंगाल के अन्य नगरों से जुड़ा था। दिल्ली से मालवा का एक मार्ग ग्वालियर एवं नागौर से होकर जाता था तो दूसरा ग्वालियर एवं बयान के रास्ते चंबल घाटी से होकर जाता था। दिल्ली से रणथंभौर का मार्ग संभल, अजमेर एवं चित्तौड़ होकर जाता था। इसी प्रकार एक अन्य मार्ग केंद्रीय भारत की ओर मथुरा, आगरा के रास्ते चंदेरी, सारंगपुर, रासीन होकर उज्जैन जाता था। उज्जैन से सीधे गुजरात के बंदरगाह खंभात जाया जा सकता था। दिल्ली से अजमेर, कुंभलगढ़, आबू, ईदर आदि शहरों से होकर भी खंभात जाया जा सकता था। खंभात से आगे भड़ौच का रास्ता था। इन्नेबतूता दिल्ली से कोल (अलीगढ़), कन्नौज, ग्वालियर, खुजराहों, चंदेरी, धार, उज्जैन होकर दौलताबाद गया था। दिल्ली से लाहौर का रास्ता बादली-नरेला, सोनीपत, गन्नौर, समालखा-पानीपत, करनाल, थानेश्वर, अंबाला, सरहिंद, लुधियाना होकर था। इब्नेबतूता ने सिंध से दिल्ली पहुँचने के लिए जनानी, सिविस्तान, लाहरी, भक्कर, उच्छ, मुल्तान, अजोधन, अबोहर, सरसुती, हाँसी, मसडदाबाद, पालम का मार्ग सिंध व मुल्तान पर अरबों का अधिकार होने के बाद से भारतीय व्यापारियों को मध्य एशिया, फारस, समरकंद आदि जाने के लिए भी अनेक मार्गों का ज्ञान हो चुका था।

आगरा से भी अनेक मार्ग विभिन्न दिशाओं को जाते थे। बाबर आगरा एवं ग्वालियर के बीच एक मार्ग का उल्लेख करता है जो बयाना, धौलपुर होकर था। तारीखे मुबारकशही में खिज्र खाँ द्वारा आगरा से नागौर जाने वाले मार्ग का वर्णन है जो टोक, टोंडा होकर जाता था। इसी प्रकार एक मार्ग आगरा से मांडू की ओर जाता था, जो मेड़ता, चित्तौड़, रणथम्भौर, कोटा एवं उज्जैन होकर जाता था। एक अन्य मार्ग आगरा से चित्तौड़, चित्सू, लाडू, मेड़ता, जालौर होकर अहमदाबाद जाता था। इसी मार्ग को सांभर, मंडल तथा अजमेर होकर भी पहुंचा जा सकता था। आगरा से अजमेर फतेहपुर, हिंडौन, लालकोट होकर भी एक मार्ग का उल्लेख है। इसी तरह अजमेर से मेड़ता, जोगी का गाँव, जालौर एवं अरावली पर्वत मालाओं से जुड़े मार्ग द्वारा अहमदाबाद पहुँचा जा सकता था। पंजाब के नगरों से कध्मीर भी जाया जा सकता था जिसका रास्ता जम्मू से होकर पीर पंजाल की श्रृंखलाओं के बीच दरों से होकर जाता था। अनेक स्थल मार्ग तिब्बत की ओर भी जाते थे। तिब्बत एवं कश्मीर भी एक दूसरे से अनेक दरों के माध्यम से जुड़े हुए थे।

जल-मार्ग

सारा व्यापार थल-मार्ग द्वारा ही नहीं होता था। यद्यपि नौकाओं द्वारा नदी मार्ग से माल ढोने का कार्य धीमी गति से होता था तथापि व्यापारी जल-मार्ग को व्यापारिक यातायात की दृष्टि से वरीयता देते थे। सिंधु, गुजरात, बंगाल के बंदरगाही नगरों के अतिरिक्त नदियों के किनारे बसें नगरों से भी जल-मार्ग द्वारा व्यापार होता था। हम कुछ नदी तथा समुद्रतटवर्ती नगरों का पहले ही उल्लेख कर चुके हैं। नदी जल-मार्ग की दृष्टि से पंजाब में मुख्यतः सिंधु नदी का अधिकतम उपयोग हुआ, इसका कारण यह था कि सिंधु नदी अंततः अरब सागर के साथ जुड़ी थी। अरब देशों अर्थात ईरान तथा अन्य खाड़ी के देशों के साथ अधिकांश व्यापार अरब सागर के रास्ते से ही होता था। व्यापारिक जहाज खाड़ी के देशों के अतिरिक्त गुजरात के बंदरगाहों से दक्षिण में हिंद महासागर होते हुए लंका, मलाया, हिंदचीन, बर्मा, जामान एवं चीन आदि देशों को भारतीय व्यापारिक माल ले जाते थे। बंगाल के बंदरगाहों की भी यही भूमिका थी । यहाँ से भी माल लादकर जहाज सामुद्रिक मार्ग से अनेक देशों की यात्रा पर निकल पड़ते थे।

आंतरिक व्यापार के क्षेत्र में समस्त छोटी-बड़ी नदियाँ अपना-अपना योगदान देती थीं। दिल्ली व आगरा के बीच नियमित रूप से नौका – चालन होता था। पटना एवं बंगाल के बीच गंगा नदी में छोटी-बड़ी नौकाओं के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के जहाज भी चलते थे। लखनौती में हजारों छोटी, पर वेग से चलने वाली नौकाओं का तत्कालीन ग्रंथों में उल्लेख मिलता है। बहुत-सी नौकाओं में तो आटा पीसने की चक्कियाँ, रसोइयाँ, बाजार अदि भी होते थें। नदी मार्ग पर व्यापारिक सुविधाएँ प्रदान करने के लिए स्थान-स्थान पर पुलों एवं घाटों का निर्माण कराया जाता था।

समकालीन ग्रन्थों में जल एवं थल मार्ग दोनो से आने-जाने वाले व्यापारिक काफिलों का वर्णन हैं। जल-मार्ग द्वारा बंगाल से आगरा अथवा दिल्ली तक आने के बाद ये काफिले पुनः थल मार्ग से लाहौर अथवा मुल्तान तक चले जाते थे। इन स्थानों से व्यापारिक माल को मध्य एशियाई देशों को भेजा जाता था। थल-मार्ग द्वारा प्रायः व्यापारिक माल आगरा से गुजरात

के बंदरगाहों पर पहुँच जाता था, जहाँ से इसे पुनः सामुद्रिक मार्ग द्वारा अरब देशों को रवाना कर दिया जाता था। यद्यपि व्यापार थल और जल दोनो ही मार्गों से लगातार होता रहता था फिर भी व्यापारियों को प्रायः लूट पाट संबंधी खतरो के प्रति सशंकित रहना पड़ता था। समय-समय पर चोर-डाकुओं और लुटेरों तथा जंगली जानवरों से व्यापारियों को जूझना पड़ता था। ऐसी स्थिति आने पर उन्हें कई बार भारी हानि भी उठानी पड़ती थी, पर इसमें व्यापार की गति में अधिक अंतर नहीं पड़ा। तत्कालीन शासको द्वारा समय-समय पर किए गए सुरक्षात्मक कार्यों से व्यापारियों को काफी लाभ पहुंचा । समकालीन शासकों द्वारा व्यापारिक मार्गों पर उचित सुविधाएँ प्रदान करने एवं सुरक्षात्मक व्यवस्था करने के परिणामस्वरुप भारत के हर भाग में विदेशी व्यापारी सुगमता से विचरण कर सकते थे।

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