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पोखरण परीक्षण-II के बाद भारत-जापान सम्बन्ध

पोखरण परीक्षण-II के बाद भारत-जापान सम्बन्ध

भारतीय नई परमाणु नीति (पोखरण ॥) के बाद भारत-जापान सम्बन्ध

(Indian New Nuclear Policy Pokhran II and Indo-Japan Relations)

11 मई तथा 13 मई को जब भारत ने पांच परमाणु विस्फोट करके परमाणु शस्त्रों की प्राप्ति को यकीनी बना लिया तो जापान में इसके विरुद्ध तीव्र, तथा उग्र प्रतिक्रिया हुई। भारत द्वारा 11 मई 1998 के किये 3 परमाणु परीक्षणों के बाद जापान, जो कि भारत के लिए एक सब प्रमुख सहायता देने वाला देश रहा है, ने भारत पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिये। 3.5 बिलियन येन (26 Million) की वार्षिक सहायता ग्रांट पर रोक लगा दी तथा कहा कि जापान भारत को नई सहायता ग्रांट अब नहीं देगा तथा 133 बिलियन येन के कर्जे का भुगतान भी भारत के भविष्य के रवैये को देख कर करेगा। भारत द्वारा जब 13 मई, 1998 को दो और परमाणु परीक्षण किये गये तो और आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिया। बिलियन डालर के वार्थिक कर्जे की अदायगी को रोक दिया गया लेकिन इसके साथ यह भी कहा कि 1997-98 के लिए स्वीकृत 1 बिलियन डालर कर्जे को नहीं रोका जायेगा। जापान ने भारत में अपने राजदूत को बातचीत के लिए वापस बुला लिया। लेकिन चार दिन बाद अपने राजदूत को वापिस भारत भेज दिया। जी-8 के सम्मेलन (15 मई 1998) में अमरीका तथा जापान भारत पर सामूहिक प्रतिबन्ध लगाने के पक्ष में दिखाई देते थे क्योंकि उन्होंने तो स्वयं भारत पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिये परन्तु जी-8 के अन्य देशों ने इसे स्वीकार नहीं किया। ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने स्पष्ट कहा कि वह सामूहिक प्रतिबन्धों के विरुद्ध थे।

जापान ने भारत को पहले से स्वीकृत कर्जे तथा सहायता और मानवीय आधार पर दिये जाने वाली व्यापार/औद्योगिक कार्यों में लगी जापानी कम्पनियों ने भी भारतीय निजी क्षेत्र में अपने कार्यों तथा निवेशों पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाया। जून 1998 में भारत में जापान के राजदूत ने जहाँ भारत के परमाणु परीक्षणों तथा परमाणु नीति की आलोचना की तथा यह कहा कि भारत को सी0 टी0 बी0 टी0 (CTBT) पर तुरन्त हस्ताक्षर कर लेने चाहिए वहाँ उसने यह भी आशा की कि दोनों देश अपने सम्बन्धों में आई दुविधाएं तथा रुकावटों पर नियंत्रण रखेंगे। उन्होंने भारत में मारुति सुजुकी के प्रबन्धन के सम्बन्ध में हुई सहमति का स्वागत किया तथा इसे एक सकारात्मक कदम बतलाया। परन्तु 1998-99 के मध्य भारत-जापान सम्बन्धों में कोई विशेष परिवर्तन दिखाई नहीं दिया।

जुलाई 1999 में एसियान क्षेत्रीय फोरम की सिंगापुर बैठक के समय भारतीय विदेश मंत्री श्री जसवंत सिंह तथा जापान के विदेश मंत्री श्री मासाहिको कोमूरा के मध्य बातचीत हुई तथा दोनों देशों ने विज्ञान तथा तक्नॉलोजी के क्षेत्रों में सहयोग की आवश्यकता पर बल दिया। नवम्बर 1999 में श्री जसवंत सिंह ने जापान की यात्रा की तथा दोनों देशों ने उच्च स्तरीय वार्तालाप आरम्भ किये जाने पर सहमति बनाई। इस वार्तालाप के फलस्वरूप दोनों देशों के रक्षा मंत्रियों के बीच 21वीं शताब्दी के आरम्भ में ही वार्तालाप हुआ जब श्री जार्ज फर्नाण्डीज ने जापान की यात्रा की। सुरक्षा तथा प्रतिरक्षा के क्षेत्रों में नया वार्तालाप आरम्भ करने का निर्णय लिया गया।

आर्थिक सम्बन्धों तथा सुरक्षा के क्षेत्र में एक विशाल आधार वाली भागीदारिता के निर्माण के लिए फरवरी 2000 में भारत-जापान वार्तालापों का दौर आरम्भ किया गया। जापान के एक पूर्व प्रधानमंत्री श्री रूयूतर हाशीमोतो, जोकि जापान में नीति सलाहकार के उच्च पद पर कार्य कर रहे थे, ने अपनी एक भारत यात्रा के दौरान यह कहा कि जापान ADB तथा IMF द्वारा भारत को दिये जाने वाले कर्ज के प्रत्येक मामले पर विचार करने के लिए तैयार था। पोखरां II के बाद पहली बार जापान ने ऐसा विचार प्रस्तुत किया था। इससे पहले जापान का यह मत था कि जब तक भारत अपने परमाणु शस्त्र कार्यक्रम को बन्द नहीं करता तब तक जापान विश्व बहुपक्षीय संस्थाओं द्वारा भारत को कर्ज दिये जाने का विरोध करेगा। अब जापान ने यह नीति प्रकट की कि अगर भारत CTBT पर हस्ताक्षर कर देता था तो जापान भारत को ADB तथा MF जैसी संस्थाओं द्वारा दिये जाने वाले कर्ज का विरोध नहीं करेगा। निश्चय ही ऐसा जापानी मत पहले मत की अपेक्षा लचीला था।

मार्च 2000 में जापान ने यह घोषित किया कि जापानी पूंजी निवेश के लिए भारत जैसा तीसरा विश्वास योग्य देश था। भारत में जापान के राजदूत श्री हिरोशि हीराब्यासनी ने पाँच ऐसे तत्वों का उल्लेख किया जो जापान को भारत में पूंजी निवेश करने के लिए बाध्य कर सकते थे। भारत की भू-सामरिक स्थिति, लोकतंत्र के प्रति भारत की प्रतिबद्धता (WTO), विश्व बैंक या फिर प्रस्तावित एशियन वित्त फंड आदि के संदर्भ में भारत का विश्व आर्थिक प्रबन्धन में महत्व, भारतीय संस्कृति, तथा विश्व मुद्दों (जैसे गरीबी, अंतर्राष्ट्रीयातंकवाद तथा नशीले पदार्थों की तस्करी के विरुद्ध संघर्ष) के समाधान में भारत की प्रासंगिकता। जापानी राजदूत ने यह भी कहा, जापान की बिजनेस कौंसिल ने भारत के साथ सम्बन्धों के तीन क्षेत्रों को प्राथमिक क्षेत्र माना है IT, Infrastructure and Agro-business इन तीनों क्षेत्रों में भारत-जापान सम्बन्धों में सहयोग बढ़ाना अब एक प्राथमिक लक्ष्य बन रहा था।

जापान के प्रधानमन्त्री श्री योशिरो मोरी की भारत यात्रा (अगस्त 2000) तथा भारत-जापान सम्बन्ध

भारत-जापान सम्बन्धों में पोखरां II (मई 1998) के बाद जो शिथला आ गई थी (क्योंकि जापान ने भारत के विरुद्ध आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिये थे) उस शिथिलता को कम करने के लिए भारत ने काफी सक्रिय पहल की तथा इसके परिणामस्वरूप अगस्त 2000 में जापान के प्रधानमंत्री श्री मोरी ने भारत की यात्रा की तथा यह घोषणा की कि भारत और जापान एक विश्वपरकीय भागीदारी स्थापित करेंगे जोकि राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों से सम्बन्धित होगी। प्रधानमंत्री श्री वाजपेयी ने भी कहा कि यह भागीदारी शान्ति विकास तथा सहयोग के लिए होगी।

जापान तथा भारत के नेताओं में विभिन्न मुद्दों पर उच्च स्तरीय वार्तालाप हुआ। भारत ने अपनी परमाणु नीति के बारे में स्पष्ट किया कि भारत ने और परमाणु परीक्षण न करने का निर्णय किया हुआ है तथा वह CTET के लागू किये जान के मार्ग में रुकावट नहीं बनेगा। दोनों देशों ने यह निर्णय लिया कि वह शीघ्र ही सुरक्षा के मुद्दे पर वार्तालाप का पहला दौर होगा तथा इसमें सुरक्षा परमाणु अप्रसार तथा निःशस्त्रीकरण के मुद्दे शामिल होंगे। जापान ने भारत में स्थापित कि ये जा रहे साबादरी ताप बिजली घर (आंध्र प्रदेश) तथा देहली मेट्रो परियोजना केल इए 180 मिलियन डालर देगा तथा 15 अन्य परियोजनाओं को धन देने के मुद्दे पर विचार करेगा। लेकिन जापान किसी नई परियोजना पर तब तक धन नहीं देगा जब तक भारत CTBT पर निर्णय नहीं ले लेता (जापान चाहता है कि भारत CTBT पर तुरन्त हस्ताक्षर कर दे) जापान ने पाकिस्तान को कारगिल युद्ध के लिए नियंत्रण रेखा तथा लाहौर प्रक्रिया को तोड़ने के लिए उत्तरदायी माना तथा जापान के प्रधानमंत्री ने कहा कि उन्होंने अपनी पाकिस्तान की यात्रा के समय सैनिक शासक जनरल मुशर्रफ को यह कहा कि लोकतंत्र की बहाली के लिए, आतंकवाद पर नियंत्रण के लिए तथा भारत के साथ वार्तालाप आरम्भ करने के लिए शीघ्र कदम उठाने की आवश्यकता थी। जापान की ऐसी सोच निश्चय ही भारतीय सोच के बहुत करीब थी।

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