(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});

पर्यावरण संरक्षण का आर्थिक विकास में महत्व

पर्यावरण संरक्षण का आर्थिक विकास में योगदान 

पर्यावरण संरक्षण का आर्थिक विकास में योगदान

(Contribution / Importance of Environmental Conservation in Economic Development)

अन्य जीवों के समान ही मानव भी पर्यावरण का ही एक अंग है। परन्तु एक विभिन्नता यह है कि अन्य जीवों की तुलना में मानव में अपने चारों ओर के पर्यावरण को प्रभावित तथा कुछ अर्थों में उसे नियंत्रित कर पाने की पर्याप्त क्षमता होती है। यही कारण है कि मानव का पर्यावरण के साथ सम्बन्धों को इतना महत्व दिया जाता है।

आधुनिक जीवन में मानव तथा पर्यावरण के सम्बन्धों की समस्या से अधिक उत्सुकता का अन्य कोई विषय नहीं है। पर्यावरणीय सम्बन्धों में अव्यवस्था से समस्त सांस्कृतिक तथा सामाजिक विनाश के भय की विस्फोटक परिस्थिति ने मानव सभ्यता को सावधान कर दिया है। मानव की प्रगति विकास तथा अस्तित्व संसाधनों पर निर्भर है। मानव जीवन जिन आधारभूत साधनों पर निर्भर है और जिनसे उसकी भौतिक व सांस्कृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है, वे सभी संसाधन है। कोई भी वस्तु मानव की आवश्यकता की पूर्ति के लिए प्रयोग में आने पर ही संसाधन बनती है। संसाधन विभिन्न प्रकार के होते हैं जैसे वन संसाधन, खनिज संसाधन, खाद्य संसाधन, आदि।

वन (Forest) –

वन से अभिप्राय सामान्य रूप से पेड़-पौधों से आच्छादित क्षेत्र से है। अन्य वनस्पति की अपेक्षा वृक्षों को सूर्य प्रकाश उष्णता तथा नमी की अधिक आवश्यकता होती है, अतः भू-पृष्ठ पर जहाँ उच्चावच, मृदा तथा जलवायु की अनुकूल दशाएँ पाई जाती हैं, वृक्षों की वृद्धि अधिक होती है। वनों का सदा ही से मानव जीवन में महत्व रहा है। आदि मानव तो अपनी लगभग सभी आधारभूत आवश्यकताओं के लिए जैसे- भोजन, कपड़ा और आवास के लिए वनों पर ही पूर्णतया निर्भर रहता था। मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ मानव तथा वनों के सम्बन्धों में परिवर्तन आते गये परन्तु मानव की वनों पर निर्भरता किसी न किसी रूप में आज भी बनी हुई है। अनेक आदिम जातियाँ वनों में आज भी निवास करती हैं और आधुनिक सभ्य जगत भी पूर्णतः नहीं तो आंशिक रूप से ही सही वन्य उत्पादनों पर निर्भर करता है।

वनों से हमें उपयोगी तथा प्रतिदिन व्यवहार की अनेकानेक वस्तुएँ प्राप्त होती हैं जिसमें इमारती लकड़ी, जलाऊ लकड़ी, लकड़ी का कोयला, प्लाईवुड, बाँस, बेंत, लुगदी, सेल्यूलोज, लिग्निन, अनेक खाद्यफल, फूल और पत्तियाँ, पशुओं के लिए चारा, अनेक औषधियाँ, अनेक प्रकार की गोंद, रबर, तारपीन का तेल, रेशेदार पदार्थ, कत्था, सुपारी, टेनिन, वानस्पतिक रंजक पदार्थ और लाख इत्यादि प्रमुख हैं। रेल के डिब्बों, स्लीपरों, मकानों, पेटियों, मोटरगाड़ियों, घरेलू सामान तथा इन्जीनियरिंग सामान में प्रयुक्त होने वाली इमारती लकड़ी वनों से ही प्राप्त होती है।

वनों से प्राप्त हुई लकड़ी तथा अन्य वस्तुओं से संसार में अनेक उद्योग चल रहे हैं। कागज, लाख, दियासलाई, धागे, रबर, पेन्ट, वार्निश, रेजिन, कत्था, फर्नीचर, प्लाइवुड तथा खेल के सामान इत्यादि के निर्माण से सम्बन्धित उद्योग वनों से प्राप्त उपादानों पर ही आधारित है। इसके अतिरिक्त वनों पर आधारित कुछ कुटीर उद्योग भी हैं जो जन जातियों को उद्योग या रोजगार प्रदान करते हैं। जैसे- मधुमक्खी पालन, बॉस की टोकरियाँ, चटाइयाँ एवं अन्य सामान का निर्माण, जूट के गलीचे तथा अन्य सामान इत्यादि का निर्माण। इस प्रकार वन सम्बन्धी उद्योग प्रत्येक देश की अर्थव्यवस्था के प्रधान अंग होते हैं। वनों को संरक्षण होने पर ही पर्यावरण का संरक्षण भी होता है अगर वनों का संरक्षण नहीं किया जाता तो न तो पर्यावरण का संरक्षण हो पायेगा और न ही आर्थिक सम्भव हो पायेगा।

खनिज (Minerals)

पृथ्वी के गर्भ में छिपी अकूत खनिज सम्पदा के कारण ही धरती को ‘रत्नगर्भा’ कहा गया है। खनिज पदार्थ मानव को प्रकृति प्रदत्त उपहार हैं। सामान्य अर्थो में वे सभी पदार्थ जो खनन द्वारा प्राप्त किये जाते हैं. खनिज, कहलाते हैं। समस्त खनिज पदार्थ किसी न किसी रूप में मनुष्य के काम आते हैं। नमक आयोडीन, फलुओरीन आदि खनिज हमारे भोजन के अभिन्न अंग है। स्वर्ण भस्म, लौह भस्म, शिलाजीत आदि ग्रेनाइट, लाल पत्थर आदि से स्थापत्य के बेजोड़ नमूने बनाये जाते हैं। आधुनिक सभ्यता की प्रतीक मशीनें तथा परिवहन के साधन धात्तिक खनिजों के कारण अस्तित्व में आये। औद्योगीकरण की नींव कोयला जैसे शक्ति संसाधन पर रखी गई।

प्रारम्भिक अवस्था में खनन का कार्य मानव के प्राथमिक व्यवसाय के रूप में था। तकनीकी एवं वैज्ञानिक प्रगति के साथ मानव की उत्खनन क्षमता बढ़ती गई। खनन में स्वचालित यन्त्रों व उन्नत तकनीक का प्रयोग होने लगा। औद्योगीकरण की शुरूआत के साथ खनन में तेजी आई। तीव्र औद्योगिक विकास व जनसंख्या वृद्धि के कारण खनिजों के दोहन की दर बढ़ती गई। लोहे, ताँबे व जस्ते की खपत तो सैकड़ों गुना बढ़ गई है।

वर्तमान में कच्चे माल के रूप में प्रतिवर्ष लगभग 10 अरब टन विभिन्न धातुओं के अयस्क तथा ईंधन का प्रयोग उद्योगों में होता है। अतिदोहन के कारण अनेक खनिजों के भंडार निकट भविष्य में समाप्ति की ओर हैं। यूरोपीय देशों में ताँबा, मैंगनीज, टिन, सीसा, निकल, फॉस्फेट आदि खनिजों की अधिकांश मांग आयात से पूरी होती है। ‘वर्ल्ड वाच’ की ताजा रिपोर्ट में इक्कीसवीं शताब्दी में पेट्रोलियम सहित अनेक खनिजों के विश्वभण्डार समाप्त होने की आशंका व्यक्त की गई है।

हमारी खनिज सम्पदा अकूत या अक्षय स्रोत नही है, जिसका बेरोकटोक अन्धाधुन्ध दोहन जारी रख सकें। विभिन्न खनिज निक्षेप प्रकृति में सीमित परिणाम में हैं। खनिज पदार्थ ऐसे अनव्यकरणीय प्राकृतिक संसाधन हैं, जिनको काम में लेने पर समाप्त हो जाते हैं। पृथ्वी पर खनिजों को बनने में करोड़ों वर्ष लगे हैं। एक बार समाप्त हो जाने पर निकट भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति की कोई संभावना नहीं है। तीव्र औद्योगीकरण के कारण वर्तमान में खनिजों की इतनी माँग हैं, जितनी पहले कभी नहीं रही। यदि इसी गति से खनिजों का दोहन जारी रहा तो आने वाली पीढ़ियों के लिए अनेक खनिजं इतिहास की वस्तु बन जायेंगे। अतः यह आवश्यक है कि खनिज संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग किया जाये। खनिजों का संरक्षण समय की माँग है क्योंकि आर्थिक विकास में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। कुछ खनिज ऐसे हैं जिनका यदि अधिक दुरुपयोग किया जाता है तो एक ओर इनसे पर्यावरण सन्तुलन बिगड़ता है तथा भविष्य में इनकी आर्थिक विकास हेतु आवश्यकता होने पर यह उपलब्ध नहीं हो पायेंगे।

खाद्य (Food) –

मानव की तीन आधारभूत आवश्यकताओं (भोजन, वस्त्र एवं आश्रय में भोजन या आहार प्रमुख है। भोजन प्राप्ति के लिए मनुष्य प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से वनस्पति तथा जन्तुओं पर आश्रित है। अन्न, वनस्पति, फल, दुग्ध पदार्थ, मांस-मछली आदि खाद्य संसाधन होते हैं। भोजन के अभिन्न अंग नमक की प्राप्ति चट्टानों, समुद्रों तथा झीलों से होती है। विश्व जनसंख्या को लगभग 80% भोजन कृषि फसलों से, 18% दूध, माँस आदि से तथा 2% मछलियों से प्राप्त होता है। अर्थात् खाद्यान ही भोजन का मुख्य स्रोत है। मानव को जीवित व स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक भोजन की आपूर्ति न होने पर भुखमरी व कुपोषण जैसी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। वर्तमान में विश्व की लगभग 80 करोड़ जनसंख्या कुपोषण व भुखमरी की शिखार है, जिसमें 20 करोड़ बच्चे हैं। विश्व खाद्य समस्या के लिए प्रमुख रूप से निम्न कारक उत्तरदायी होते हैं –

  1. जनसंख्या वृद्धि
  2. भौगोलिक सीमाएँ
  3. विविधता का अभाव,
  4. पोषक तत्वों का अभाव,
  5. उत्पादकता में अन्तर
  6. क्रयशक्ति व आर्थिक स्तर
  7. प्राकृतिक आपदाएँ,
  8. आहार प्रतिरूप, इत्यादि ।

आधुनिक कृषि विधियाँ अपनाने से देश में हरित क्रान्ति हुई। खाद्यान्र का उत्पादन कई गुना बढ़ गया तथा आत्मनिर्भरता प्राप्त हुई। कृषि के आधुनिक तरीके अपनाने से उत्पादन में तो निरन्तर वृद्धि हुई, किन्तु पर्यावरण को अत्यधिक क्षति हुई। कृषि क्षेत्र में विस्तार से वनों व चरागाहों का संकुचन हुआ। सघन कृषि में भूजल स्तर व मृदा उत्पादकता में ह्रास हुआ। फसलों, सब्जियों, फलों तथा फूलों में लगने वाले कीटों को नष्ट करने के लिए रासायनिक कीटनाशकों का छिड़काव किया जाता है, जिसके गम्भीर दुष्परिणाम होते हैं। कीटनाशी रसायनों में पर्यावरण प्रभावित होता है इसलिए कृषि में कम से कम रसायनों का प्रयोग किया जाना चाहिए।

इससे पर्यावरण सुरक्षा एवं संरक्षण में वृद्धि होगी तथा आर्थिक विकास को सतत् रूप से बनाये रखा जा सकता है।

महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: wandofknowledge.com केवल शिक्षा और ज्ञान के उद्देश्य से बनाया गया है। किसी भी प्रश्न के लिए, अस्वीकरण से अनुरोध है कि कृपया हमसे संपर्क करें। हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश करेंगे। हम नकल को प्रोत्साहन नहीं देते हैं। अगर किसी भी तरह से यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है, तो कृपया हमें wandofknowledge539@gmail.com पर मेल करें।

About the author

Wand of Knowledge Team

Leave a Comment

error: Content is protected !!