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परमाणु शस्त्र, अप्रसार सन्धि (NPT) और CTBT : भारत-जापान मतभेद

परमाणु शस्त्र, NPT और CTBT : भारत-जापान मतभेद

भारत-जापान सम्बन्धों के अध्ययन के लिए यह भी आवश्यक है कि दोनों देशों में परमाणु शस्त्रों, परमाणु अप्रसार सन्धि (NPT) तथा CTBT पर मतभेदों के बारे में चर्चा की जाये। 1974-98 के मध्य यही एक ऐसा बड़ा मुद्दा बना रहा जिसने दोनों देशों के बीच सम्बन्धों को सीमित किया, विशेषतया क्योंकि अमरीका तथा कुछ और देश चाहते थे कि जापान भारत पर परमाणु अप्रसार सन्धि पर हस्ताक्षर करने के लिए प्रभाव डाले तथा अपनी तरफ से दी जाने वाली सहायता के साथ इस सन्धि पर भारत द्वारा हस्ताक्षर किये जाने की शर्त रख दे। जून, 1992 में प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की जापान यात्रा के दौरान जापान के प्रधानमंत्री कीशी मियाजावा भारत के दृष्टिकोण तथा परमाणु अप्रसार सन्धि पर भारत के रवैये का अन्दाजा लगाना चाहते थे। 23 जून, 1992 को अपनी बैठक में जापान के प्रधानमंत्री ने अपने भारतीय प्रतिपक्षी को बताया था कि, “हमने परमाणु अप्रसार सन्धि पर हस्ताक्षर कर दिए हैं, चीन तथा फ्रांस ने भी ऐसा ही किया है, शीत युद्ध के बाद स्थिति में काफी परिवर्तन आया है, जिसमें शस्त्रों में कमी किये जाने की आवश्यकता है। जापान यह जानना चाहेगा कि भारत परमाणु अप्रसार के बारे में क्या सोचता है?” इससे ऐसा लगता था कि जापान भारत पर परमाणु अप्रसार सन्धि पर हस्ताक्षर करने के लिए दबाव डालने की कोशिश कर रहा था।

“भारत विश्व में व्यापक रूप से विध्वंसकारी शस्त्रों के विरुद्ध है। लेकिन वास्तविकता यही है कि ये शस्त्र कुछ देशों के कब्जे में हैं। कुछ ऐसे दूसरे देश भी हैं जो परमाणु शस्त्र बनाने की क्षमता रखते हैं, परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया है। परमाणु युद्ध तो सभी देशों को समान रूप से हानि पहुँचाएगा, चाहे उनके पास परमाणु शस्त्र हैं या नहीं हैं। इस जटिल समस्या का एकमात्र समाधान यही है कि परमाणु शस्त्रों वाले राज्य एक सीमित समय में इन शस्त्रों कोसमाप्त कर दें। परमाणु शस्त्र-निर्माण की दहलीज पर खड़े राष्ट्र यह वायदा करें कि वे दहलीज पार नहीं करेंगे और तब ऐसे शस्त्रों का परीक्षण करने पर तथा ऐसे विखण्डन उपकरणों पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाये और अनुबन्धित समय की समाप्ति पर ऐसा निश्चित बनाया जाये कि विश्व परमाणु शस्त्र रहित हो जाये। इस बात को ध्यान में रखते हुए कि परमाणु अप्रसार सन्धि के कार्यकाल में वृद्धि की समीक्षा के लिए 1995 की बैठक का समय पास आता जा रहा है, सभी देशों के लिए यह देखना उचित तथा तर्कसंगत है कि यह समीक्षा किस प्रकार होनी है तथा परमाणु अप्रसार संधि को किस प्रकार से संशोधित किया जाए।”

परमाणु अप्रसार संधि के सब पर समान रूप से लागू किया जाना चाहिए। परमाणु शस्त्रों के स्वामी देशों को सभी परमाणु शस्त्रों को समाप्त करने के लिए निश्चित अवधि का प्रोग्राम बनाना चाहिए। वर्तमान परमाणु अप्रसार सन्धि के बारे में प्रधानमंत्री ने कहा, “यह हस्ताक्षर करने का समय नहीं है, बल्कि समीक्षा का समय है।’ (जापान के प्रधानमंत्री भी श्री नरसिम्हा राव की ऐसी व्याख्या से प्रभावित हुए लगते थे। परन्तु उन्होंने सुझाव दिया कि भारत तथा जापान परमाणु अप्रसार सन्धि के मुद्दे पर द्विपक्षीय आधार पर बातचीत कर सकते थे। भारतीय प्रधानमंत्री ने इस सुझाव को मान लिया। प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के साथ गये विभिन्न विशेषज्ञों ने यह अनुभव किया कि जापान पश्चिमी जनप्रसार नेटवर्क, अमरीका, तथा G-7 पर यह प्रभाव डालना चाहता था कि वह भारत पर परमाणु अप्रसार सन्धि पर हस्ताक्षर करने के लिए प्रभाव डाल रहा था। ऐसा नहीं था कि “जापानी भारत को परमाणु अप्रसार के लिए प्रतिबद्ध करने या इस पर हस्ताक्षर करवाने में कोई रुचि नहीं रखते थे वे अमरीका के रौब जमाने वाले ढंग को पसन्द नहीं करते थे।”

सम्म प्रधानमंत्री श्री राव ने परमाणु अप्रसार पर भारत की स्थिति को फिर स्पष्ट किया। जापान इंस्टीट्यूट ऑफ इन्टरनेशनल अफेयर्स में दिये गये भाषण में उन्होंने इसे एक ऐसा मुद्दा कहा जो “हमारे लिए सदैव एक मुख्य मुद्दा रहा है। हमें ऐसा अवसर दिखाई दे रहा है जिसे हम समझते हैं, विश्व को केवल इसलिए नहीं गंवा लेना चाहिए कि वे कुछ एक परमाणु देशों के संकीर्ण हितों में है। अगर भूतकाल में परमाणु शस्त्रों के लिए कभी औचित्य था भी, वह अब नहीं है। इसे विस्तार से कहने की आवश्यकता नहीं। भारत में हमने सदैव परमाणु शस्त्र से मुक्त विश्व के उद्देश्य का समर्थन किया है। इसमें वर्तमान के परमाणु शस्त्रों के स्वामी राज्यों की बाध्यकारी वचनबद्धता शामिल हो कि वे अपने सभी परमाणु शस्त्रों को समाप्त कर देंगे। शस्त्र निर्माण कगार पर खड़े देश भी ऐसा ही एक वचन देंगे कि वे कभी दहलीज नहीं पार करेंगे, तथा वचनों को लागू करने के लिए एक स्पष्ट समय के अन्दर-अन्दर जांच पड़ताल होना भी इसमें शामिल हो। इन उद्देश्यों की ओर एक कदम के रूप में हम, इन अप्रयोगीय शस्त्रों का प्रयोग न किये जाने, शस्त्र बनाने के उद्देश्यों के लिए विखण्डनीय वस्तुओं के उत्पादन पर प्रामाणिक रूप से रोक लगाने, तथा सभी प्रकार के परमाणु शस्त्रों के परीक्षण के स्थगन पर विचार करने, तथा व्यापक, रूपी एवं पूर्ण निःशस्त्रीकरण पर बातचीत करने के लिए एक सम्मेलन बुलाने के निर्णय की मांग कर सकते हैं। जापान की तरह भारत भी उन थोड़े से राष्ट्रों में से एक है, जिन्होंने सोच-समझकर परमाणु शस्त्र न बनाना स्वीकार किया है, यद्यपि वे ऐसे शस्त्र बना सकते हैं। हमारे जैसे देशों को ऐसे मुद्दों पर, मानवता की चेतना के रूप में एक स्वर में बोलना चाहिए।”

भारतीय प्रधानमंत्री श्री राव के इन शब्दों ने भारत की परमाणु नीति की योग्य वकालत की तथा व्यापक एवं पूर्ण निःशस्त्रीकरण का समर्थन किया। उन्होंने यह दृढ़ रूप में उद्घोषित किया कि भारत तथा जापान विश्व को परमाणु शस्त्रों तथा परमाणु विस्तार से मुक्त करवाने के लिए कार्य करने का आह्वान करते हैं। बाद में जब CTBT पर हस्ताक्षर करने का मुद्दा उठा तो भारत ने स्पष्ट रूप में इस पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया क्योंकि भारत ने यह माना कि यह सन्धि एक अपूर्ण तथा भेदभावपूर्ण सन्धि थी जिसके द्वारा परमाणु-शस्त्र धारक देश अपने-अपने परमाणु शस्त्रों के भण्डार को सुरक्षित रख कर तथा गुप्त रूप में कम्प्यूटरों तथा प्रोयोगशाला प्रयोगों द्वारा अपनी परमाणु शस्त्र प्रौद्योगिकी को विकसित करने की क्षमता प्राप्त करने के बाद इस सन्धि पर हस्ताक्षर कर रहे थे। CTBT का वास्तविक उद्देश्य था परमाणु शस्त्र धारकों की श्रेष्ठ शक्ति स्थिति को उचित ठहरा कर इसे आने वाले समय के सुरक्षित बनाना। इस सन्धि में परमाणु निःशस्त्रीकरण की प्राप्ति के लिए कोई भी उपक्रम नहीं किया गया था। भारत यह मानता था कि ऐसी सन्धि का लाभ केवल तभी हो सकता था जब इसमें परमाणु निःशस्त्रीकरण की समय सीमाबद्ध योजना शामिल हो क्योंकि CTBT में ऐसी कोई विशेषता नहीं थी, इसलिए भारत ने इस पर हस्ताक्षर न करने की दृढ़ नीति अपनाई। लेकिन जापान का यह मत था कि सभी देशों को CTBT पर हस्ताक्षर कर लेने चाहिए। अतः अब NPT के साथ-साथ CTBT के सम्बन्ध में भी भारत तथा जापान की नीतियों में अन्तर थे लेकिन इस मतभेद को दोनों देश अपनी मित्रता, सहयोग तथा व्यापार के विकास के मार्ग में रुकावट नहीं मानते तथा आपसी सम्बन्धों के तीव्र विकास की ओर अग्रसर हो रहे थे।

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