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नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था (NIEO) की अवधारणा का विकास

नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था (NIEO) की अवधारणा का विकास

नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की अवधारणा का विकास सातवें दशक से आंका जा सकता है। विशेषतया 1 मई, 1974 से क्योंकि इस दिन संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा के छठे विशेष सत्र में, “नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की स्थापना के घोषणा-पत्र” को अपनाया गया तथा तब से इस लक्ष्य की प्राप्ति के कई प्रयास किये जाते रहे हैं। 1974 से पहले, नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थ-व्यवस्था की अवधारणा मात्र सैद्धान्तिक थी तथा नित्य प्रयुक्त होने वाला केवल एक मुहावरा था। इस घोषणा के बाद इसने व्यावहारिक रूप धारण कर लिया। इस घोषणा के द्वारा विद्यमान असमान आर्थिक व्यवस्था को, जो बैटनवुड प्रस्तावों पर आधारित थी, एक ऐसी नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था में परिवर्तन का प्रस्ताव रखा गया जिसमें विश्व की आय तथा साधनों के समान बंटवारे को नई आर्थिक व्यवस्था का उद्देश्य बनाया गया। “असमानताओं तथा विद्यमान अन्याय को दूर करना तथा शीघ्र विकास को प्रोत्साहित करना, वर्तमान तथा भावी पीढ़ियों के लिए शांति तथा न्याय की स्थापना करना तथा संसार में उस सामाजिक न्याय की स्थापना करना जो पूंजीवाद, साम्राज्यवाद तथा तकनीकी निपुणता के एकाधिकार के कई दशकों में लुप्त हो गया है।” संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा इस घोषणा-पत्र को अपनाने के पीछे तृतीय विश्व द्वारा किए गए निरन्तर प्रयल थे। 1955 में बाडुंग अफ्रीका-एशिया सम्मेलन, 1961 में बैलग्रेड, 1964 में काहिरा, 1970 ल्यूसाका तथा 1973 में अलजीरिया में गुटनिरपेक्ष सम्मेलनों ने नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था (NIEO) के पक्ष में अन्तर्राष्ट्रीय जनमत को सुदृढ़ करने की शक्तिशाली भूमिका निभाई। 1974 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में कच्चे माल तथा विकास पर बहस हुई क्योंकि अलजीयर्स के गुटनिरपेक्ष सम्मेलन में इस की सिफारिश की गई थी। संयुक्त राष्ट्र की महासभा में विशेष सत्र (9 अप्रैल से 2 मई, 1974) में आर्थिक व्यवस्था (NIEO) के सम्बन्ध में एक घोषणा की गई। इस समय तक पश्चिमी रवैये में परिवर्तन आ चुका था। संदेहवाद (Skepticism) के साथ तथा सहयोग के प्रति रुचि न रखते हुए, सरकारों ने समझौता वार्ताओं द्वारा राजनीतिक स्थिरता तथा आर्थिक समृद्धि की राह पर अधिक तर्कसंगत ढंग से नया उत्साह दिखाया। कच्चे माल का उत्पादन करने वाले राष्ट्र भी सशक्त हो गए थे। राजनीतिक रूप से वे अपने सम्प्रभु अधिकारों को सुरक्षित करने में सक्षम हो गये थे। आर्थिक रूप से वे अपने हितों के लिए काम करने के योग्य हो गये थे तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर वे सहयोग के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ थे।

संयुक्त राष्ट्र संघ के छठे विशेष सत्र द्वारा अपनाए गए सिद्धान्त

(The Principles adopted by the U.N. Sixth Special Session)

संयुक्त राष्ट्र की महासभा के छठे विशेष सत्र द्वारा अपनाये गए घोषणा-पत्र में निम्नलिखित सिद्धान्त सम्मिलित थे :

  1. अपने प्राकृतिक साधनों तथा आर्थिक कार्यवाहियों पर प्रत्येक राष्ट्र को पूर्ण अधिकार होगा। इससे राष्ट्रीयकरण करने या नागरिकों को इससे स्वामित्व का हस्तान्तरण करना भी शामिल होगा।
  2. सभी राज्यों तथा लोगों को यह अधिकार है कि वे प्राकृतिक साधनों तथा ऐसे अन्य साधनों के जो विदेशी अधिकार में हों अथवा उपनिवेशीय अधिकार में हों अथवा प्रजाति भेदभाव का शिकार हों, की समाप्ति तथा हानि की स्थिति में पूरी क्षतिपूर्ति या मुआवजा पा सकें।
  3. बहु-राष्ट्रीय निगमों की गतिविधियों का नियमन तथा निरीक्षण।
  4. कच्चे माल, प्राथमिक उत्पादन, विकसित राष्ट्रों द्वारा निर्यातित, निर्मित तथा अर्द्ध-निर्मित वस्तुओं के मध्य मूल्यों का सामान तथा न्यायोचित सम्बन्ध ।
  5. बिना शर्त के विकासशील सहायता या वास्तविक साधनों का विकासशील देशों को प्राप्त होना।
  6. विकासशील देशों को विज्ञान तथा तकनीक का हस्तान्तरण तथा उनकी घिसी पिटी तकनीक में सुधार लाना।
  7. सभी राज्यों के लिए प्राकृतिक साधनों को व्यर्थ न गंवाने की आवश्यकता ।
  8. अर्थव्यवस्था को विकसित करने वाले ‘उत्पादक संघों’ को अधिक सुविधाएं प्रदान करना तथा विकासशील राष्ट्रों के विकास को और तेज करना।

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