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नदी का अपरदन-चक्र (Erosion cycle of river)

नदी का अपरदन-चक्र

नदी का अपरदन-चक्र

नदी अपने उद्गम-स्थान से ढाल के अनुसार ही बहती है और उसका आवाह-क्षेत्र सीमित होता है, जिससे उसमें जल की मात्रा बहुत कम होती है। इस भाग के जल में भार भी कम होता है। इस कारण इस भाग में अपरदन कम होता है। ज्यों-ज्यों नदी बढ़ती जाती है, उसका आवाह क्षेत्र विस्तृत होता जाता है, जल की मात्रा बढ़ती जाती है और जल में भार बढ़ जाता है। फलतः नदी द्वारा अपरदन अधिक हो जाता है, किन्तु यह भी एक निश्चित सीमा के पश्चात् रुक जाता है अथवा अपरदन एवं निक्षेपण दोनों साथ-साथ चलने लगते हैं, किन्तु मुहाने के पास जल की मात्रा अधिक होते हुए भी नदी-तल में ढाल नगण्य हो जाता है, जल-प्रवाह मन्द पड़ जाता है। अतः दी अपने द्वारा प्रवाहित पदार्थों को निक्षेप करना प्रारम्भ कर देती है। उसमें अपरदन की शक्ति शेष नहीं रह जाती है। फलतः इस भाग में अपरदन नहीं होता।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि उद्गम तथा मुहाने पर अपरदन नहीं होता। मध्यवर्ती भाग में अपरदन अधिक होता है और यह उद्गम एवं मुहाने की ओर क्रमशः कम होता जाता है। अपरदन की इस विशेषता के कारण नदी-पथ का समढाल धीरे-धीरे अवतल हो जाता है। यह नदी का अपरदन-चक्र (Erosion cycle) कहलाता है। इसमें केवल एक नदी की घाटी का ही अध्ययन किया जाता है, किन्तु सामान्य अपरदन-चक्र (Normal cycle of erosion) में उस सम्पूर्ण क्षेत्र का अध्ययन होता है, जिस पर नदियाँ बहती हैं और स्थल को नया रूप प्रदान करती हैं। वास्तव में भूमि के उत्थापन काल से लेकर उच्च-भूमि के विनाश तक के घटनाक्रम को अपरदन-चक्र की संज्ञा प्रदान की जाती है।

यह चक्र धीरे-धीरे विस्तृत होता है और अपरदन एवं निक्षेपण की भिन्नता के कारण यह प्रतीत होता है कि उद्गम के भाग का ढाल अधिक है। ऊपरी भाग में अपरदन अधिक होता है और निचले भाग में निक्षेपण की प्रधानता रहती है। इस प्रकार अपरदन क्रमशः ऊपर बढ़ता जाता है।

नदी का परिवहन

नदी अपरदन के पदार्थों को एक स्थान से दूसरे स्थान को बहा ले जाती है। यह नदी का परिवहन (Transportation) कहलाता है। नदी के परिवहन में अपने अपरदन के सिवाय अन्य साधनों से भी मार्ग में पदार्थ प्राप्त होते हैं। इनमें भूमि स्खलन (Land slides), अवपात हिमानी अवधाव (Slumping avalanche) तथा वायूढ़ पदार्थ अधिक होते हैं। प्रकृति में नदियाँ परिवहन के प्रमुख साधन हैं। नदियों द्वारा परिवहन की मात्रा का अनुमान गंगा, ब्रह्मपुत्र एवं सिन्धु नदियों द्वारा क्रमशः नौ एवं दस हजार मीटर अवसाद प्रतिदिन बहा ले जाने की शक्ति से सहज किया जा सकता है।

नदियाँ विभिन्न आकार एवं प्रकार के पदार्थों का परिवहन करती हैं। परिवहन की पाँच विधियाँ हैं- कर्षण (Traction), उत्परिवर्तन (Salation), विलम्बन् (Suspension), घोल (Solution) तथा प्लावन (Eloatation), किन्तु परिवहन तीन प्रकार के होते हैं-

  • जल में घुला हुआ पदार्थ,
  • जल में तैरता हुआ पदार्थ,
  • जल में खिसकता एवं लुढ़कता हुआ पदार्थ ।

इन उपर्युक्त पदार्थों के परिवहन में निम्न तथ्यों का प्रभाव पड़ता है-

  • नदी-धारा का वेग
  • नदी – धारा की प्रवृत्ति
  • परिवहन पदार्थों का आपेक्षिक घनत्व ।
  1. नदी- धारा का वेग-

    एक समान बनावट एवं घनत्व के विभिन्न आकार के शिलाखण्डों में नदी द्वारा परिवर्तित सबसे बड़े शिलाखण्ड के व्यास और धारा की गति में सम्बन्ध होता है। नदी की गति कम हो जाने पर इसके विपरीत फल होता है। गति के अनुपात से उसकी परिवहन की शक्ति अधिक कम हो जाती है। यही कारण है कि बहाव के तनिक अवरुद्ध होने पर निक्षेपण प्रारम्भ हो जाता है।

  2. नदी-धारा की प्रवृत्ति-

    आलम्बित सूक्ष्म कण नदी धारा द्वारा सरलता से प्रवाहित होता है। नदी-ढाल में पड़े शिलाखण्ड धीरे-धीरे आगे खिसकते हैं और इसके लिए उन्हें थोड़ा ऊपर उठना पड़ता है। कहीं-कहीं भँवरदार धाराएँ इन्हें ऊपर उठा देती हैं और उनकी स्थिति में थोडा भी परिवर्तन होने पर वे शिलाखण्ड आगे की ओर खिसका दिये जाते हैं।

नदियों के धारा-पथ के किनारे ढालू होते हैं। इसलिए किनारों का अवसाद आकर्षण शक्ति से प्रभावित होकर केन्द्र भाग में चला जाता है और नदी-तल को ऊबड़-खाबड़ बना देता है। मध्यवर्ती भाग में धारा-गति सबसे अधिक तीव्र रहती है, क्योंकि इस भाग में अवरोध कम होते हैं। तलीय तथा तटीय भागों में अवरोध अधिक होता है।

  1. परिवहन पदार्थों का अपेक्षिक घनत्व-

    प्रत्येक वस्तु का भार पानी में डूबने पर कम हो जाता है। इसी कारण जल से भरे हुए घडे से का पानी जल के भीतर से सुविधापूर्वक निकलता है, और कम शक्ति लगती है, किन्तु घड़े को पानी के ऊपर खींचने में अधिक शक्ति लगानी पड़ती है। जल की इस प्रकृति के कारण कम आपेक्षिक घनत्व वाले ठोस पदार्थ जल में सरलतापूर्वक लटकते रहते हैं और जलधारा द्वारा दूर तक बहा दिये जाते हैं। भारी कण नदी-तल में एकत्र हो जाते हैं, फिर प्लवनशीलता के कारण उनके भार में कमी रहती है, अतएव वे जलधाराओं पर बोझ डालते हैं और दूर तक बहा दिये जाते हैं।

नदी का अपहरण (River Capture)

प्रारम्भिक अवस्था में नदियाँ अपना पथ निश्चित करती हैं, किन्तु बाद में अपने उद्गम की ओर काटना प्रारम्भ करती हैं। इस प्रकार जल-विभाजक कट जाता है। ऐसी दशा में एक नदी जल-विभाजक के दूसरे पक्ष में बहने वाली नदी के ऊपरी भाग के प्रवाह को अपने प्रवाह क्षेत्र में सम्मिलित कर लेती हैं। यह कार्य नदी का अपहरण कहलाता है।

जब दो नदियाँ समीप में बहती हैं तो अपने शीर्ष की ओर अधिक कंटने वाली नदी दूसरी को, जो अभिशीर्ष अपरदन कम करती है, अपने में मिला लेती है। कम अपरदन वाली नदी का प्रवाह अधिक अपरदन वाली नदी की ओर मुड़ जाता है अर्थात् कम अभिशीर्ष अपरदन करने वाली नदी दूसरी नदी के द्वारा अपहरित कर ली जाती है। नदी का अपहरण जल-विभाजक के खिसकाव पर निर्भर करता है। यह प्रक्रिया भूमि की बनावट, वर्षा की मात्रा तथा भूमि के ढाल पर निर्भर करती है। यदि जल-विभाजक के एक पक्ष पर मुलायम शैलें होती हैं, वर्षा अधिक होती है और ढाल भी अधिक रहता है तो जल-विभाजक शीघ्रता से कटता है। यदि जल-विभाजक के दूसरे पक्ष में कठोर शैलें, वर्षा की कम मात्रा तथा कम ढाल हों तो जल-विभाजक कम करता है। किसी एक तथ्य में भी अन्तर होने पर कटाव में अन्तर पड़ जाता है।

नदी में स्त्रोत के अपहरण से प्रवाह-पथ उलट जाता है और जल विपरीत दिशा में बहने लगता हैं, क्योंकि अपहरित नदी का जल अपहरण करने वाली नदी में प्रवाहित होने लगता है। नदी का अपहरण उस दशा में भी सम्भव होता है जब कई मुख्य नदियाँ एक-दूसरे के समानान्तर बहती हैं और सहायक नदियाँ एक-दूसरे की विपरीत दिशा में बहती हैं और सहायक नदियों का जल-विभाजक एक दिशा में खिसकने लगता है।

ऐसी दशा में एक सहायक नदी दूसरी सहायक नदी के जल को आत्मसात् करने लगती है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि अपहरण करने वाली सहायक नदी अपहरित सहायक नदी के पूर्ण प्रवाह को ग्रहण कर लेती हैं और कालान्तर में मुख्य नदी के प्रवाह को भी अपहरण कर लेती हैं। कोसी नदी ने अरुण नदी का अहरण किया है। इंग्लैण्ड की आऊज नदी ने निड, उर तथा स्वेल नदियों का क्रम से अपहरण किया है।

नदी अपहरण में अनुपपन्न नदी में, जो घाटी की चौड़ाई देखते हुए बहुत छोटी होती है, पवन-विदर (Wind gap), अपहरण मोड़ आदि विशेष चिन्ह परिलक्षित होते हैं।

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