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मुगल काल के कृषि आधारित विभिन्न उद्योग

मुगलकालीन कृषि-आधारित उद्योग

भूमिका-मध्यकाल में अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार कृषि थी और इसके साथ ही उद्योग का विकास संभव हो सका। उद्योग का शाब्दिक अर्थ है वह स्थान जो साधारणतयः जनसामान्य के प्रयोग के लिये कार्यशालाएं स्थापित की गई हों। मध्यकाल में दो प्रकार के उद्योग सम्मिलित थे। प्रथम कृषि पर आधारित और द्वितीय गैर कृषि पर आधारित। मुगलकाल के शाही कारखानों में बादशाह उसके परिवार तथा उच्च मनसबदारों के आवश्यक आवश्यकता की वस्तुओं को निर्मित किया जाता था। इसके अतिरिक्त गाँवों एवं कस्बों एवं शहरों में भी उद्योग केन्द्र थे जो अनेकों प्रकार की वस्तुओं का उत्पादन करते थे। रेशम, सूत, नील एवं शोरे की माँग विदेशों में होने के कारण यह उद्योग अठारहवीं शताब्दी में अपनी सर्वोच्चता को प्राप्त किया था।

कृषि एवं हस्त-उद्योग

कृषि उत्पादन में विकास एवं उत्पादन की प्रकृति का प्रभाव वस्तुगत उत्पादन के परिणाम एवं स्वभाव पर अपेक्षित हैं। मध्यकालीन ग्रामीण व्यवस्था के अन्तर्गत उन सामाजिक एवं आर्थिक आवश्यकताओं को ढूँढ़ा जा सकता है जिनके कारण कृषि पर आधारित हस्त उद्योग एवं बाजार के लिए उत्पादित वस्तुओं के उत्पादन का क्रम साथ-साथ चल रहा था। उत्पादन की इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण परिवर्तन सत्रहवीं शताब्दी में स्पष्टतः देखा जा सकता है, जब उत्पादन का लक्ष्य स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति से उठकर विस्तृत माँग की पूर्ति हो गया था। यह परिवर्तन केवल उत्पादन की मात्रा में वृद्धि तक ही सीमित न होकर नवीन उद्योग धन्धों की स्थापना एवं व्यावसायिक दक्षता के क्षेत्र में हुआ जिसने भारतीय आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाला।

व्यापारिक वस्तुओं का उत्पादन प्राचीन भारतीय समाज में पूर्णतः विकसित था तथा विकास का यह क्रम मध्यकाल में भी जारी रहा। अमीर खुसरो, इब्नबतूता, शिहाबुद्दीन अलउमरी आदि के लेखों में सल्तनतकालीन दस्तकारी तथा उद्योग-धन्धों के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। वस्तुतः मुगलकालीन वस्तु-उत्पादन एवं उद्योगों के विषय में हमें अन्य स्रोतों से भी जानकारी प्राप्त होती है। जिनमें विदेशी यात्रियों के विवरण तथा फारसी व स्थानीय स्रोत शामिल हैं।

दस्तकारी एवं लघु उद्योगों की उत्पादन सीमा स्वरूप व उनके व्यावसायिक महत्व को दृष्टि में रखते हुए सुविधा की दृष्टि से उद्योगों को दो भागों में विभक्त किया गया है-प्रथम वर्ग में वे उद्योग आते हैं जो कृषि-प्रधान थे तथा जिनमें उत्पादन स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये किया जाता था। द्वितीय में ऐसे वस्तु-उत्पादन उद्योग थे जिनका उत्पादन दूरस्थ बाजारों की पूर्ति के लिए होता था। चिचैरो न अपने अध्ययन में लघु उद्योग व दस्तकारी उत्पादन को दो भागों में वर्गीकृत किया है। प्रथम-बाजार के लिए दस्तकारी उत्पादन जिसके साथ किसानों द्वारा कृषि नियमितता प्रधान थी तथा द्वितीय व्यावसायिक दस्तकारों द्वारा शहरों व कस्बों में वस्तुओं का उत्पादन। वास्तव में प्रथम वर्ग में कृषि कार्य दस्तकारी से जुड़ा हुआ था तथा वस्तुओं का उत्पादन स्थानीय माँग की पूर्ति के लिए होता तथा तथा कृषि उत्पादन पर आधारित था। यह स्थिति सामान्यतः ग्राम-समाज के स्वावलम्बी होने की अवस्था को सूचित करती है। द्वितीय वर्ग में वे उद्योग आते हैं जिनका संचालन व्यावसायिक दस्तकारों द्वारा तथा उत्पादन व्यापार की दृष्टि से किया जाता था।

ग्राम-समाज में परम्परागत रूप से हस्त-उद्योग कृषि के साथ जुड़े हुए। ग्राम-समाज के अध्ययन में उन दस्तकारों का उल्लेख किया जा चुका है जो प्रमुखतः कृषक वर्ग की आवश्यकता की पूर्ति के लिए विभिन्न वस्तुओं का उत्पादन करते थे। इनमें सुनार, लुहार, खाती, चमार, कुम्हार आदि वर्ग दस्तकारी से संबंधित विभिन्न कार्यों में दक्ष थे तथा स्थानीय माँग के अनुसार वस्तुओं का निर्माण करते थे। यद्यपि स्थानीय गृह उद्योग का यह स्वरूप मध्यकाल में बना रहा, तथापि मुगलकाल में मौद्रिक अर्थ के विकास व विस्तार तथा कृषि उत्पादन की प्रकृति में परिवर्तन के परिणामस्वरूप कृषि पर आश्रित गृह-उद्योगों का स्थान धीरे-धीरे व्यावसायिक वस्तु उत्पादन ने ले लिया। दस्तकारी उद्योग के अन्तर्गत यह विशेषता मुगलकाल में स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है।

अकबर एवं बाद के मुगल शासकों के काल में ऐसे बहुत से लघु उद्योगों का अस्तित्व था जिनमें कृषि उत्पाद को उपभोग के लिए अन्य वस्तु के रूप में डाला जाता था। कुल मिलाकरbइन उद्योगों का अत्यधिक महत्व था क्योंकि ये कृषि उपज से प्राप्त कच्चे माल को उपभोग की वस्तु के रूप में डालते थे। सर्वप्रथम खाद्यान्न के सन्दर्भ में सम्भवतः यह स्वीकार किया जा सकता है कि यूरोपीय प्रभाव से पूर्व यहाँ पर विशालकाय आटा मिलें नहीं थीं। आटा व रोटी बनाना पूर्णतः गृहकार्य का अंग था। वस्तुतः सूरत एवं अन्य समुद्रतटीय बन्दरगाहों पर जहाजों में प्रयोग के लिए अनाज बड़ी में मात्रा में पीसा जाता था। इसी तरह सैनिकों, यात्रियों आदि के लिए भी यह व्यवस्था विभिन्न क्षेत्रों में देखी जा सकती है, किन्तु इस व्यवस्था को सुसंगठित उद्योग का रूप देना ठीक न होगा।

सम्भवतः अनाज व्यापारियों द्वारा अपनी आवश्यकता के अनुसार कुछेक औरतों को आटा पीसने के लिए कार्य सौंपा जाता था जो अपने घर की चक्की पर यह कार्य सम्पन्न करती थीं। यही व्यवस्था गुड़.के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। किसानों द्वारा अपने यहाँ पैदा किये गन्ने से गुड़ तैयार किया जाता था, जिसमें प्रारम्भ में घरेलू आवश्यकता की पूर्ति की जाती थी। वस्तुतः खाण्ड (शक्कर) उत्पादन का आधार कृषि उद्योग के रूप में होते हुए भी यह वस्तु-व्यापार के रूप में सल्तनत काल में ही विकसित हो चुकी थी। इब्नबतूता ने अपने कन्नौज आवास के समय यहाँ के उत्पादन में शक्कर का उल्लेख विशेष तौर से किया है। उसके अनुसार ‘यहाँ (कन्नौज नगर) वस्तुओं का मूल्य बड़ा सस्ता तथा कम है और शक्कर बड़ी मात्रा में होती है। शक्कर यहाँ से देहली भेजी जाती है।

चीनी

मुगलकाल में चीनी उद्योग के विकास एवं उत्पादन की प्रकृति के विषय में अधिक जानकारी प्राप्त होती है। शक्कर अथवा खाण्ड उद्योग में बंगाल का स्थान प्रमुख था तथा तटीय क्षेत्रों के पास का मलाबार तथा गंगा के बहाव क्षेत्रों को लेकर दिल्ली तक शक्कर का उत्पादन होता था। शक्कर लाल या भूरी बूरे वाली, अहमदाबाद में प्राप्त की जा सकती थी जबकि अपेक्षाकृत अधिक कीमती मिश्री का उत्पादन मुख्यतः लाहौर के समीपवर्ती क्षेत्र में होता था। मिश्री का उत्पादन अन्य नगरों में भी देखने को मिलता है। शक्कर के उत्पादनकर्ता गन्ने तथा गन्ने के रस से गुड़ व बूरा या खाण्ड बनाते थे। बारबोसा ने, जो पुर्तगाल का व्यापारी था, सोलहवीं शताब्दी में बंगाल के कस्बों में शक्कर के उत्पादन का वर्णन करते हुए लिखा है कि यहाँ पर गन्ने के बड़ी मात्रा में अच्छी सफेद शक्कर पैदा की जाती है किन्तु इसे किस तरह दबाना (निचोड़ना) तथा दानेदार बनाना चाहिये, के विषय में ये लोग नहीं जानते’।

सत्रहवीं एवं अठारहवीं शताब्दी के प्राप्त दस्तावेजों से यह स्पष्ट है कि शक्कर का उत्पादन व्यवसाय की दृष्टि से विस्तृत हो चला था। वस्तुतः शक्कर एवं गुड़ जहाँ सामान्य प्रयोग की वस्तु समझी जाती थी, वहीं मिश्री विशिष्ट प्रयोग की।

गुड़

तेल निकालने का उद्योग गुड़ उद्योग की स्थिति से व्यावसायिक उद्योग की स्थिति में पहुंच गया था। दक्षिणी भारत से प्राप्त चौदहवीं से सोलहवीं शताब्दियों के शिलालेखों में ग्रामीण क्षेत्रों में घानियों पर कर लगने का वर्णन मिलता है। इस तरह का विवरण हमें सल्तनत तथा अपेक्षाकृत विस्तृत विवरण मुगलकाल में उत्तरी भारत के संदर्भ में मिलता है। तेल निकालने का कार्य व्यावसायिक लोगों द्वारा किया जाता था जिन्हें जेली कहा जाता था। व्यावसायिक फसलों जिनमें तिल व सरसों शामिल थी, के विस्तार के साथ ही तेल उद्योग का विस्तार भी स्वाभाविक था। तेल उत्पादन की मात्रा में वृद्धि के कारण सत्रहवीं व अठारहवीं शताब्दी में तेल आन्तरिक व्यापार की महत्वपूर्ण वस्तु बन गयी थी। नमक उत्पादन भी इसी तरह कृषि गृह-उद्योग से व्यावसायिक उद्योग के रूप में विकसित हुआ था।

तम्बाकू

सत्रहवीं व अठारहवीं में तम्बाकू उत्पादन महत्वपूर्ण उद्योग के रूप में विकसित हो रहा था। अकबर के शासन काल तक तम्बाकू की पौध के विषय में राजस्व विभाग को ज्ञान नहीं था और इस तरह सोलहवीं शताब्दी के अन्त तक इसके उत्पादन की परिधि नकारात्मक थी। जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है, भारत में तम्बाकू की पौध पुर्तगालियों द्वारा लाई गयी थी तथा सर्वप्रथम 1613 ई० में इसकी पौध गुजरात में प्राप्त की गई, किन्तु उत्पादन की जानकारी प्राप्त नहीं हुई थी। वस्तुतः कुछ समय पश्चात् ही तम्बाकू में अप्रत्याशित विकास का क्रम जारी हो गया था।

नील

कृषि-प्रधान उद्योगों में रंग की पौध तथा नील का स्थान महत्वपूर्ण है। सोलहवीं व सत्रहवीं शताब्दियों में वस्त्रों को सफेद करने व रंगने के लिए किसानों द्वारा प्राकृतिक रंगों का उत्पादन महत्वपूर्ण व्यवसाय था। प्राकृतिक रंगों के उत्पादन में प्रसिद्ध लाल रंग का उत्पादन उल्लेखनीय है जिसकी सर्वश्रेष्ठ किस्म निजामपट्टम के आसपास होती थी। इसके प्रयोग से वस्त्रों को गहरा लाल किया जाता था जिससे कारोमंडल तटीय वस्त्रों में अद्वितीय सुन्दरता निखर आती थी। सत्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ से ही नील का उत्पादन स्थानीय माँग तक सीमित न रहकर विदेशी व्यापार का भाग बन गया था। परवर्ती काल में इसमें निरन्तर वृद्धि होती रही। भारतीय उत्पादन में नील पहली वस्तु थी जिसकी माँग यूरोपीय व्यापारियों ने की थी। डच कम्पनी के व्यापारियों 1601 ई० में सूरत पहुँचने के पश्चात् नील को स्थानीय उत्पादनों में सबसे महत्वपूर्ण बताया था। 1607 ई० में वान डेसें ने नील खरीदने की प्रक्रिया प्रारम्भ कर दी थी। विलियम फिच द्वारा 1609 ई० में सूरत में इंगलैंड को भेजी गई अपनी रिपोर्ट में तथा वहाँ से प्राप्त आदेश से यह स्पष्ट है कि भारतीय व्यापार के विकास में इंग्लिश कम्पनी किसी अन्य वस्तु की अपेक्षा नील के व्यापार पर अधिक आश्रित थी। नील का उत्पादन भारत में विस्तृत क्षेत्र में होता था जिसमें गंगा का समतल मैदान, सिन्धु, गुजरात, दक्षिण तथा बंगाल शामिल थे। प्रारम्भ में सामान्यतः नील का उत्पादन स्थानीय आवश्यकता की पूर्ति के लिए होता था तथा इसके निर्यात के लिए सर्वप्रथम सरखेज तथा लाहौरी नील का ही उल्लेख मिलता है। अहमदाबाद के पास स्थित कस्बा सरखेज नील के उत्पादन का एक महत्वपूर्ण केन्द्र था जहाँ से नील का निर्यात अरब खाड़ी के देशों को किया जाता था। कुछ नील जो लाहौरी के नाम से जानी जाती थी व दोआब क्षेत्र से, किन्तु अधिकांशतः बयाना, भरतपुर के पास स्थित क्षेत्र से आती थी। समुद्र के रास्ते से इसका पहले ही निर्यात किया जाता था तथा इसे लाहौरी इसलिए कहा जाता था क्योंकि जिन कारवों में यह ले जाई जाती थी, वे लाहौर के होते थे बयाना के आसपास पैदा होने वाली नील शुद्धता एवं श्रेष्ठता के लिए प्रसिद्ध थी तथा विदेशों को निर्यात की जाती थी। इसका आकार गोल होता था। इसके कारण सरखेज की तीन पौंड नील बयाना की 2 पौंड के बराबर समझी जाती थी।

नील की तरह ही शोरा का उत्पादन मुगलकाल में किसानों द्वारा संचालित उद्योगों में से था। शोरा का प्रयोग मुख्यतः बारूद बनाने के काम में होता था। इसका उत्पादन गुजरात, बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश के बहुत से भाग, आन्ध्रप्रदेश, मैसूर, आगरा के पास के इलाके आदि स्थानों में प्रमुख रूप से होता था। गुजरात में इसका उत्पादन मुस्लिम बोहरा किसानों द्वारा किया जाता था। शोरा बनाने की विधि के विषय में पेल्सर्ट ने विस्तार से लिखा है। ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय शोरा की यूरोपीय व्यापारिक कम्पनियों द्वारा माँग से पूर्व शोरा की माँग स्थानीय बाजार विशेषकर मुगल कारखानों तक ही सीमित थी। किन्तु यूरोप में इसकी माँग में वृद्धि होने के साथ 17वीं शताब्दी में इसके उत्पादन की उपयोगिता का महत्व बढ़ने लगा था।

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