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मई 1996 के बाद से लेकर वर्तमान समय तक भारत-चीन सम्बन्ध

मई 1996 से वर्तमान समय तक भारत-चीन सम्बन्ध

भारत-चीन सम्बन्धों की प्रकृति तथा प्रगति पर जियांग जेमिन की 1996 की भारत यात्रा के प्रभाव

1988 के बाद से आरम्भ हुई भारत-चीन सम्बन्धों को सामान्य बनाने की प्रक्रिया जिससे 1991-96 के दौरान दोनों देशों में आर्थिक तथा व्यापारिक सम्बन्धों में काफी प्रगति हुई, को एक अच्छा उत्साह तब मिला जब चीन के राष्ट्रपति तथा चीन के साम्यवादी दल के सबसे अधिक शक्तिशाली नेता, श्री जियांग ज़ेमिन ने नवम्बर1996 में तीन दिन की भारत यात्रा की। यह चीन के राष्ट्रपति द्वारा की गई पहली यात्रा थी तथा इसने भारत-चीन सम्बन्धी की प्रक्रिया को काफी अच्छी शक्ति प्रदान की। इस यात्रा ने दोनों देशों के नेताओं को आपसी सम्बन्धों पर विस्तृत बातचीत करने का अवसर प्रदान किया जिससे दोनों देशों में चल रही विश्वास निर्माण प्रक्रिया को और बल मिला तथा आर्थिक एवं व्यापार सम्बन्धों के और अपनी-अपनी सैनिक क्षमता का प्रयोग न करने का वचन दिया। एक ऐतिहासिक समझौता विकास के लिये कुछ कदम उठाने का उपक्रम किया गया। दोनों देशों ने एक दूसरे के विरुद्ध किया गया जिसके अन्तर्गत वास्तविक नियंत्रण रेखा पर एक दूसरे पर आक्रमण न करने और इसको पार न करने का निर्णय किया गया। भारत-चीन सीमा पर से सैनिकों तथा शस्त्रों को कम करने का निर्णय किया गया तथा सैनिक तनावों को सीमित करने तथा सितम्बर 1993 के समझौते (हिमालय की झगड़े वाली सीमा पर शांति व्यवस्था बनाये रखने का समझौता) को लागू करने के लिये विस्तृत दिशा निर्देश अपनाए गये। ये थे-

  1. एक डिवीजन (1500 से ऊपर) के सैनिक अभ्यासों को वास्तविक नियंत्रण रेखा को पार नहीं किया जाना था।
  2. सैनिक अभ्यास के सम्बन्ध में एक-दूसरे को पूर्व सूचना देना।
  3. लड़ाकू हवाई जहाजों को वास्तविक नियन्त्रण रेखा को 10 कि०मी० के अन्दर उड़ान भरने की मनाही की गई।
  4. वास्तविक नियंत्रण रेखा के 2 कि०मी० के अन्दर, कुछ प्रतिवादों सहित फायरिंग धमाके तथा शिकार करने की मनाही।
  5. जब दोनों देशों के पैट्रोल करने वाले दस्ते (Patrols) अचानक एक दूसरे के सामने आ जायें तो दोनों अपने आप पर रोक लगाएंगे तथा इसके दोनों पक्षों में एकदम विचार-विमर्श किया जायेगा।
  6. निश्चित जगहों पर सीमा कमाण्डरों की झण्डा बैठकों की व्यवस्था को बनाए रखना तथा इनका विस्तार करना।
  7. सीमा पर बैठकों की जगहों पर टेलीफोन सेवाओं की व्यवस्था करना।
  8. सीमा अधिकारियों के मध्य तथा उच्चस्तरीय सम्पर्क स्थापित करना।
  9. इस यात्रा के दौरान एक 11 सूत्रीय समझौता किया गया जिस पर दोनों देशों के विदेश मन्त्रियों ने हस्ताक्षर किये। यह स्वीकार किया गया कि परस्पर सह-अस्तित्व, समानता तथा सुरक्षा के सिद्धांत के आधार पर वार्तालाप के द्वारा नियंत्रण रेखा पर सहमत इलाकों में सैनिक तथा शस्त्रों के सीमाकरण (Ceiling) का निर्णय लिया जायेगा।

दोनों देशों ने यह बात दोहराई कि सीमा के प्रश्न पर एक न्याययुक्त, आयात में स्वीकृत समाधान किया जायेगा तथा वास्तविक नियंत्रण रेखा का सम्मान किया जायेगा। इस यात्रा के फलस्वरूप सीमा विवाद सुलझा तो नहीं, ऐसी आशा भी नहीं थी, परन्तु यथापूर्वक स्थिति को बनाए रखने के निर्णय का सब ने स्वागत किया क्योंकि इस निर्णय ने भारतीय स्थिति/पक्ष को भी यथापूर्वक बनाए रखा। नियंत्रण रेखा को निश्चित रूप में ठीक-ठाक स्पष्ट करने के निर्णय को भी एक सकारात्मक कदम माना गया।

बहुत से विचारकों ने इन सभी निर्णयों को भारत तथा चीन के मध्य एक प्रकार आक्रमण न करने के समझौते (No War Pact) की संज्ञा दी। इससे भारत द्वारा किये जा रहे सैनिक खर्चे में कटौती की सम्भावना पैदा हुई और भारत द्वारा कश्मीर घाटी में अधिक दृढ़ कार्यवाही करने की आशा भी पैदा की। चीन ने यह भी माना कि कश्मीर के मुद्दे को भारत तथा पाकिस्तान द्वारा मित्रतापूर्ण वार्तालाप से हल कर लेना चाहिए। चीन के ऐसे मत ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि अब यह देश भारत के साथ सम्बन्धों को अधिक महत्त्व दे रहा था। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अस्थाई सदस्यता के लिये जब भारत तथा जापान में चुनावी मुकाबला हुआ तो चीन ने भारत के पक्ष में मतदान किया। तथा इसने भी इसी तथ्य की पुष्टि की थी।

फिर दोनों देशों में आपसी द्विपक्षीय आर्थिक तथा व्यापार-सम्बन्धों में भी वृद्धि करने का निर्णय किया गया तथा यह माना कि भारत-चीन के आर्थिक सम्बन्ध सीमा विवाद को हल करने के अतिरिक्त सहायक सिद्ध हो सकते थे।

केन्द्रीय एशिया के संसाधन अमीर क्षेत्र में तेल तथा गैस को प्राप्त करने के सम्बन्ध में भागीदारी के लिये भारत तथा चीन ने अक्तूबर 1997 में एक समझौता किया। दोनों देशों द्वारा उठाया गया यह सांझा कदम अंतर्राष्ट्रीय तेल खोज कार्य में एक कर्ता बनने के लिये किया गया। भारत तथा चीन में व्यापारिक सम्बन्ध की सम्भावना इस समझौते से दृढ़ हुई।

भारतीय नई परमाणु नीति (परमाणु-शस्त्र) तथा भारत-चीन सम्बन्ध

मई 1998 में भारत-चीन सम्बन्धों में तनाव पैदा हो गये जब भारत ने 11-13 मई, 1998 को पाँच परमाणु परीक्षण किये तथा अपने आप को परमाणु शस्त्र धारक देश घोषित कर दिया। ऐसा नीति परिवर्तन करते समय भारत ने परमाणु शस्त्र धारक देश बनने के अपने निर्णय के पक्ष में जिन सुरक्षा कारणों को उद्धृत किया, वे थे-चीन की परमाणु शक्ति, पाकिस्तान की चोरी से विकसित परमाणु शस्त्र क्षमता तथा चीन-उत्तरी कोरिया-पाकिस्तान का परमाणु तथा मिसाइल विकास सहयोग। भारत के रक्षा मन्त्री श्री जार्ज फर्नांडीज ने तो चीन को शत्रु नम्बर एक की संज्ञा भी दे डाली। इससे चीन की सरकार ने कठोर रूप में भारत की आलोचना की। भारतीय परमाणु विस्फोटों को विश्व शान्ति, विशेषकर दक्षिण एशिया में शांति का दुश्मन बतलाया। यह भी कहा कि नई भारतीय परमाणु नीति पाकिस्तान को परमाणु शस्त्र बनाने के लिये विवश करेगी तथा दक्षिण एशिया में परमाणु शस्त्र नीति को समाप्त किये जाने के लिये तथा NPT और CTBT पर हस्ताक्षर करने के लिए भारी दबाव डालने की नीति अपनाई।

सितम्बर 1999 में एसियान क्षेत्रीय फोरम की सिंगापुर में बैठक के समय तथा अक्तूबर 1999 में संयुक्त राष्ट्र महासभा के अधिवेशन के समय चीन तथा भारत के विदेश मन्त्रियों के बीच उच्चस्तरीय एवं सकारात्मक वार्तालाप हुआ। नवम्बर 1999 में भारत-चीन विशेषज्ञ समूह, जो 1996 में संयुक्त कार्य समूह की सहायता के लिये बनाया गया था, की एक बैठक हुई। इस के साथ ही दोनों देशों ने पूर्वी क्षेत्र के क्षेत्रीय सैनिक कमांडरों के मध्य डॉट-लाइन संचार व्यवस्था की स्थापना की ताकि प्रतिदिन की सूचनाओं का आदान-प्रदान किया जा सके। यह एक विश्वास-निर्माण का कदम था।

वास्तव में भारत तथा चीन ने 21वीं शताब्दी में प्रवेश इस प्रतिबद्धता से किया कि दोनों देश आपसी सम्बन्धों तथा व्यापार को बड़ी मात्रा में विकसित करेंगे। करमापा घटना को सतर्कता से सम्भाला गया तथा इसे आपसी सम्बन्धों पर हावी नहीं होने दिया गया।

भारत तथा चीन इस आवश्यकता को स्वीकार किया कि-

  1. एक बहुकेन्द्रीय विश्व को प्राप्त किया जाए तथा किसी एक देश को विश्व व्यवस्था पर हावी नहीं होने दिये जाने के लिये प्रयास किया जाये।
  2. अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद तथा धार्मिक कट्टरवादिता की बढ़ रही बुराई का सामना करने के लिये सहयोग किया जाये।
  3. द्विपक्षीय व्यापार की प्रकृति एवं क्षेत्र को काफी विकसित किया जाये।
  4. इसकी तथा कोसोवो संकट के सम्बन्ध में पश्चिमी एवं अमरीकी कार्यवाही के सबक सीखा जाये।

चीन यह चाहता है कि दक्षिण एशिया में अमरीकी प्रभाव का अधिक विकास न हो। भारत की अमरीका के साथ बढ़ती मित्रता तथा सहयोग चीन के हितों को प्रभावित कर सकता था। देश के अन्दर विद्यमान लोकतंत्रीकरण की मांग पर नियंत्रण बनाए रखने के लिये चीन यह चाहता है कि उसके पड़ोस में अमरीका का प्रभाव बढ़ना नहीं चाहिए। भारत के साथ सम्बन्धों का विकास करके चीन इस लक्ष्य को पूर्ति करने का यल कर सकता है। चीन अब यह भी समझता है कि कश्मीर के मुद्दे के अन्तर्राष्ट्रीयकरण से उसकी भूमिका पर भी प्रभाव पड़ेगा क्योंकि इस दशा में उसे एक निश्चित निर्णय लेना पड़ेगा। दक्षिण एशिया में परमाणु शस्त्रों के आगमन के बाद यह आवश्यक हो गया है कि भारत तथा पाकिस्तान और भारत तथा चीन में शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व दृढ़ रूप में विद्यमान रहे। फिर चीन भी अब अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद तथा धार्मिक कट्टरवादिता की बढ़ रही चुनौती को नियंत्रित करने के लिये बाध्य अनुभव कर रहा है। क्योंकि इनसे उसकी आंतरिक समस्याएं बढ़ सकती हैं।

नई शताब्दी में विकसित हो रहे भारत-चीन सम्बन्धों को अधिक गति देने का एक अन्य प्रयास भी जुलाई 2000 में हुआ जब चीन के विदेश मन्त्री चंग जीक्सुन ने भारत की यात्रा की तथा विदेश मन्त्री श्री जसवंत सिंह ने वार्तालाप किया। यह निर्णय किया गया कि दोनों देशों को अब ऐसी कार्यवाही करनी थी जिससे अब सीमा विवाद का समाधान हो जाये। दोनों देशों के विशेषज्ञों ने अब जल्दी-जल्दी मिलना था ताकि मध्यक्षेत्र में वास्तविक नियंत्रण रेखा (उत्तर प्रदेश तथा हिमाचल प्रदेश से लगती भारत-चीन सीमा) रेखांकन का काम शीघ्र हो सके। इस क्षेत्र में भारत-चीन सीमा को विवाद पर प्रगति के साथ ही उत्तरी तथा पूर्वी सीमाओं की लम्बी सीमा का रेखांकन करना सरल हो जायेगा। दोनों देश वास्तविक नियंत्रण रेखा का सम्मान करने तथा सीमा क्षेत्र में शांति एवं प्रशांति बनाए रखने के समझौते का 1993 से पालन कर रहे हैं। सीमा-विवाद के समाधान के लिये यह आवश्यक है कि सीमा के समझौते का 1993 से पालन कर रहे हैं। सीमा-विवाद के समाधान के लिये यह आवश्यक है कि सीमा के रेखांकन कार्य सम्पन्न हो।

इस बैठक के समय भारत तथा चीन ने यह भी घोषणा की कि दोनों देश उच्चस्तर की सैनिक सहयोग पुनः आरम्भ करेंगे तथा सितम्बर 2000 में भारतीय नौसेना के जहाज शंघाई की यात्रा करेंगे तथा दोनों देशों के सेना प्रमुख भी एक दूसरे के देश की यात्रा करेगा। किन्तु इन सबके साथ चीन सीमा-विवाद के समाधान के लिये शीघ्र वास्तविक कार्यवाही करने का कोई संकेत नहीं दिया।

21वीं शताब्दी में भारत तथा चीन अपने द्विपक्षीय सम्बन्धों को सभी क्षेत्रों में विकसित करने के लिये कार्य कर रहे हैं। इतिहास, भूगोल तथा उभर रही अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था ऐसा किये जाने की माँग करते हैं। मई 2000 में भारत के राष्ट्रपति श्री के० आर० नारायणन ने चीन का दौरा किया तथा चीन के नेताओं के साथ उच्चस्तरीय वार्तालाप करने के पश्चात् यह कहा कि “इसके बाद दोनों देशों में सहयोग की प्रक्रिया की गति तथा गम्भीरता बढ़ जायेगी।” ऐसा होना भी चाहिए परन्तु इसके लिये कुछ आवश्यक बातों की ओर ध्यान दिये जाने के बाद ही पूर्णतया हो सकता है और ये आवश्यकताएँ हैं-

  1. भारत-चीन सीमा विवाद के समाधान के लिये तेज तथा आवश्यक कार्यवाही एवं प्रगति।
  2. चीन द्वारा पाकिस्तान को भारत विरोधी कार्यवाहियों में किसी भी प्रकार का प्रोत्साहन देने तथा सहायता करने से परहेज किया जाना।
  3. भारत के परमाणु प्रोग्राम की आवश्यकता और प्रकृति को वस्तुनिष्ठ रूप में स्वीकार कर लेना।
  4. भारत को चीन के विरुद्ध बयानबाजी से दूर रहना चाहिए।
  5. भारत चीन आर्थिक एवं व्यापारिक सम्बन्धों में योजनाबद्ध ढंग से व्यापक तथा तीव्र वृद्धि।
  6. विश्व में बहुकेन्द्रीय शक्ति संरचना को विकसित करने के लिये सहयोगपूर्ण कार्य करना।
  7. इन सभी आवश्यकताओं के प्रति सजगता के साथ दोनों देश आपसी मित्रता तथा सहयोग को दृढ़ रूप में तथा तेजी से विकसित कर सकते हैं। दोनों को ऐसा करना भी चाहिए। इसे आज समय तथा स्थिति को आवश्यकतानुसार स्वीकार किया जा सकता है।

आने वाले समय में भारत तथा चीन के सम्बन्धों के भविष्य के सम्बन्ध में सुहावनी तथा आशावादी भावना रखते हुए भी हमें गुमराह नहीं होना चाहिए और यह नहीं मान लेना चाहिए कि वही भाई-भाई वाला युग वापस आने वाला है। कोई भी इस बात से इन्कार नहीं कर सकता और करना भी नहीं चाहिए कि हमें अपने उत्तरी पड़ोसी जो न केवल एशिया में ही नहीं बल्कि सारे विश्व की एक बड़ी शक्ति है, के साथ मैत्रीपूर्ण, स्नेहपूर्ण, सहयोगात्मक, लाभदायक तथा मधुर सम्बन्ध कायम करने हैं। तथापि यह बात स्मरण रखी जानी चाहिए कि सर्वश्रेष्ठ मैत्री निरन्तर सहनशीलता, समस्याओं के शांतिपूर्ण एवं शीघ्र समाधान तथा स्वैच्छिक पारस्परिकता के आधार पर ही विकसित की जा सकती है।

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