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ब्रिटिश कालीन भू-राजस्व नीतियां

ब्रिटिश कालीन भू-राजस्व नीतियां

1765 में कम्पनी को बंगाल, उड़ीसा व बिहार का भू-राजस्व वसूलने का अधिकार प्रदान किया गया किन्तु सरकार इस भार को उठाने के लिए कतई तैयार नहीं थी तथा सरकार की विस्तारवादी नीति के कारण अधिक धन की आवश्यकता थी इसलिए कृषि नीति में परिवर्तन आवश्यक हो गया। इसलिए सर्वप्रथम लार्ड कार्नवालिस ने जमींदारी प्रथा या भू-राजस्व का स्थायी बन्दोबस्त लागू किया गया। सरकार ने रैयतवाड़ी एवं महालवाड़ी प्रथा का भी प्रचलन किया जिसका वर्णन निम्नलिखित है।

जमींदारी प्रथा या भू-राजस्व का स्थायी बन्दोबस्त

वारेन हेस्टिंग्ज़ ने बंगाल को एक बूचड़खाना बना दिया था। वह अपने पीछे दुर्दशा, उपद्रवों और अकालों की श्रृंखला छोड़ गया था। कार्नवालिस को बंगाल का गवर्नर बनाकर इस आदेश के साथ भेजा गया था कि वह भारत में राजस्व समस्या का-जो कि कंपनी के लिए एक सिरदर्द थी-समाधान करे और एक ऐसी व्यवस्था क़ायम करे जिससे कंपनी एक निश्चित तथा अधिक-से-अधिक राशि प्राप्त कर सके। कार्नवालिस ने भारत पहुंचते ही भूमि विषयक नियमों, लगान आदि के संबंध में सर जॉन शोर के निर्देशन में जांच का आदेश दिया। जॉन शोर ने, जो कि फ़िलिप फ्रांसिस के मत से सहमत था, 1789 में अपनी रिपोर्ट पेश की। उसने लिखा, “मैं जमीदारों को उस जमीन का मालिक समझता हूँ, जो उन्हें उनके धर्मराज कानूनों के अनुसार उत्तराधिकार में मिली है। अतः विधिसम्मत उत्तराधिकारियों के होते हुए, सरकार न तो उन्हें उस अधिकार से वंचित कर सकती है और न ही उक्त उत्तराधिकार में किसी तरह का फेर-बदल कर सकती है। अपनी जमीन को बेचने या रेहन-रखने का उन्हें बुनियादी अधिकार है और हमें दीवानी मिलने से पहले ही ये लोग उक्त विशेषाधिकार का प्रयोग करते रहे हैं।”

कार्नवालिस ने, जो कि ब्रिटिश प्रणाली का पक्षपात था, शोर के विचारों को स्वीकृति प्रदान की तथा कंपनी सरकार ने बंगाल में जमींदारों को भूस्वामी मानते हुए भू-राजस्व व्यवस्था इन जमींदारों के माध्यम से की। व्यवस्था करते समय किसी प्रकार की पैमाइश नहीं की गई। 10 फरवरी, 1790 को यह व्यवस्था 10 वर्षों के लिए लागू की गई लेकिन कार्नवालिस इस पक्ष में नहीं था। वह तो इसे स्थायी बनाना चाहता था। 18 सितंबर, 1789 के अपने भाषण में उसने कहा था कि “भू-स्वामी को, जो कि ज़मीन का वास्तविक स्वामी है, अगर 10 वर्ष तक ही मालिक बनाना है और उसके बाद उसे अगर फिर से नए कर-निर्धारण का सामना करना है तो फिर अत्याचार के अतिरिक्त और क्या आशा हो सकती है। मैं इसे सुधार नहीं मानता हूँ बल्कि यह निराशा को ही जन्म देगी।”

1793 में कंपनी की स्वीकृति मिलने पर इस बंदोबस्त को स्थायी कर दिया गया। यह बंदोबस्त बंगाल में उस समय पाए जाने वाले चार ज़मींदार वर्गों के साथ किया गया :

  1. वे स्वतंत्र सरदार दो मुगल सम्राटों को नज़राने के रूप में लगान देकर अपने-अपने इलाके पर क़ब्जा जमाए बैठे थे, जैसे कूच बिहार, असम, त्रिपुरा के राजा आदि;
  2. राजशाही, बर्दवान, दिनाजपुर आदि के राजाओं, जैसे पुराने ज़मींदार परिवार जो स्वतंत्र सरकारों की भाँति सम्राट को निश्चित भूमि कर देते थे;
  3. वे लगान उगाहने वाले, जिन्हें मुगल-सरकार ने लगान वसूल करने का अधिकार दिया था और जो कई पीढ़ियों के बाद एक पुश्तैनी अधिकार बन गया था;
  4. वे किसान जिनको कंपनी ने लगान वसूल करने का अधिकार दिया था और जिन्हें ज़मींदार का नाम दिया था।

वास्तव में इनमें से अधिकतर कलकत्ता के वे बनिए ही नहीं थे जिन्होंने बेनामी पट्टेदारों की हैसियत से बोली के रूप में बड़ी-बड़ी रकमें देकर इस अधिकार को प्राप्त किया था वरन् कंपनी के कुछ कर्मचारी भी थे। फ़्लाउड कमीशन ने भी इस वर्ग का उल्लेख करते हुए कहा था कि “इस वर्ग की उत्पत्ति उस समय हुई जब भू-राजस्व संबंधी विचार हो रहा था और इस वर्ग की उत्पत्ति के लिए स्पष्टतः ब्रिटिश सरकार जिम्मेदार थी।” आयोग ने यह भी लिखा था, “स्पष्ट है कि यदि किसी के साथ समझौता करना ही अभीष्ट था तो पहले दो वर्गों का पक्ष काफी मज़बूत था, तीसरे का उनसे कम मज़बूत था और चौथे का तो न के बराबर था।”

“बन्दोबस्त द्वारा उपज के तीन भागीदार बताए गए : (1) सरकार, (2) बिचौलिए या ज़मींदार, और (3) कृषक या काश्तकार। इनमें पहले दो भागीदारों की स्थिति निश्चित कर दी गई और भूमि की उपज में सरकार का भाग सदा के लिए निश्चित कर दिया गया। इससे सरकार को आशा के अनुरूप ही अधिकतम लाभ हुआ। जहाँ तक कि इस व्यवस्था के आर्थिक पक्ष का संबंध था, इसके अनुसार इतना अधिक भू-राजस्व निर्धारित किया गया जितना पहले कभी नहीं हुआ था। भूमि के अनुमानित लगान में से, जो कि लगभग पौने चार करोड़ रुपए वार्षिक था, सरकार का 89 प्रतिशत भाग रखा गया और केवल 11 प्रतिशत ही ज़मींदारों के पास राजस्व-संग्रह के संबद्ध कार्यों के लिए रखा गया।” इस तरह कंपनी हमेशा के लिए लगान से होने वाली आय के संबंध में निश्चित हो गई और इस तरह वाणिज्यिक तथा प्रशासनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त आय सुनिश्चित हो गई। काश्तकारों द्वारा भुगतान किए जाने वाले लगान को अनिश्चित ही छोड़ दिया गया और उसका निर्धारण ज़मींदारों की इच्छा पर ही छोड़ा गया जिसके परिणामस्वरूप किसानों के असीमित शोषण का दौर शुरू हुआ। इस व्यवस्था के अंतर्गत सरकार उन ज़मींदारों को बेदखल कर सकती थी जो निश्चित समय तक लगान जमा न करवा पाएँ, यहाँ तक कि यदि कोई लगान का कुछ अंश भी जमा करवा पाने में असमर्थ रहे तो उसकी ज़मीन छीना जा सकती थी। बंगाल के अलावा मद्रास के कुछ हिस्सों में भी यह व्यवस्था लागू की गई।

रैयतवाड़ी बंदोबस्त

स्थायी बंदोबस्त या ज़मींदारी प्रथा से जो आशाएँ की गई थीं वे पूरी न हो सकी। सोचा यह गया था कि भू-स्वामी सुव्यवस्था और स्थायित्व के आधार सिद्ध होंगे। अपने अधिकारों व हितों को बढ़ाने के लिए वे सरकार के साथ सहयोग करेंगे और उसके प्रति आभारी होंगे। लेकिन एकदम से ऐसा नहीं हो सका। आर्थिक बुराई भी शीघ्र ही स्पष्ट हो गई क्योंकि एक बार पौने चार करोड़ रुपए बंगाल के लगान के रूप में नियत करके कंपनी हमेशा के लिए उस अधिकार से वंचित हो गई थी जिसके कारण वह समय-समय पर लगान में वृद्धि कर सकने में समर्थ हो। मुनरो (जो 1807 में मद्रास के गवर्नर थे) ने अपने देश के अधिकारियों को अच्छी तरह समझा दिया था कि स्थायी बंदोबस्त को पूरे ब्रिटिश इलाके में लागू करना मूर्खतापूर्ण होगा। भू-राजस्व व्यवस्था ज़मींदारों की अपेक्षा सीधे ही उन छोटे जमींदारों पर लागू करनी चाहिए जो अपनी भूमि को दूसरे कमज़ोर (काश्तकारों) भूमिहीन लोगों की सहायता से जोतते हों। वैसे भी यैयतवारी व्यवस्था भारतीय परंपरा के अनुकूल थी क्योंकि लगान का भुगतान उसको करना जो भूमि को जोतेगा। इस तरह इसमें, भूस्वामी, किसान तथा मजदूर तीनों का सम्मिश्रण हो सकता था। इस व्यवस्था के समर्थन में यह भी कहा गया कि ब्रिटिश शासन की शक्ति का आधार खेतिहरों का शोषण करने वाले कुछ गिने-चुने ज़मींदार ही नहीं होंगे, बल्कि अधिकतर कृषक वर्ग होगा। खेती ही भावी उन्नति के लिए भी यह व्यवस्था उपयुक्त होगी क्योंकि रैयत पुश्तैनी अधिकार पाकर अधीनस्थ काश्तकार की अपेक्षा भूमि की अधिक सेवा कर सकेगी। संपत्ति का जादू उद्यम को बढ़ावा देगा और खेती का स्तर सुधारने में भी सहायता मिलेगी।

1820 तक रैयतवारी प्रथा को मद्रास, बंबई के कुछ हिस्सों, बरार तथा बर्मा, आसाम तथा कुर्ग के कुछ हिस्सों में लागू किया गया। इसके अंतर्गत कुल ब्रिटिश भूमि के 51 प्रतिशत हिस्से को शामिल किया गया। इस व्यवस्था के अनुसार लगान जमा करने का अधिकार काश्तकारों को दिया गया जो कि भूमि के मालिक बनाए गए। इसको 30 अथवा इससे कम या ज्यादा वर्षों में परिवर्तित किया जा सकता था।

महालवारी व्यवस्था

महालवारी व्यवस्था या संयुक्त व्यवस्था को दक्कन के कुछ ज़िलों, उत्तर भारत जैसे संयुक्त प्रांत, आगरा, अवध, मध्य प्रांत तथा पंजाब के कुछ हिससों से लागू किया गया। जॉन लारेंस के शब्दों में ज़मीनों के मालिक पूरे गाँव की ओर सरकार के साथ समझौता करते थे, व्यक्तिगत नहीं। गाँव की बिरादरी, अपने मुखियों या प्रतिनिधियों के माध्यम से, निश्चित अवधि तक रकम चुकाए जाने का भार अपने ऊपर ले लेती थी और फिर सारी देनदारी आपस में बाँटकर सबके अंश निर्धारित किए जाते थे। इस व्यवस्था में मुख्यतः प्रत्येक व्यक्ति खेती करके अपने ही लिए निर्धारित रकम चुकाता था, पर अंततः वह अपने साथियों के अंश के लिए और वे सब उसके अंश के लिए उत्तरदायी होते थे। इस प्रकार वे सब एक सम्मिलित दायित्व के

सूत्र में बँध रहते थे। कुछ प्रशासकों के अनुसार यह प्रथा देशी परंपराओं के अधिक अनुकूल थी क्योंकि प्राक-ब्रिटिश भारत में भी लगान के लिए ऐसी ही प्रथा थी। किंतु उस समय की परिस्थितियों में बहुत अंतर था। मद्रास रेवेन्यू मंडल ने इस व्यवस्था का विरोध करते हुए कहा था, “वैसे तो गाँव के बंदोबस्त का आरंभ प्रत्येक गाँव पर लगान की निश्चित रकम निर्धारित करके तथा गाँव की भूमि सामूहिक रूप से लोगों के मुखिया को सौंपकर ही किया गया था लेकिन उसमें स्पष्ट ही क्रमिक उपविभाजन तथा वितरण का विस्तार निहित था। इस वितरण का प्रभाव प्रत्ये : खेत पर नहीं अपितु रैयत की पूरी ज़मीनों पर होता था और इसके परिणामस्वरूप उन स्थानों पर पूहिक बंदोबस्त को व्यक्तिगत बंदोबस्त का रूप दिया जाना अभीष्ट था जहाँ ग्राम-समाज के 11 इस परिवर्तन की अनुमति देते हों। इस तरह ग्राम-व्यवस्था में रैयतवारी बंदोबस्त का एक प्रमुर लाभ शामिल कर दिया गया तथा लेकिन यह तरीका न एकदम लागू किया जाना था और । सभी रूप जगह। लोगों को एक ऐसी व्यवस्था अपनाने का कष्ट देना अभीष्ट नहीं था जो सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर चाहे कितनी भी उचित क्यों न हो, किंतु अधिकतर मामलों में जमीन की पट्टेदारियों, प्राचीन परंपराओं और वहाँ के निवासियों की परिस्थितियों से मेल नहीं खाती थी। यह आशा की गई थी कि जैसे-जैसे लोगों के साधन बढ़ेंगे वैसे-वैसे इस व्यवस्था की कठिनाइयाँ दूर होती जाएँगी और इसलिए संग्रहकर्ताओं को इस व्यवस्था के प्रचलन की अपेक्षा इसके प्रोत्साहन का भार अधिक सौंपा गया था। इस व्यवस्था को ब्रिटिश भारत के कुल 30 प्रतिशत भाग में लागू किया गया था।

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