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ब्रिटिश काल के किसान आन्दोलन

ब्रिटिश काल के किसान आन्दोलन

ब्रिटिश काल के किसान आन्दोलन

भारत का बहुसंख्यक वर्ग किसान है और ब्रिटिश-काल में भी था। अंग्रेजों की लगान व्यवस्था, व्यापारिक नीति और भारतीय उद्योगों के विनाश के प्रति उदासीनता की नीति ने किसानों की संख्या में वृद्धि की। भारत का बहुसंख्यक किसान वर्ग सर्वदा से ही अधिकतम शोषित रहा। ब्रिटिश-काल में उनके शोषण की प्रक्रिया अधिक तीव्र हुई। सरकार, जमींदार, स्थानीय साहूकार, स्थानीय अधिकारियों आदि सभ ने उनके शोषण में भाग लिया। अधिकांशतः भारतीय किसान इस शोषण को सहन करते रहे। उनकी निर्धनता, अज्ञानता भाग्यवादिता, विस्तृत क्षेत्र में बिखरे होना, स्थान-परिवर्तन करने की क्षमता आदि ने न उनको संगठित होने दिया और न उन्हें शोषण के विरुद्ध संघर्ष करने का साहस प्रदान किया। इस कारण 20वीं सदी के प्रथम चतुर्थंश से पहले हमें किसानों का कोई संगठित आन्दोलन भारत में प्राप्त नहीं होता। परन्तु संगठन के अभाव के होते हुए भी इस समय से पहले कई अवसरों पर किसानों ने बाध्य होकर अपने अधिकारों के लिये संघर्ष किया। ऐसे सभी संघर्ष उनके अतीव आक्रोश के परिणाम थे। इस कारण वे सभी हिंसात्मक थे। उन सभी का क्षेत्र सीमित रहा, सभीप्रायः संगठन-रहित थे और सभी के पीछे संघर्ष का कोई मूल दर्शन न था। इस कारण वे सभी असफल रहे। सरकार की अपार संगठित शक्ति ने उन सभी को कुचल दिया। ऐसे संघर्षपूर्ण आन्दोलनों में निम्नलिखित प्रमुख थे-

  1. आदिवासियों के विद्रोह-

    आदिवासियों में से असम की खासी जाति ने, मणिपुर-त्रिपुरा की कूकी जाति ने छोटा नागपुर की कोल जाति ने और उड़ीसा की खोल जाति ने अंग्रेजी शासन उनके द्वारा अपने दैनिक जीवन में हस्तक्षेप तथा अपनी भूमि को उनके द्वारा हस्तगत किये जाने के विरोध में विद्रोह किये। उनके विद्रोह यद्यपि किसान-विद्रोह नहीं माने जा सकते परन्तु तब भी निश्चय है कि इन विद्रोहों का एक कारण उन जातियों की भूमियों पर अंग्रेजों द्वारा अधिकार किया जाना था।

ऐसे ही विद्रोहों में एक विद्रोह 1855-56 ई० मे संथाल जाति का था जिसका मुख्य कारण जमींदारों और साहूकारों द्वारा उनकी भूमि का अपहरण किया जाना था। इस कारण उनके विद्रोह को, निस्सन्देह, किसान-विद्रोह माना जा सकता है। बिहार में बंगाल की सीमा के निकट राजमहल की पहाड़ी भूमि को संथालों ने स्वयं के परिश्रम से कृषि-योग्य बनाया। उस भूमि को जब साहूकारों ने चालाकी से अपने अधिकार में करने का प्रयत्न किया तब संथालों ने विद्रोह कर दिया। विद्रोह तो दबा दिया गया परन्तु सरकार ने उनकी रक्षा के लिए पृथक् संथाल परगनों की स्थापना कर दी ताकि अन्य व्यक्ति उनकी भूमि पर अधिकार न कर सकें।

  1. बंगाल में नील की खेती में कार्यरत किसान-मजदूरों का विद्रोह-

    बहुत से अवकाश प्राप्त यूरोपियनों ने बंगाल और बिहार में नील की खेती करनी शुरू कर दी थी। उनमें से कुद अपनी भूमि पर खेती करते थे और कुछ किसानों की भूमि पर ठेके से काम कराया करते थे।। उनका व्यवहार किसान-मजदूरों और किसानों के प्रति दासों जैसा हो गया था। उनकी इच्छानुसार कार्य न होने पर वे किसानों की फसलों को जला देते थे, उनके घरों को नष्ट कर देते थे, उनकी स्त्रियों से दुर्व्यवहार करते थे और उनके पशुओं को छीन लेते थे। नील के किसानों की दुर्दशा का विवरण सर्वप्रथम ‘हिन्दू पेटियट’ नामक समाचार-पत्र में छपा। उसके पश्चात दीनबन्धु मित्रा ने उनकी दुर्दशा को ‘नील दर्पण’ नामक अपने एक डामे में व्यक्त किया तथा रामगोपाल घोष ने अपनी एक पुस्तक में उनके बारे में लिखा। परन्तु सरकार ने किसानों की स्थिति पर कोई ध्यान नहीं दिया। अन्त में, विष्णुचरण विश्वास और दिगम्बर विश्वास नामक दो भाइयों ने किसानों को संगठित करके उन्हें खेती न करने के लिए तैयार कर लिया। बाद यह खेती न करने का आन्दोलन’ 12 गाँवों फैल गया। 1858-60ई० के वर्षों में यह आन्दोलन कई जिलों में फैल गया और किसानों ने उस समय तक नील की खेती करने से इन्कार कर दिया जब तक कि उन्हें पर्याप्त सुविधाएँ प्रदान न की जायें। अन्त में, 1860 ई0 में सरकार ने इस सम्बन्ध में एक आयोग के गठन की घोषणा की। परन्तु उसकी सिफारिशें भी किसानों को स्वीकार न हुई और नील की खेती बंगाल से नष्ट हो गयी। इसी प्रकार नील की खेती में कार्यरत किसानों का यह विद्रोह स्थानीय क्षेत्र में संगठित हुआ। इसकी सफलता भी सीमित रही। वे सरकार से अपने लिए सुविधाएँ प्राप्त न कर सके परन्तु वे अपने ठेकेदारों की दासता से अवश्य मुक्त हो गये। उनमें से अधिकांश अन्य व्यावसायों में चले गये।

  2. 1870 ई० में बंगाल का किसान विद्रोह-

    1870 ई० में बंगाल में किसानों ने लगान देने से इन्कार कर दिया और अपनी भूमियों को छीने जाने का सशस्त्र विरोध किया। उस विद्रोह को दबा दिया गया। इसका एक परिणाम 1885 ई.का बंगाल टेनेन्सी कानून था।

  3. दक्षिण के किसानों का विद्रोह (1875 ई०)-

    1875 ई० में महाराष्ट्र में मारवाड़ी साहूकारों के विरुद्ध किसानों ने विद्रोह किया। ये साहूकार धीरे-धीरे चालाकी से उनकी भूमियों पर अधिकार करते चले आये थे और सरकार ने किसानों के संरक्षण की ओर कोई ध्यान नहीं दिया था। 1874 ई0 में पूना जिले के एक गाँव में एक स्थानीय साहूकार के अत्याचार के विरुद्ध यह संघर्ष आरम्भ हुआ। गाँव के किसानों ने साहूकार को गाँव छोड़ने के लिए बाध्य किया। बाद में यह आन्दोलन प्रायः 33 गाँवों में फैल गया। किसानों ने मारवाड़ी साहूकारों को विभिन्न प्रकर से तंग किया और उनकी सम्पत्ति को लूटा। साहूकारों ने पुलिस की सहायता ली। इस कारण यह झगड़ा हिंसात्मक हो गया। बाद में सेना की सहायता से यह विद्रोह दबा दिया गया। इसका एक परिणाम Deccan Agriculturists Relief Act का बनना था।

  4. पंजाब में कृषक-

    आन्दोलन 1896-1900 ई. के मध्य पंजाब में सरकार के लगान सम्बन्धी कानूनों और साहूकारों के शोषण के विरुद्ध कई स्थानों पर किसानों ने संघर्ष किया सरकार ने उन्हें सन्तुष्ट करने के लिए 1902-3 ई. में Punjab Land Alienation Act बनाया जिसके अनुसार निश्चित हुआ कि साहूकार किसान की भूमि को खरीद अथवा गिरवीं नहीं रख सकता था। तब भी किसानों का आन्दोलन चलता रहा। सरकार ने उसे दबाने का प्रयत्न किया। बाद में यह आन्दोलन पंजाब में राष्ट्रीय आन्दोलन का एक हिस्सा बन गया।

  5. महात्मा गांधी का चम्पारन और खेड़ा सत्याग्रह-

    बिहार में चम्पारन के क्षेत्र में भी यूरोपियानों द्वारा नील की खेती करायी जाती थी। उसमें संलिप्त किसानों का में बंगाल में कार्यरत किसानों जैसा ही शोषण किया जाता था। 1917-18 ई. में वहाँ के किसानों ने महात्मा गांधी से सहायता गाँधी। गांधीजी सरकारी आज्ञा की अवज्ञा करके वहाँ गये और किसानों को शान्तिपूर्ण आन्दोलन चलाने में सहयोग दिया। किसानों ने नील की खोती करनी बन्द कर दी। अन्त में एक सरकारी समिति स्थापना की गयी जिसकी रिपोर्ट के आधार पर किसानों को कुछ सुविधाएँ प्रदान की गयी।

1919 ई. में खेड़ा (महाराष्ट्र) के किसानों ने लगान देने से इन्कार कर दिया क्योंकि सूखे के कारण उनकी फसल पर्याप्त नष्ट हो गयी थी। सरकार इस बात को नहीं मान रही थी क्योंकि उसके अनुसार 25 प्रतिशत खेती नष्ट नहीं हुई थी जिसके आधार पर किसानों को लगान से मुक्त किया जाता। वहाँ पर भी गांधीजी ने किसानों को नेतृत्व प्रदान किया। अन्त में, सरकार ने लगान से किसानों को मुक्त कर दिया।

  1. राष्ट्रीय आन्दोलन में किसानों का सहयोग-

    गांधीजी ने अखिल भारतीय कांग्रेस के आन्दोलन को मध्यमवर्गीय आन्दोलन के स्थान पर जल-आन्दोलन मं बदल दिया। भारतीय किसानों की भूमिका इसमें प्रमुख रही। स्वतंत्रता की प्राप्ति द्वारा ही उनकी समस्याओं का हल सम्भव है, यह मानकर किसानों ने कांग्रेस के सभ आन्दोलनों में भाग लिया। गाँधीजी के असहयोग आन्दोलन और सविनय अवज्ञा आन्दोलन को जन-आन्दोलन बनाने में मुख्य योगदान कृषकों का रहा 1928-29 ई0 और 1930-31ई0 में गुजरात के बारदोली जिले में हुए किसान आन्दोलनों का नेतृत्व सरदार वल्लभभाई पटेल और गांधीजी ने ही किया। कांग्रेस ने अपने उद्देश्यों में जमींदारी-उन्मूलन, चकबन्दी, किसान-मजदूरों के लिए न्यूनतम वेतन आदि की मांगों को भी सम्मिलित कर लिया। इस कारण 1919ई. के पश्चात के सभी कृषक आन्दोलन राष्ट्रीय आन्दोलन का हिस्सा बन गये।परन्तु इससे किसानों की समस्याओं का समाधान नहीं हुआ। इसी कारण बाद में किसानों को अपनी पृथक् सभाएँ और समुदाय बनाने की आवश्यकता हुई।

  2. कांग्रेस से पृथक् हुए आन्दोलन-

    किसानों ने राष्ट्रीय आन्दोलन में सहयोग देने के अतिरिक्त कुछ स्वतंत्र आन्दोलन भी शुरू किये। किसानों ने दक्षिण में गुण्टूर और कर्नाटक तथा उत्तर प्रदेश में अपने अधिकारों के लिए संघर्ष किया 1922ई. का मोपला-विद्रोह भी एक दृष्टि से मुसलमान किसानों का अपने जमींदारों के विरुद्ध संघर्ष था।परन्तु इनमें से कोई भी संघर्ष सफल न हुआ।

स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व साम्यवादियों के प्रभाव के कारण किसानों के कुछ सशस्त्र विद्रोह हुए। इनमें तेलंगाना आन्दोलन, तेभागा-आन्दोलन और वर्ली-विद्रोह प्रमुख थे। तेलंगाना (हैदराबाद दक्षिण) का सशस्त्र आन्दोलन 1946-51 ई. तक चला। परन्तु यह असफल रहा। तेभागा-आन्दोलन 1942-47ई. में बांगल में हुआ। 1947ई. में महाराष्ट्र में वर्ली के बंधुआ-मजदूरों ने उस समय तक कार्य करने से इन्कार कर दिया जब तक कि उनकी मजदूरी निश्चित नहीं कर दी गयी और उन्हें साहूकारों के कर्जे से मुक्त नहीं मान लिया गया। ये आन्दोलन अंशतः सफल रहे।

इस प्रकार भारतीय किसानों द्वारा विभिन्न आन्दोलन स्वतन्त्रता प्राप्ति से पहले हुए। ये किसानों को कुद मात्रा में ही सुविधा प्रदान कर सके। उनमें से कोई भी किसानों की मूलभूत समस्याओं का हल न निकाल सका। इस कारण स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात जमींदारी-उन्मूलन के अतिरिक्त किसानों के हित की पूर्ति के लिए अनेक कार्यों की आवश्यकता बनी रही। कुछ कार्य इस दिशा में किये भी गये हैं, तब भी किसानों की समस्याओं का पूर्ण समाधान अभी तक सम्भव नहीं हुआ है।

किसानों के संगठन

राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेते हुए किसानों ने यह अनुभव किया कि कांग्रेस द्वारा किसानों के हित की पूर्ति सम्भव नहीं है। एन.जी. रंगा ने गांधी जी के चम्पारन-आन्दोलन की भी आलोचना की क्योंकि उसमें किसानों की मुख्य समस्याओं जैसे उनके कर्ज और लगान में कमी किये जाने की समस्या को सम्मिलित नहीं किया गया था। इस कारण किसानों के पृथक संगठन की आश्यकता अनुभव की गयी। 1923ई. में आन्ध्र प्रदेश में किसानों ने अपने कुछ स्वतंत्र समुदाय बनाये 1926-27 में पंजाब बंगाल बिहार और उत्तर प्रदेश में किसानों के कुछ समुदाय बने। 1928ई० में आन्ध में प्रान्तीय रैयत-सभा की स्थापना हुई। उसी वर्ष उत्तर प्रदेश और बिहार के किसान-प्रतिनिधियों ने मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में आयोजित ‘सर्वदलीय सम्मेलन’ के समक्ष अपनी माँगे प्रस्तुत की। किसानों के इन संगठनों और कांग्रेस द्वारा उनकी मांगों का समर्थन किये जाने के कारण सरकार ने कुछ कानून किसानों की सुविधा के लिए बनाये; जैसे- 1934ई. का उत्तर प्रदेश का Debt Relief Act, 1934 ई. पंजाब का Regulation of Accounts Act तथा बंगाल के क्रमशः 1933ई. और 1935 ई.के Moneylenders Act और Relief of Indebtedness Act परन्तु इनमें से कोई भी कानून किसानों के लिए विशेष लाभदायक सिद्ध नहीं हुआ।

सर्वप्रथम 1935ई. में किसानों का एक अखिल भारतीय समुदाय बनाया गया जिसे अखिल भारतीय किसान कांग्रेस के नाम से पुकारा गया। परन्तु यह काँग्रेस भी किसानों के हितवर्द्धन के लिए काई विशेष कार्य न कर सकी। 1937 ई. में प्रान्तों में गठित कांग्रेस मन्त्रिमण्डलों ने भी किसानों के हितार्थ कोई ठोस कार्य नहीं किया। परन्तु किसानों की इस कांग्रेस ने किसानों को अपनी माँगे सरकार के समझ प्रस्तुत करने के लिए एक संयुक्त मंच अवश्य प्रदान किया।

इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले किसानों के संगठित या असंगठित शान्तिपूर्ण अथवा हिंसात्मक आन्दोलनों में से कोई भी किसानों को न्याय नहीं दिला सका। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात इस दिशा में कुछ कार्य हुआ है परन्तु किसानों के लिए न्यायपूर्ण व्यवस्था अभी भी नहीं हुई है। इसका बहुत कुछ दोष किसानों की अज्ञानता, भटकी हुई जीवन की मान्यताएँ और एक क्रान्तिकी एवं उद्देश्यपूर्ण विचारधारा की कमी है। योग्य नेतृत्व का अभाव भी इसका एक बड़ा कारण है।

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