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भारत में वामपंथी आन्दोलन का विकास

भारत में वामपंथी आन्दोलन का विकास

वामपंथी आन्दोलन

भारत में वामपन्थी आन्दोलन का विकास 20वीं सदी के दूसरे दशक में आरम्भ हुआ। 1917ई. में हुई रूस की साम्यवादी राज्यक्रान्ति की सफलता ने भारतीय उप-राष्ट्रवादियों की भावना को समाजवाद की ओर मोड़ दिया। असहयोग-आन्दोलन की असफलता ने उनके इस विचार को दृढ़ता प्रदान की कि गांधीजी के नेतृत्व में राष्ट्रीय स्वतन्त्रता की प्राप्ति की आशा नहीं की जानी चाहिए। स्वराज्य दल के उद्देश्यों ने भी उन्हें आकर्षित नहीं किया। प्रथम महायुद्ध के पश्चात बढ़ती हुई महंगाई और बेरोजगारी ने भी समाजवादी विचारधारा के पनपने में सहायता दी। इन कारणों से भारत में अनेक ऐसे व्यक्ति हो गये जिन्होंने आर्थिक समानता, वर्ग-संघर्ष, शोषण के विरुद्ध विद्रोह, आदि की बातें आरम्भ की। इनमें से कुछ ऐसे व्यक्ति थे जो साम्यवाद से प्रभावित हुए और जिन्होंने रूस के साम्यवादियों से सहायता लेकर भारत में साम्यवाद के प्रसार का प्रयत्न किया। उन्होंने भारतीय साम्यवादी दल का निर्माण किया। परन्तु अन्य ऐसे भी व्यक्ति थे जिन्होंने वर्ग-संघर्ष और हिंसा में विश्वास तो नहीं किया किन्तु जिनकी यह धारणा बन गयी कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का मुख्य उद्देश्य भारत में समाजवादी समाज की स्थापना होना चाहिए। वे बहुत समय तक अखिल भारतीय काँग्रेस के साथ रहे, परन्तु अन्त में उन्होंने कांग्रेस से पृथक होकर समाजवादी दल की स्थापना की। ये दोनों विचारधाराएँ वामपन्थी विचारधाराएं कहलायीं और दोनों के नेतृत्व में जो प्रयत्न साम्यवाद और समाजवाद की स्थापना के लिये किये गये, वे वामपन्थी आन्दोलन कहलाये।

  1. समाजवादी दल

    प्रारम्भ में अखिल भारतीय काँग्रेस के अन्तर्गत ही समाजवादी वर्ग का प्रादुर्भाव हुआ। उसके सदस्यों का विश्वास था कि राष्ट्रीय आन्दोलन का उद्देश्य भारत में प्रजातन्त्रात्मक साधनों द्वारा समाजवादी समाज की स्थापना करना हैं वे वर्ग-संघर्ष और हिंसा में विश्वास नहीं करते थे। उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन में कांग्रेस के साथ रहकर उसे सहयोग प्रदान किया। उन्होंने विभिन्न स्थानों पर मजदूरों और किसानों के संगठन बनाये तथा उनके वर्ग-हितों की पूर्ति के लिए संघर्ष के मार्ग को भी चुना परन्तु उनका संघर्ष जुलूस और हड़तालों तक सीमित रहा। राष्ट्रीय नेताओं में से जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचन्द्र बोस ने उनका समर्थन किया। परन्तु इन समाजवादियों का समाजवाद के प्रचार में योगदान नगण्य रहा। सुभाषचन्द्र बोस को काँग्रेस छोड़कर एक अलग संस्था ‘फारवर्ड ब्लाक’ बनानी पड़ी जबकि जवाहरलाल नेहरू ने गाँधीजी के विचारों के सम्मुख झुकना पसन्द किया।

परन्तु काँग्रेस के अन्तर्गत ही प्रजातन्त्रीय समाजवाद में विश्वास करने वाले ऐसे भी व्यक्ति थे जिन्होंने समाजवादी विचारधारा के प्रसार हेतु काँग्रस से पृथक होना स्वीकार किया। उन्होंने अनेक अवसरों पर गाँधी जी की नीति में अविश्वास प्रकट किया। 1934ई. में उनके नेता जयप्रकाश नारायण और आचार्य नरेन्द्रदेव ने एक पृथक दल कांग्रेस समाजवादी दल’ की स्थापना की। यह दल न तो काँग्रेस की सहानुभूति प्राप्त कर सका और न ही साम्यवादियों की। निस्सन्देह इसने हिन्दू और मुसलमानों में एकता के लिए आर्थिक हितों की समानता पर बल दिया। 1935ई. के भारत कानून का विरोध किया मुस्लिम लीग से समझौता करके भारत के विभाजन की नीति का विरोध किया तथा अन्य भी विभिन्न राष्ट्रीय हित के कार्य किये। परन्तु तब भी यह दल न तो लोकप्रिय हो सका और न ही भारत में समाजवादी विचारधारा के फैलाने में अधिक सफल रहा। इसके नेता क्रातिकारी कम और आदर्शवादी अधिक रहे और यही उनकी असफलता का मूल कारण रहा। तब भी समाजवादियों ने विभिन्न स्थानों पर मजदूरों एवं किसानों के समुदायों को संगठित करने और उनको नेतृत्व प्रदान करने में भाग लिया।

  1. साम्यवादी दल

    स्वतन्त्रता से पहले भारत में समाजवादी विचारधारा को फैलाने में प्रमुख भाग ‘भारतीय साम्यवादी दल’ ने लिया। सर्वप्रथम एम.एन.रॉय ने साम्यवादी दल के निर्माण का प्रयत्न किया। उनके प्रयत्नों से बम्बई, बंगाल पंजाब और उत्तर प्रदेश में पृथक-पृथक मजदूरों एवं किसानों के चार दलों का निर्माण हुआ तथा 1924ई. में साम्यवादी दल का निर्माण हुआ परन्तु इन समुदायों को अपनी कार्य में कोई विशेष सफलता न मिली। कुछ समय पश्चात इन दलों को ब्रिटेन में आये हुए कुछ साम्यवादियों की सहायता मिली। उन्हीं में से एक व्यक्ति फिलिप सम्राट था जो दिसम्बर 1926 ई. में भारत पहुँचा। उसे मास्को से आर्थिक सहायता मिली। उसने अपने प्रयत्नों से साम्यवादी दल को लोकप्रियता में वृद्धि की। इसके अतिरिक्त बम्बई में एस.ए. डाँगे और उसके साप्ताहिक समाचार पत्र ‘सोशलिस्ट’ ने बंगाल में मुजफफर अहमद और फजलुल हक तथा उनके समाचार पत्र ‘नवयुग’ ने तथा पंजाब में गुलाम हुसैन और उनके मालिक उर्दू पत्र ‘इन्कलाब’ ने भी इस दिशा में महत्वपूर्ण योग दिया।

सरकार साम्यवादियों की कार्रवाई को अत्यधिक सन्देह से देखती थी। इस कारण उसने प्रारम्भ में ही उनके दमन की तैयारी की तथा साम्यवादियों को हिंसा के कुछ मुकदमों में फंसाया। मुकदमें तीन थे- 1. पेशावर षडयन्त्र केस (1922-23ई0) 2. कानपु षडयन्त्र केस (1924 ई०) और मेरठ षडयन्त्र केस (1919-33ई) पेशावर षडयन्त्र के मुकदमें में उन व्यक्तियों को पकड़ा गया था जो खिलाफत-आन्दोलन के समय भारत से बाहर चले गये थे और जिन्होंने रूस में प्रशिक्षण प्राप्त करके भारत में प्रवेश किया। उन पर पेशावर में मुकदमा चलाया गया कि वे सरकार के विरुद्ध हिंसात्मक कार्रवाई करना चाहते थे। उसमें पकड़े गये व्यक्तियों को 1 से 2 वर्ष तक की सजा दी गयी। कानपुर षडयन्त्र केस के मुकदमें में शौकत उस्मानी, मुजफ्फर अहमद एस.ड. डाँगे और नलिनि प्राप्त पर हिंसात्मक तरीके से सरकार उलटने का आरोप लगाया गया। इनमें से प्रत्येक अभियुक्त को चार वर्ष का कठोर कारावास दिया गया। इस मुकदमें की चर्चा भारत में ही नहीं अपितु विदेशों में भी हुई। मेरठ षडयन्त्र केस में सरकार ने सभी प्रमुख साम्यवादी नेताओं को सम्मिलित कर लिया और उनको कैद करके उन पर सरकार को पलटने के प्रयत्न का दोष लगाया। सभी अभियुक्तों को लम्बी कैद करके उन पर सरकार को पलटने के प्रयत्न का दोष लगाया। सभी अभियुक्तों को लम्बी कैद की सजाएँ दी गयीं यद्यपि बाद में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उनकी सजा की अवधि में कमी कर दी। इस मुकदमें ने एक तरफ साम्यवादी दल को कुछ समय के लिए दुर्बल अवश्य किया क्योंकि उसके सभी नेता जेल में बन्द कर दिये गये थे परन्तु उसने दल की लोकप्रियता में बहुत वृद्धि की क्योंकि प्रायः साढ़े चार वर्ष तक यह मुकदमा चर्चा का विषय बना रहा। इस प्रकार सरकार की दमन नीति ने साम्यवादी दल को लोकप्रिय बनने में सहायता दी।

साम्यवादी दल ने अपनी इस लोकप्रियता का लाभ नहीं उठाया। इसका मुख्य कारण उसका रूस के साम्यवादी दल के आदेशों का पालन करना था। भारतीय साम्यवादी दल रूस द्वारा स्थापित कोमिण्टर्न (अन्तर्राष्ट्रीय साम्यवादी सभा) का सदस्य था। कोमिण्टर्न से उसे सभी पूँजीपति वर्गों से अपने सम्बन्धों को समाप्त कर देने के आदेश प्राप्त हुए। इसी सन्दर्भ में उसे कांग्रेस से सम्बन्ध विच्छेद करने और जवाहरलाल नेहरू व गांधीजी जैसे राष्ट्रीय नेताओं की आलोचना करने के आदेश भी मिले। 1928-34ई. के मध्य साम्यवादी दल ने इसी नीति का पालन किया जिसके कारण वह केवल भारत के सभी अन्य राजनीतिक दलों से ही पृथक नहीं हुआ बल्कि जनसाधारण की सहानुभूति तक खो बैठा। एम.एन रॉय जैसे साम्यवादियों ने भी इस नीति का विरोध किया और साम्यवादी दल से पृथक हो गये। जब साम्यवादी दल ने गांधीजी द्वारा संचालित सविनय अवज्ञा आन्दोलन के विरोध में कार्य किया तो उसकी लोकप्रियता और भी कम हो गयी। इस समय में उसने केवल एक सफलता प्राप्त की। उसने मजदूरों के भारतीय संगठन ऑल इण्डिया ट्रेड यूनियन (A.I.T.U.) पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। 1934ई० में कपड़ा मिल मजदूरों की हड़ताल होने पर सरकार ने साम्यवादी दल को इसके लिए जिम्मेदार ठहराकर उसे गैर-कानूनों घोषित कर दिया।

1934 ई. के पश्चात साम्यवादियों ने अपनी नीति में परिवर्तन किया। उन्होंने अपने सदस्यों को कांग्रेस, समाजवादी दल सुभाषचन्द्र बोस द्वारा स्थापित फॉरवर्ड ब्लाक और विभिन्न विद्यार्थी समुदायों में प्रवेश कराया। सभी ने उनका स्वागत किया। इससे साम्यवादियों ने इन दलों के अनेक महत्वपूर्ण पदों को प्राप्त कर लिया। जिससे वे इनकी नीतियों को प्रभावित कर सके। परन्तु उनकी नीति के समझ में आते ही सभी ने उनको अपनी सदस्यता से अलग कर दिया।

इसके पश्चात साम्यवादी दल भारतीय राष्ट्रीय भावना और आन्दोलन से पृथक होता चला गया। द्वितीय महायुद्ध के समय में उनकी विदेश अर्थात रूस पर निर्भरता अधिक स्पष्ट हुई। प्रारम्भ में रूस ब्रिटेन के विरोध में था। उस समय साम्यवादी दल ने महायुद्ध को साम्राज्यवादी शक्तियों का षडयन्त्र बताकर भारत में ब्रिटिश सरकार का विरोध किया। परन्तु जर्मनी द्वारा रूस पर आक्रमण किये जाने के कारण जब रूस ब्रिटेन के साथ हो गया, तो साम्यवादी दल ने सरकार के साथ सहयोग करना आरम्भ कर दिया। उसने 1942 ई. भारत छोड़ो आन्दोलन का भी विरोध किया। इससे भारतीय जनता में साम्यवादी बदनाम हो गये। देश की स्वतन्त्रता के अवसर पर भी साम्यवादियों न न केवल मुस्लिम लीग का समर्थन करते हुए पाकिस्तान की मांग का समर्थन किया अपितु भारत को विभिन्न राष्ट्रों से मिलकर बना हुआ देश स्वीकार किया। इससे भारतीय जनमत उससे और अधिक असन्तुष्ट हुआ। भारतीय स्वतन्त्रता के अवसर पर साम्यवादी दल की यही भूमिका रही।

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