भारत में पर्यावरण प्रदूषण की समस्या
भारत में पर्यावरण प्रदूषण की समस्या
देश के अधिकांश जल संसाधन और वायु निरंतर दूषित हो रहे हैं, जिसका प्रभाव मानव के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। इसके अतिरिक्त घरेलू प्रदूषण, रसायनों, भारीय धातुओं तथा अन्य विषैले पदार्थों से, जिन्हें हमारी नदियों और समुद्रों में असावधान औद्योपिक तथा कृषकीय प्रणालियों के कारण बढ़ा रहे हैं। यह पर्यावरण विकृति देश की आर्थिक और सामाजिक प्रकृति को बुरी तरह प्रभावित कर रही है। हमारी भावी संतति इस निष्कर्ष पर पहुँच सकती है कि उनके जीवन की समर्थन प्रणालियाँ इस तरीके से क्षतिग्रस्त हुई हैं कि उन्हें ठीक नहीं किया जा सकता।
पर्यावरण विकृति के कारण
पर्यावरण विकृतियों के अनेक कारण हैं। गरीबी की वर्तमान दशा तथा अल्पविकसित अवस्था ने एक ऐसी परिस्थति बना दी है, लोग खोलियों में रहने के लिए और अपने पर्यावरण को विकृत बनाने के लिए विवश हुए हैं। इसके विपरीत विकास की प्रक्रिया भी पर्यावरण को विकृत बनाने के लिए विवश हुए हैं। इसके विपरीत विकास की प्रक्रिया भी पर्यावरण को नुकसान पहुँचा सकती हैं, यदि उसका समुचित प्रबंध न किया जाये। अंतिम विश्लेषण में, गरीबी उन्मूलन, रोजगार सृजन, शिक्षा के स्तर को उठाना तथा जनता में जागरूकता बढ़ाना पर्यावरण की सुरक्षा के महत्त्वपूर्ण कारक हैं।
मुख्य कार्य – पर्यावरण विकृतियों की समस्या से बचने के लिए निम्नलिखित मुख्य कार्य करने होंगे।
- प्राकृतिक वातावरण की सुरक्षा।
- विकृत पारिस्थितिकीय तंत्र का पुनर्जनन तथा उनकी उत्पादकता में वृद्धि करना तथा इन क्रियाकलापों के माध्यम से रोजगार पैदा करना ।
- प्रकृति तथा प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण को विकेंद्रीकृत करना।
- प्रकृति और प्राकृतिक प्रक्रियाओं को विकसित करना और उनकी समस्या की बढ़ाना।
- पर्यावाण के लिए एक राष्ट्रीय नीति बनाना तथा उक्त नीति के समर्थन में समुचित संस्थागत तथा विधि सम्मत ढाँचा तैयार करना।
- एक समन्वित तथा एकीकृत सरकारी कार्यविधि सुनिश्चित करना ताकि प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों का लगातार उपयोग सुनिश्चित किया जा सके।
ये कार्य अपने आप में एक दूसरे से अलग नहीं हैं, अपितु अनुपूरक और कभी-कभी एक दूसरे में व्याप्त हैं। इनमें से अनेक कार्य केंद्रीय तथा राज्य सरकारों द्वारा किये जा रहे हैं, परंतु इसके लिए बहुत अधिक प्रयास करने की जरूरत है।
पर्यावरण प्रदूषण की समस्या
मोंटे तौर पर प्राकृतिक पर्यावरण पर तीन प्रकार के संकट होते हैं- दूषित वातावरण, अधिक उपयोग तथा विनाश । प्राकृतिक वातावरण को इनसंकटों का सामना करने के लिए आवश्यक कार्य नीति के दो पहलू हो सकते हैं- (क) सुरक्षात्मक तथा (ख) विनियामक ।
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सुरक्षात्मक नीति–
सुरक्षा की कार्यनीति में लोगों को जागरूक करना, कानूनों को कड़े रूप से लागू करना, परियोजनाओं पर परिवेंशीय प्रभाव का मूल्यांकन करना तथा पारिस्थितिकीय तंत्र की उत्पादकता बढ़ाने के लिए प्रयास करना निहित है। जनता की जागरूकता को बढ़ाना भी, कुछ मामलों में प्रभावकारी सिद्ध हो सकता है। इसमें उन्हें खतरों से सचेत कर दिया जाये तथा इसमें कड़े दंडात्मक उपाय, वित्तीय उपाय और अपराधी के प्रति अवांछित कार्यों के लिए कार्यवाही करना शामिल है।
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विनियामक नीति–
विनियम की कार्यनीति उत्तम प्रकार से वहाँ लागू की जा सकती है जहाँ पर क्रिया-कलाप या परियोजनाएं शुरू हो गयी हैं। उनसे यह अपेक्षा है कि-
- एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की जाये, जो परियोजना द्वारा प्रदूषण के स्रोतों की पहचान कर सके तथा वास्तविक रूप में और समयबद्ध तरीके से किये जाने वाले उपायों को सुधार सके ।
- इसी प्रकार एक रिपोर्ट घरेलू और कृषि-प्रदूषण के स्रोतों का पता लगाने तथा सुधारात्मक उपायों को करने के लिए तैयार की जाये।
- केंद्रीय और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों को मजबूत बनाया जाना चाहिए और उन्हें अधिक अधिकार युक्त बनाया जाना चाहिए।
- पर्यावरण प्रदूषण के लिए व्यापक तथा वास्तविक मानक तैयार किये जाने चाहिए तथा पर्यावरणीय क्षति के निर्धारण हेतु कार्यविधियाँ और मानक तैयार किये जाने चाहिए।
- उद्योगों को यह स्पष्ट जानना होगा कि पर्यावरण के प्रदूषण से उत्पादन लागत प्रभावित होती है। इसलिए विभिन्न उपायों के जरिये प्रदूषण नियंत्रण के लिए उन्हें अधिक जिम्मेदारी और नेतृत्व प्रदर्शित करने की जरूरत है।
- प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण तथा पर्यावरणीय क्षति को रोकने में जनता की भागीदारी और गैर-सरकारी संगठनों को शामिल करके नामी संस्थाओं के जरिये आवश्यक तकनीकी सहायता मुहैया कराकर, जोकि इस प्रकार की जानकारी और तकनीकी सलाह देने के लिए जिम्मेदार हैं, सरल बनाया जाना चाहिए तथा केंद्र और राज्य तथा स्थानीय सरकारों द्वारा समुचित तंत्र स्थापित करके सार्वजनिक शिकायतों की जाँच और निपटान करने को गतिशील बनाया जाना चाहिए।
आधारभूत नीतियाँ- वानिकी और पर्यावरण से संबंधित नीतियों का फ्रेमवर्क पहले से ही कई नीति दस्तावेजों, अधिनियमों तथा उनके संशोधनों और नीति-निर्देशों में मौजूद हैं। इनमें से कुछ हैं- राष्ट्रीय वन नीति 1988, प्रदूषण निवारण के लिए प्रारूप नीति विवरण दस्तावेज 1991, वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980, 1988 में संशोधित राष्ट्रीय वन्य जीव कार्य योजना, पर्यावरण एवं विकास पर नीति विवरण तथा राष्ट्रीय संरक्षण कार्यनीति प्रारूप, पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986, जल (प्रदूषण रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम 1974, 1988 में संशोधित तथा वायु (रोकथाम तथा प्रदूषण नियंत्रण) अधिनियम, 1981, 1987 में संशोधित।
सन् 1986 में एक व्यापक पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, पूर्व कानूनों की कमियों को दूर करने के लिए अस्तित्व में आया तथा उस विषय पर अकेले विधान के रूप में अमल करना शुरू किया। अधिनियम के अंतर्गत अनेक केंद्रीय और राज् के कार्यकारी अधिकारियों को अधिकार सौंपे गये। बीस राज्य सरकारों को वे अधिकार प्रत्योजित किये गये, जो अधिनियम की धारा 5 के तहत केंद्रीय सरकार में निहित थे। इसके अंतर्गत किसी भी व्यक्ति, अधिकारी अथवा प्राधिकारी को अधिनियम के प्रावधानों के कार्यान्वयन के लिए निर्देश जारी करने के लिए अधिकार दिये गये थे। वायु प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम 1988 तथा जल (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, 1976 को इस प्रकार संशोधित किया गया ताकि इसके प्रावधानों को पर्यावरण (सुरक्षा) अधिनियम 1986 के समान बनाया जाये और कार्यान्वयन करने वाली एजेंसियों को अधिकार दिये जायें।
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