भारत में मुस्लिम साम्प्रदायिकता के उदय एवं विकास के कारण
यह सही है कि भारत में साम्प्रदायिकता ब्रिटिश शासन की कुख्यात फूट डालो और शासन करों की नीति की देश है परन्तु यह सच्चाई भी अस्वीकार नहीं की जा सकती कि हिन्दू और मुसलमानों के बीच मुस्लिम शासन काल से ही कटुता एवं अविश्वास की भावना व्याप्त थी जो 1857 की सैनिक क्रान्ति अथवा प्रथम स्वातन्त्र्य आन्दोलन के दौरान एक थोड़े समय के लिये लुप्त हुई थी। इस क्रान्ति की विफलता के बवाजजूद ब्रिटिश शासक हिन्दू-मुस्लिम एकता में संशकित एवं चितित थे। इसे तोड़ने के लिये उन्होंने दोनों सम्प्रदायों में कटुता एवं अविश्वास पैदा करने के उद्देश्य से इनके प्रति अपनी नीतियों में परिवर्तन करना शुरू किया। इन क्रान्ति के पूर्व तक आंग्ल हिन्दू सहयोग तथा मूसलमानों की उपेक्षा, उनकी अधोगति एवं उनके उत्पीड़न का युग था। ब्रिटिश शासकों की इस नीति ने दोनों सम्प्रदायों को अलग-अलग करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इस क्रान्ति के बाद उन्होंने आंग्ल मुस्लिम सहयोग तथा हिन्दुओं की उपेक्षा और उनके उत्पीड़ने का युग प्रारम्भ किया। इससे भारत में मुस्लिम साम्प्रदायिकता के उदय और विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ जिसने हिन्दू साम्प्रदायिकता के उदय एवं विकास को हम निम्नलिखित चरणों में विभक्त कर सकते हैं।
1870 से 1905 :
1857 की सैनिक क्रान्ति के दौरान हिन्दू-मुस्लिम एकता का अभूतपूर्व स्वरूप देखने को मिला। उस क्रान्ति विफलता के कुछ वर्षों के बाद तक भी वह किसी न किसी रूप में बनी रही परन्तु लगभग एक दशक बाद ही अनेक कारणों से यह छिन्न-भिन्न हो गयी तथा भारत में मुस्लिम साम्प्रदायिकता का उदय एवं विकास प्रारम्भ हुआ। जिसने आगे चलकर प्रभावहीन हिन्दू साम्प्रदायिकता के उदय का प्रारम्भिक चरण प्रारम्भ हुआ जो 1905 तक रहा। इस अवधि में इसके उदय एवं विकास के निम्नलिखित कारण थे।
1. ब्रिटिश सरकार की नीति में परिवर्तन-
ब्रिटिश शासक 1857 की सैनिक क्रान्ति के मूलतः मुस्लिम विद्रोह तथा उसके लिए हिन्दुओं को कम और मुसलमानों को अधिक दोषी मानते थे। यही कारण था कि इनकी विफलता के लगभग एक दशक बाद तक भी उन्होंने इन दोनों कामों के प्रति अपनी पुरानी नीति ही जारी रखी अर्थात् उन्होंने आंग्ल-हिन्दू सहयोग तथा मुसलमानों की उपेक्षा एवं उनके उत्पीड़न की अपनी नीति में कोई परिवर्तन नहीं किया। परन्तु 1870 के बाद उन्होंने उसमें बदलाव शुरू किया। ऐसा उन्होंने अनायास नहीं किया। इसके कारण इस प्रकार थे –
- हिन्दू पुनर्जागरण तथा ब्रिटिश शिक्षा के बढ़ते प्रभाव के कारण मध्यमवर्गीय हिन्दुओं में राष्ट्रीयता की भावना स्पष्ट रूप से पनपने लगी थी। इससे ब्रिटिश शासकों को अपने अस्तित्व का संकट दिखायी पड़ने लगा।
- ब्रिटिश शासकों ने ऐसा अनुभव करना प्रारम्भ किया कि अपनी आर्थिक और सामाजिक स्थिति में परिवर्तन के कारा मुसलमानों में ब्रिटिश शासन के लिए खतरा बनने की क्षमता नहीं रह गयी थी इसी के साथ वे यह भी मानते थे कि अपनी इन परिवर्तित परिस्थितियों के बावजूद भारतीय समाज में मुसलमानों को एक प्रभावशाली स्थिति है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है।
- अपनी कुख्यात ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति के कारण भी उन्होंने मुसलमानों के प्रगति अपनी नीति में परिवर्तन को उपयोगी समझा।
2. अंग्रेज अधिकारियों की भूमिका-
सर बिलियम हण्टर तथा अनेक ब्रिटिश अधिकारियों ने आंग्ल-मुस्लिम सहयोग एवं मित्रता के बीजारोपण और विकास से महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। सर विलियम हण्टर और मि0 बैंक उन लोगों में प्रमुख थे जिन्होंने आंग्ल मुस्लिम मित्रता पर अत्यधिक बल दिया। सर हण्टर ने अपनी पुस्तक इंडियन मुस्लिम के माध्यम से भारतीय मुसलमानों की दुर्दशा के प्रति ब्रिटिश शासकों का ध्यान आकृष्त करते हुए उनके अधिकार, सम्मान तथा उनकी आजीविका, शिक्षा और आर्थिक सुविधा की माँग पर बल दिया। 1883 में अलीगढ़ एंग्लो ओरियटल कॉलेज का प्राचार्यपद ग्रहण करने के बाद से ही मि0 बैंक ने सर सैयद अहमद खाँ के माध्यम से हिन्दू-मुसलमानों को एक दूसरे से अलग करने और आंग्ल-मुस्लिम मित्रता की नींव डालने का प्रयास किया।
3. सर सैयद अहमद खाँ तथा अन्य मुस्लिम नेताओं की भूमिका-
यों तो सर सैयद अहमद खाँ प्रारम्भ में राजभक्त होते हुए भी घोर राष्ट्रवादी तथा उनकी यह मान्यता थी कि राष्ट्र का मतलब उससे है जिसमें हिन्दू व मुसलमान, दोनों ही शामिल हों परन्तु आगे चलकर ब्रिटिश सरकार की ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति तथा अलीगढ़ एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज के प्राचार्य मि0 बैक की इस नीति सम्बन्धी षड्यन्त्रकारी सुझाव और प्रयास का शिकार होकर उन्होंने मुसलमानों के मन में साम्प्रदायिकता तथा ब्रिटिश शासन के प्रति भक्ति की भावना पैदा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। भरतीय इतिहास की यह एक विडम्बना ही कहीं जायेगी कि जिस व्यक्ति ने 1860 में इण्डियन एसोसिएशन’ की स्थापना में सहयोग किया और जिसने ‘इण्डियन सिविल सर्विस’ की भारतीयों एवं अंग्रेजों के लिए सम्मिलित परीक्षा की माँग का जोरदार समर्थन किया, उसी ने ब्रिटिश कूटनीति का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य भी किया। आर्थिक, सामाजिक तथा शैक्षणिक दृष्टि से अधोगति को प्राप्त मुसलमानों की दशा से चिन्तित हो उनके प्रति ब्रिटिश शासन की नीति में परिवर्तन उनके लिए उसकी कृपा प्राप्त करने, उनमें राजभक्ति की भावना पैदा करने तथा हिन्दू नेतों के बढ़ते प्रभाव से मुस्लिम समुदाय को मुक्त रखने हेतु उन्होंने ऐसा किया। वह किसी भी कीमत पर मुसलमानों का शैक्षणिक, आर्थिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में विकास चाहते थे। प्रारम्भ में उनका विश्वास तथा उनकी यह मान्यता थी कि हिन्दू मुस्लिम एकता एक दूसरे के लिए सहायक सिद्ध होगी। परन्तु ब्रिटिश शासन के प्रति तेजी से बढ़ती उनकी राजभक्ति तथा मिo बैंक द्वारा पैदा की गयी शंका से उनकी मानसिकता परिवर्तित होने लगी। मैं बैंक की कूटनीति चाल में ऐसा जादू किया कि उन्होंने हिन्दू मुस्लिम एकता के स्थान पर आंग्ल-मुस्लिम एकता को मुसलमानों के हित के लिए श्रेयस्कर समझना शुरू किया।
4. हिन्दू-मुस्लिम कटुता-
हिन्दु-मुसलमानों में कटुता कोई नयी बात नहीं थी। यह सही है कि मुस्लिम शासकों के काल में आज की तरह साम्प्रदायिक दंगे नहीं होते थे। परन्तु इसी के साथ यह भी सही है कि उनके बीच उस समय भी कटुता थी । उदार शासकों के काल में उसमें कमी तथा कट्टरपंथी, कङ्गोर एवं अत्याचारी शासन में उसमें वृद्धि हो जाती थी। यह एक ऐतिहासिक वास्तविकता है कि मुस्लिम शासकों के काल में एक साथ शान्तिपूर्वक हते हुए भीदोनों कौमों में वास्तविक सौह नहीं था। ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना के बाद वो ब्रिटिश शासकों की ‘फूट डालो एवं शासन करो’ की नीति के कारण उसमें निरन्तर वृद्धि ही होती गयी। पहले हिन्दुओं और बाद में मुसलमानों को महत्व देकर उन्होंने दोनों के बीच की दूरी बनाने की अपनी नीति जारी रखी। सर सैय्यद अहमद खाँ के परिवर्तित दृष्टिकोण के बाद उनके सहयोगी मुस्लिम नेताओं के प्रभाव के कारण तो इसमें और वृद्धि हुई। इस बढ़ती दूरी और कटुता के परिणामस्वरूप 1885 में लाहौर और करनाल, 1886 में पुनः लाहौर तथा बाद में वर्षों में अन्य स्थानों पर हिन्दू मुस्लिम दंगे हुए। विभिन्न परिस्थितियों तथा ब्रिटिश शासकों की नीतियों के कारण दोनों कौमों के कन में पनपी प्रतिहिंसा के ये मूर्त रूप थे। कांग्रेस के भीतर पनप रहे हिन्दू पुनरूत्थानवाद को भी एक हद तक इसके लिए दोषी माना जाता है। इन दंगों ने दोनों के बीच और दूरी एवं कटुता बढ़ाने का कार्य किया। इनके परिणाम स्वरूप साम्प्रदायिकता की लहर तेज हुई।
5. लार्ड कर्जन की नीति तथा बंगभंग-
भारतीयों के प्रति संकुचित एवं अनुदार दृष्टिकोण रखने तथा फूट डाले एवं शासन करों’ की नीति में पूरी तरह विश्वास करने वाले लार्ड कर्जन ने भारत में वायसराय होकर आते ही हिन्दु मुसलमानों के बीच दूरी और कटुता बढ़ाने की दृष्टि से अनेक कार्य जिनमें सबसे अधिक घातक 1906 का बंगाल विभाजन था। उन्होंने मुसलमानों के और अधिक समर्थन तथा हिन्दुओं के विरोध की नीति अपनायी। इसके परिणामस्वरूप मुसलमानों को प्रोत्साहन मिला तथा हिन्दुओं के मन में उनके प्रति कटुता तेज हुई। कटुता एवं पक्षीय नहीं थी। मुसलमानों के मन में भी वह ते हुई: लार्ड कर्जन ने व्यवस्था एवं शासन के सुचारू रूप से संचालन के नाम पर 1905 में बंगाल का विभाजन कर राष्ट्रीयता की बेगवती धारा छिन्न-भिन्न कर दी। इतना ही नहीं, वह दोनों कौमों के बीच साम्प्रदायिकता की भावना पैदा करने में भी सफल रहे।
1906 से 1911 तक
विभिन्न परिस्थितियों तथा ब्रिटिश शान की ‘फूट डालो एवं शासन करो’ की नीति के कारण भारत में जिस मुस्लिम साम्प्रदायिकता का बीजारोपण हुआ; वह दिन प्रतिदिन तेजी से बढ़ता गया। तीव्रगति से उसके बढ़ते प्रभाव का ही यह परिणाम रहा कि 1906 में मुसलमानों के अखिल भारतीय संघटन मुस्लिम लीग की स्थापना हुई जिसने राष्टीय आन्दोलन के दौरान भारतीय मुसलमानों के प्रतिनिधत्व का दावा करनते हुए 1947
में देश को विभाजित कराने में ऐतिहासिक सफलता प्राप्त की। यों तो इसकी स्थापना के पीछे मूलतः मुस्लिम साम्प्रदायिकता की भावना ही थी परन्तु इसकी पृष्ठभूमि 1906 के मुस्लिम प्रतिनिधि मण्डल ने तैयार की। भारत में प्रतिनिध्यात्मक संस्थाओं की स्थापना और उनके लिए चुनावों के बारे में सुझाव देने तत्कालीन वायसराय लार्ड मिन्टो ने एक समिति गङ्गित की इसकी स्थापना की घोषणा होते ही सर आगा खाँ के नेतृत्व में एक मुस्लिम प्रतिनिधि मण्डल ने उनसे भेंट कर उनके समक्ष अपनी माँगे प्रस्तुत करने की पेशकश की। उन्होंने इसकी तत्काली अनुमति देते हुए प्रतिनिधि मण्डल की माँगे स्वीकार करने का आश्वासन दे दिया। उसकी माँगे इस प्रकार थी-
- यदि भारत में वैधानिक सुधारों के अन्तर्गत चुनाव का सिद्धान्त मान लिया जाता है तो मुसलमानों के लिए पृथक् प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की जानी चाहिए। यह साम्प्रदायिकता के आधार पर निर्वाचन की स्पष्ट माँग थी।
- मुसलमानों की महत्वपूर्ण स्थिति और ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति उनकी राजभक्ति देखते हुए चुनावों में उन्हें विशेष छूट मिलनी चाहिए।
- सरकारी नौकरियों में उन्हें और अधिक स्थान मिलने चाहिए। वायसराय की कौंसिल में भारतीय प्रतिनिधियों को नियुक्त करते समय मुसलमानों के हितों पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।
- भारत में मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना की जानी चाहिए।
वायसराय ने माँगे तत्काल स्वीकार कर यह बात सिद्ध कर दी कि हिन्दू मुसलमानों को एक दूसरे से अलग करने की नीति में वह अपने पूर्ववर्ती लोगों की तरह ही विश्वास करते थे तथा वह उन्हें मानने के लिए पहले से ही तैयार बैठे थे। रामजे मैकडालन्ड द्वारा अपनी पुस्तक ‘Awakening of India‘ में लिखी बातों, 1923 के मुस्लिम लीग सम्मेलन के अध्यक्षीय पद से किये गये भाषण तथा अलीगढ़ कॉलेज के प्राचार्य आर्क बोल्ड के 1906 में नबाव मोहिसिन उल मुल्क को लिखे पत्र में विश्लेषण से यह बात साफ हो जाती है कि ये माँगे ब्रिटिश नौकरशाही न कि मुस्लिम नेताओं के दिमाग की उपज थी। इसी समय ब्रिटिश सरकार ने नबाव सलीमुल्ला खाँ को नाममात्र ब्याज पर एक लाख पौंड का जो ऋण लिया, उसके बारे में ऐसा कहा जाता है कि उसने इस प्रकार की माँगों के लिए उन्हें प्रलोभन के रूप में उसे दिया। पृथक निर्वाचन के बारे में लार्ड मार्ले ने लार्ड मिन्टो को लिखे एक पत्र में जो प्रतिक्रिया व्यक्त की उससे भी यही बात सिद्ध होती है कि माँग ब्रिटिश दिमार्ग की उपज थी। अनेक तथ्यों से यह बात साबित होने के बावजूद कि इस प्रकार के प्रतिनिधि मण्डल और उसकी माँगों के पीछे वायसराय लार्ड मिन्टो एवं ब्रिटिश नौकरशाही का मस्तिक कार्य कर रहा था। सर आगा खाँ ने इसका खण्डन करते हुए इसे ऐतिहासिक घटना काश्रेय नबाव मोहसिन उल मुल्क को दिया है। चाहे जिसकी भी प्ररेणा और जिसके भी प्रयास से उक्त प्रतिनिध मण्डल ने वायसराय लार्ड मिन्टो को भी कर उनके समक्ष पृथक निर्वाचन और मुसलमानों के हितों की अधिक से अधिक रक्षा की माँग की, यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि इस घटना ने भारतीय राष्ट्रीय जागरण पर करारा प्रहार कर देश में साम्प्रदायिकता की जड़ गहरी करने का कार्य किया। इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि इसने मुसलमानों के एक अखिल भारतीय संगटन की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया। मुस्लिम लीग ने भी साम्प्रदायिकता के विकास मुस्लिम लीग को, 1937 के बाद की नीति में महत्वपूर्ण योगदान:
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अधिनियम–
सन् 1935 में सरकार ने एक अधिनियम पारित किया। सभी वर्गों में इस अधिनियम की तीव्र आलोचना की। मुस्लिम लीग ने इसकी आलोचना की पर इसके प्रान्तीय सुधारों को स्वीकार किया।
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कांग्रेस मंत्रिमंडल–
सन् 1936-37 के निर्वाचन में कांग्रेस को अप्रत्याशित सफलता मिली। कांग्रेस को जिन प्रान्तों में बहुमत मिला उन प्रान्तों में कांग्रेस ने मंत्रिमंडल संगठित किये। पर इन मंत्रिमण्डलों में कांग्रेस ने मुस्लिम लीग को नहीं लिया उसने राष्ट्रीय मुसलमानों तथा अन्य अल्पसंख्यकों को मन्त्रिमंडल में स्थान दिया।
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आरोप–प्रत्यारोप–
29 मार्च, 1938 की मुस्लिम लीग की कार्यकारिणी समिति ने कांग्रेस पर अनेक आरोप लगाये परन्तु ये आरोपों को सिद्ध न कर सके। इसी दौरान हिन्दू महासभा ने कांग्रेस पर यह आरोप लगाये कि वह मुसलमानों के तुष्टिकरण की नीति पर चल रही है और हिन्दुओं के हितों में विरूद्ध कार्य कर रही है।
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जिन्नाह की हठधर्मी–
कांग्रेस ने एक बार पुनः लीग के साथ समझौता करने का प्रयास किया, परन्तु मि0 जिन्नाह ने अपनी हङ्गधर्मी का परित्याग नहीं किया जिससे कोई समझौता सम्भव नहीं हो सका। जिन्नाह ने बार-बार इस बात पर बल लिदया कि गाँधी जी की वह स्वीकार कर लें कि कांग्रेस हिन्दुओं की संख्या है। परन्तु गाँधी जी यह इस बात के लिये तैयार नहीं हुए क्योंकि इसे स्वीकार करने का अर्थ होता, कांग्रेस के प्राचीन इतिहास को असत्य सिद्ध करना तथा राष्ट्रीय आदर्श का परित्याग करना।
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विभाजन की माँग–
मुस्लिम लीग ने 1939 में देश के विभाजन की मांग की जब कांग्रेस मंत्रिमण्डलों ने द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान त्याग-पत्र दे दिया तो लीग ने धमकी दी थी कि सरकार के विरूद्ध आन्दोलन प्रारम्भ कर लेंगें। बंगाल में मुसलमानों ने कांग्रेस नेताओं को अब लगने लगा कि विभाजन में ही उसका हित है।
महत्वपूर्ण लिंक
- 1935 अधिनियम के अन्तर्गत संघ एवं इसकी विशेषताएँ तथा दोष
- 1935 अधिनियम की त्रुटियाँ
- भारत सरकार अधिनियम 1935 की विशेषताएं
- प्रान्तीय स्वायत्तता एवं इसका विकास
- सविनय अवज्ञा आन्दोलन के प्रारंभ होने के कारण एवं शर्त
- स्वराज्य पार्टी की नीतियां, कार्यक्रम, उद्देश्य एवं गतिविधियां
- असहयोग आन्दोलन का मूल्यांकन
- खिलाफत आन्दोलन- सेवर्स की संधि एवं गांधी जी का योगदान
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