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प्रवाल भित्तियों की उत्पत्ति की परिकल्पनाएं (Theory of Origin of Coral Reef)

प्रवाल भित्तियों की उत्पत्ति की परिकल्पनाएं

प्रवाल भित्तियों की उत्पत्ति की परिकल्पनाएं

(Theory of Origin of Coral Reef)

प्रवाल-भित्ति की उत्पत्ति या निर्माण के विषय में विद्वानों का एक मत नहीं है, किन्तु फिर भी अपने-अपने तरीके से विद्वानों ने अपने विचार प्रस्तुत किये हैं जिसमें डार्विन, मरे, डेली, गार्डिन व आगासीज आदि के सिद्धान्त विशेष उल्लेखनीय हैं।

  1. डार्विन का अवतलन सिद्धान्त (Subsidence Theory of Darwin) :

    डार्विन ने अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन सन् 1837 में किया। इनका सिद्धान्त मुख्य रूप से अवतलन सिद्धान्त पर आधारित है। डार्विन महोदय ने प्रवाल भित्तियों का अध्ययन करने के बाद यह बताया कि प्रवाल जीव छिछले सागर में ही जीवित रह सकते हैं। प्रवालों द्वारा निर्मित भित्तियाँ अधिक गहराई तक निर्मित मिलती हैं जिस गहराई पर प्रवाल जीव जीवित नहीं रहते हैं। इस भ्रम को दूर करने के लिये इन्होंने स्पष्ट किया कि जिस स्थल भाग पर प्रवाल भित्ति का निर्माण होता है वह स्थिर नहीं रहता बल्कि उसमें धीरे-धीरे अंवतलन होता रहता है। डार्विन महोदय ने यह बताया कि सबसे पहले प्रवाल भित्ति का निर्माण किसी समुद्री चबूतरे पर होता है तथा वे धीरे-धीरे सागर-तल तक पहुँच जाते हैं, इस प्रकार तटीय प्रवाल भित्ति की रचना होती है। इसके पश्चात् स्थल खण्ड से अवतलन होने लगता है जिसके कारण प्रवाल जीव अधिक गहराई में जाने लगते हैं। प्रवाल जीवों के नीचे गहराई में से इन्हें अपने भोजन को एकत्र करने में कठिनाई होती है, इसलिए वे ऊपर को तेजी से बढ़ने लगते हैं। प्रवाल जीवों की वृद्धि सागर तट के समीप नहीं होती है क्योंकि यहाँ पर इनके भोजन का अभाव पाया जाता है। इस प्रकार सागर तट व प्रवाल भित्ति के बीच अनूप बन जाता है। जैसे-जैसे भूमि के नीचे खिसकने की प्रक्रिया बढ़ती जाती है, अनूप की गहराई व चौड़ाई बढ़ती जाती है। जब यह क्रिया लगातार चलती रहती है तो तटीय प्रवाल भित्ति समय मिलते ही तट से दूर हट जाती है। और एक दीवार की भाँति दिखायी देने लगती है, जिसको कि अवरोधक प्रवाल भित्ति कहा जाता है। जब कभी तटीय प्रवाल भित्ति का निर्माण द्वीप के समीप होता है और द्वीप के समय के अनुसार अवतलन होता रहता है और वह नीचे धँस जाता है। इस प्रकार की स्थिति में भित्ति की आकृति वलयाकार हो जाती है जिसके बीच अनूप भी बना होता है, इस तरह की भित्ति वलयाकार प्रवाल भित्ति कहलाती है।

डार्विन के अवतलन सिद्धान्त का प्रसिद्ध भूगर्भशास्त्री डोना ने समर्थन किया है। डार्विन ने सिद्धान्त के पक्ष में कई अनुकूल प्रमाण प्रस्तुत किये हैं, जो निम्न प्रकार हैं-

  • अवरोधक प्रवाल भित्ति व वलयाकार प्रवाल भित्ति का निर्माण तभी हो सकता है जब भूमि में अवतल (धँसाव) हो रहा है। भले ही अवतलन की क्रिया धीमी गति से हो लेकिन लगातार होनी चाहिए।
  • प्रवाल भित्तियों का निर्माण भूमि तल के समीप ही होता है तथा भूमि के तल में निरन्तर धँसाव की क्रिया से ही इस प्रकार के आकार का निर्माण होता है। वहाँ पर एक बात ध्यान देने योग्य है कि भूमि का अवतलन प्रवाल भित्तियों के ऊपर उठने की गति से कम होता है ।
  • प्रशान्त महासागर के समीप जिन भागों में उठे हुये पुलिन मिलते हैं उनके समीप प्रवाल भित्तियाँ नहीं पायी जाती हैं।
  • (vi) जिन द्वीपों पर एटॉल का निर्माण होता है उनके ऊपरी भाग तेज ढाल वाले होते हैं। इस प्रकार को तेज ढाल पर्वतों के शिखरों पर ही पाया जाता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि स्थल खण्डों का अवतलन हुआ है।

आलोचना

डार्विन के सिद्धान्त की विद्वानों ने आलोचनायें भी की हैं, जो निम्न प्रकार हैं-

  • प्रशान्त महासागर में वलयाकार प्रवाल भित्तियाँ ऐसे स्थान पर भी मिलती हैं जहाँ पर अवतलन के कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं पाये जाते हैं।
  • डार्विन महोदय के मतानुसार अवरोधक व वलयाकार प्रवाल भित्तियों का निर्माण केवल 2 हजार फुट या ज्यादा होना चाहिए। लेकिन मरे ने यह भी बताया कि प्रवाल भित्तियों का केवल ऊपरी 30 फैदम भाग ही प्रवाल जीवों द्वारा निर्मित होता है जो वहाँ मिलते हैं।
  1. मरे का स्थिर-स्थल पर प्रतिपादित सिद्धान्त:

    मरे नामक विद्वान ने अवतलन सिद्धान्त का विरोध कर अपना सिद्धान्त प्रस्तुत किया। मरे का मानना है कि यदि प्रवाल भित्तियों की रचना भूमि के अवतलन द्वारा हुयी है तो प्रवाल भित्तियों का आधार मृत जीवाणु द्वारा निर्मित होना चाहिए। मरे के इस विचार का अन्य विद्वानों ने भी समर्थन किया है। मरे का स्पष्ट वर्णन नीचे दिया जा रहा है-

मरे ने कहा है कि प्रवाल भित्तियों की रचना 30 फैदम की गहराई से आगे भी हो सकती है। 30 फैदम की गहराई तक भित्ति की रचना हो जाती है तो उससे छोटे-छोटे टुकड़े टूटने लगते हैं तथा टूट-टूटकर नीचे जमा होने लगते हैं। इस तरह अवतलन के बिना ही भित्ति का निर्माण अधिक गहरे जल में हो जाता है। लेकिन 30 फैदम से अधिक गहराई से भित्ति की रचना मरे हुये प्रवाल जीव द्वारा ही होती है। इस प्रकार टूट-टूटकर अवसाद जमा हो जाता है जो कि समुद्र जल के प्रभाव से सख्त हो जाता है। जैसे-जैसे अवसाद के एकत्रित होने की मात्रा बढ़ती जाती है, तो प्रवाल बाहर की ओर दिखायी पड़ने लगती है लेकिन भीतर की ओर प्रवाल जीव मरते हैं। बाद में ये मरे हुये प्रवाल जीव जल के साथ घुल जाते हैं। इस तरह की क्रिया से धीरे-धीरे सागर तट व प्रवाल भित्तियों के बीच अनूप का निर्माण हो जाता है जिससे तटीय प्रवाल भित्ति अवरोधक प्रवाल भित्ति में परिवर्तित हो जाती है।

वलयाकार भित्ति के निर्माण के सम्बन्ध में मरे का कहना है कि इनकी रचना सागर तल से ऊँचे उठे हुए जल से डूबे हुये पठारी, द्वीपों, कगारों व पहाड़ियों पर होती है। इन डूबे हुए भागों की गहराई इतनी होती है कि इन पर प्रवाल जीव जीवित रह सकते हैं। जल में डूबे हुए पठारों व पहाड़ियों पर प्रवाल जीव अपनी रचना प्रारम्भ कर देते हैं और ऊपर की ओर तेजी से बढ़ने लगते हैं। यहाँ पर प्रवाल भित्ति का ऊपर की ओर विकास चारों तरफ होने लगता है जिससे वह वलयाकार आकार धारण कर लेती है और इसके बीच में अनूप भी बना हुआ होता है। इस अनूप के अन्दर मरे हुये प्रवाल जीव एकत्रित हो जाते हैं जो धीरे-धीरे जल में घुलते रहते हैं। इससे अनूप की चौड़ाई व गहराई में वृद्धि होती रहती है। लेकिन प्रवाल भित्ति की बाहर की और रचना होती रहती है। इससे वलयाकार प्रवाल भित्ति का आकार धीरे-धीरे बड़ा हो जाता है। मरे के सिद्धान्त के निम्न प्रमाण हैं-

  • अधिकतर उथले सागरों में प्रवाल भित्तियाँ जल के डूबे हुये पठारों पर मिलती है।
  • परीक्षण करने के उपरान्त प्रमाण मिले हैं कि प्रवाल भित्तियाँ 60 मीटर की गहराई तक ही निर्मित मिलती हैं।
  • समुद्रों से बनी अनेक वलयाकार प्रवाल भित्तियाँ ऐसी मिलती हैं जिनकी रचना अवतलन के बिना हुयी।
आलोचना
  • मरे के मतानुसार प्रवाल भित्तियों के निर्माण के लिये अनेक अन्तःसागरीय शिखर तथा चबूतरे होने आवश्यक हैं, जो कि असम्भव है।
  • मरे ने एक ही जगह पर 30 फैदम की गहराई तक अपरदन तथा निक्षेप की दो अपस में एक-दूसरे से विपरीत क्रियाओं का वर्णन किया है जो कि तथ्य के अनुकूल नहीं है।
  • मरे ने यह बताया है कि प्रवालों की रचना 30 फैदम से अधिक गहराई में नहीं पायी जाती है लेकिन इससे अधिक गहराई में भी प्रवाल जीव पाये जाते हैं।
  1. डेली का हिम नियन्त्रण सिद्धान्त (Glacial Control Theory of Daly) :

    सन् 1919 में डेली महोदय ने अपने सिद्धान्त को प्रस्तुत किया। इन्होंने अपने सिद्धान्त में बताया कि हिमकाल में जब सागरों का बहुत सारा पानी बर्फ के रूप में जम गया तो सागरीय जल के बर्फ में बदल जाने के कारण सागर तल में लगभग 60 मीटर की गिरावट आयी जिससे समुद्र के बहुत से डूबे हुये भाग ऊपर दिखायी देने लगे, जिनके ऊपर हिम युग से पहले, निर्मित प्रवाह रचनायें भी मौजूद थीं।

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