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भारत में पर्यावरणीय समस्याएँ

भारत में पर्यावरण की समस्याएं

भारत में पर्यावरण की समस्याएं

(Environmental Problems in India)

किसी भी देश की पर्यावरणीय समस्याएँ इसके आर्थिक विकास के स्तर, प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता तथा उस देश की आबादी की जीवन शैली से सम्बन्धित होती हैं। हमारे देश में जनसंख्या विस्फोट, शहरीकरण, औद्योगीकरण, निर्धनता आदि ऐसे घटक है जिन्होंने पर्यावरण का तेजी से अवनयन किया है।

भारत देश के विभिन्न भागों में पर्यावरणीय समस्याएँ गम्भीर स्थिति धारण कर चुकी है, इसलिए, इन समस्याओं की उपेक्षा नहीं की जा सकती। भारत में प्रमुख पर्यावरणीय समस्याएँ, विशेष रूप से महानगरों एवं औद्योगिक क्षेत्रों के सम्बन्ध में जल प्रदूषण एवं वायु प्रदुषण की है। देश में सामान्य सम्पत्ति संसाधनों का अवनयन होने से निर्धनों पर अधिक गम्भीर प्रभाव पड़ता है। जैव विविधता का दबाव, ठोस अपशिष्ट पदार्थों की अनुचित प्रणाली, स्वच्छता के अभाव आदि के कारण स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है तथा मृत्युदर बढ़ जाती है। ऐसे सभी कार्य, कारण दशाएँ, जिनके परिणामस्वरूप पर्यावरण क्षतिग्रस्त, नष्ट, विकृत या विलोपित होता है, उन्हें पर्यावरणीय समस्याएँ कहा जाता है। पर्यावरणीय समस्याओं से देश में मानवीय जीवन को खतरा आर्थिक क्षति, जीवन की गुणवत्ता में कमी तथा अन्य गैर-निदान योग्य कंठिनताएँ आती हैं। सामान्य रूप से भारत में पर्यावरणीय समस्याएँ निम्नलिखित दो प्रकार की है :

(i) प्राकृतिक पर्यावरणीय खतरे या समस्याएँ – प्राकृतिक पर्यावरणीय खतरे अथवा समस्याएँ ऐसी पर्यावरणीय स्थितियाँ हैं जिनसे अनजाने में ही जीवन तथा सम्पत्ति को नुकसान पहुँचता है। प्राकृतिक पर्यावरणीय खतरों को दैवीय प्रकोप अथवा ‘प्रकृति दत्त अनहोनी’ कह सकते हैं। प्राकृतिक पर्यावरणीय समस्याएँ कब, कितनी एवं कैसी होंगी, इसका सभी दशाओं में पूर्वानुमान लगाना अत्यन्त कठिन होता है। सूखा, भूकम्प, कुहरा, बर्फबारी, पाला गिरना, तूफान, गर्म व शर्द हवाएँ, बिजली गिरना, सूखा, बाढ़, चक्रवात आदि प्राकृतिक पर्यावरणीय समस्याएँ है।

अब विज्ञान एवं तकनीक से इन समस्याओं से उत्पन्न होने वाली समस्याओं को कम अथवा नियंत्रित करने तथा पूर्वानुमान लगाने की सम्भावनाएँ बढ़ी है।

प्राकृतिक खतरों के लिए कुछ सीमा तक मनुष्य की जाने-अनजाने में की गयी गतिविधियाँ भी उत्तरदायी हैं। उदाहरण के तौर पर, भारत में वनों की अधिक कटाई किए जाने से सूखा एवं बाढ़ का घटनाएं बढ़ी है। इसी प्रकार भारत में भूगर्भीय जल का अत्यधिक दोहन किए जाने से भूकम्प आने की सम्भावना बढ़ी है।

(ii) मानवकृत पर्यावरणीय गड़बड़ियाँ या विघ्न / समस्यायें – भारत में किसी न किसी प्रकार से लोगों के कार्यों के कारण पर्यावरणीय समस्याएँ एवं विकृतियाँ उत्पन्न हो रही है। देश में रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशक पदार्थों के उपयोग में वृद्धि से भूमि की स्वाभाविक उर्वरता कम हो रही है। भारत में मानवकृत पर्यावरणीय समस्याएँ निम्नलिखित हैं

  1. जनसंख्या के पर्यावरणीय प्रभाव-

    भारत में जनसंख्या वृद्धि बहुत तेजी से हुई है। अत्यधिक जनसंख्या वृद्धि अथवा जनसंख्या (विस्फोट) ने पर्यावरणीय विकृतियों में वृद्धि की है। इससे पर्यावरण संरक्षण में भी बाधाएँ आती है। भारत में विश्व का सर्वाधिक जनसंख्या वाला दूसरा देश है। जबकि क्षेत्रफल की दृष्टि से सातवाँ देश है। यह विश्व की लगभग 1/5 जनसंख्या रहती है। वर्ष 2017 के अनुमानों के अनुसार भारत की कुछ जनसंख्या 1, 32, 41, 71, 354 है तथा इसमें 1.19% की दर से वृद्धि हो रही है। भारत का जनसंख्या घनत्व 382 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी. है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष द्वारा जारी विश् व जनसंख्या, रिपोर्ट (2004) के अनुसार वर्ष 205 तक भारत की जनसंख्या 1.53 अरब हो जायेगी तथा तब भारत विश्व का सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश होगा। भारत में अत्यधिक जनसंख्या के कारण पर्यावरण को निम्नलिखित कारणों से क्षति पहुँच रही है।

  • भोज्य पदार्थों की माँग बढ़ना (Increase in demand of edibles)-

    देश की अधिक जनसंख्या के लिए बड़ी मात्रा में भोज्य सामग्री की आवश्यकता होती है। अत: देश में खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने के लिए अधिक रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक एवं अन्य रासायनिक पदार्थो का कृषि में उपयोग किया जाता है। इससे मृदा प्रदूषण बढ़ता है। भारत में वर्ष 1950-51 में रासायनिक उर्वरकों का उपयोग नगण्य था। 1 वर्ष 2010-11 में प्रति हेक्टेयर रासायनिक उर्वरकों का उपयोग 144 किग्रा था।

  • अपशिष्टों में वृद्धि (Increase in Wastes) –

    अत्यधिक जनसंख्या के कारण ठोस तथा तरल दोनों प्रकार के अपशिष्ट पदार्थों की मात्रा में वृद्धि होती है। ठोस अपशिष्टों में मानव मल तथा घरेलू कचरा आता है। भारत में शहरों एवं महानगरों के ठोस अपशिष्ट पदार्थों को नष्ट करना एक बड़ी समस्या है। तरल अपशिष्टों के निस्तारण के कारण जल स्रोत प्रदूषित होते हैं।

  • मृदा क्षरण (Soil Erosion) –

    रासायनिक पदार्थों का अत्यन्त उपयोग किए जाने से मिट्टी का क्षरण बढ़ रहा है तथा उर्वतरता कम होती जा रही है।

  • उपभोगवादी संस्कृति (Consumeristic Culture) –

    भारत में अत्यधिक जनसंख्या वृद्धि के कारण यहाँ उपभोगवादी संस्कृति तेजी से बढ़ रही है। उपभोग प्रवृत्ति के कारण ही अम्लीय वर्षा, जलवायु में अवांछनीय बदलाव, वायुमण्डल में कार्बन डाईआक्साइड, तापमान में निरन्तर वृद्धि के दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं।

  • नगरीकरण एवं औद्योगीकरण (Urbanisation and Industrialisation) –

    भारत में औद्योगिक प्रगति के परिणामस्वरूप लोग गाँवों से शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं. इससे नगरों में झुग्गी-झोपड़ियाँ बढ़ रही है, जहाँ साफ-सफाई, जल-निकासी आदि सुविधाओं की कमी है। उद्योगों द्वारा छोड़े जाने वाले धुल एवं धुएँ से भी पर्यावरण को क्षति हो रही हैं।

भारत में पर्यावरण के विभिन्न घटक जैसे- वायु, जल, मिट्टी, तापमान, वन, वन्य जीव आदि सभी पर जनसंख्या का प्रभाव पड़ता रहा है। देश में बढ़ती हुई ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए ऊर्जा के स्रोतों का अति दोहन हो रहा जिससे पर्यावरण पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। भारत में बढ़ी हुई जनसंख्या देश में उपलब्ध संसाधनों एवं उपभोक्ताओं के अनुपात को बिगाड़ रही है। जिससे कई भयानक समस्याएँ, जैसें – (i) भोजन, कपड़ा एवं आवास की कमी, (ii) जीवन-यापन का निम्नस्तर (iii) शिक्षा व स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ, (iv) बेरोजगारी आदि में वृद्धि हो रही। इस प्रकार देश में जनसंख्या का अधिक होना ‘जीवन की गुणवत्ता’ को नीचे गिरा रहा है।

वर्ष 1972 में स्टॉकहोम में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा आयोजित किए गए ‘मानव पर्यावरण पर अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन’ में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने पर्यावरण पर सम्बोधित करते हुए कहा था, “अधिक आबादी निर्धनता को बुलावा देती है और निर्धनता प्रदूषण को ‘जन्म देती है।”

  1. वनों का अवनयन (Forest Degradation) –

    भारत में वनोन्मूलन के परिणामस्वरूप पर्यावरण का अवनयन हो रहा है। देश में अत्यधिक जनसंख्या के कारण वनों को काटकर कृषि क्षेत्र को बढ़ाया जा रहा है। देश में वनों की अत्यधिक कटाई के लिए जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ खनन सम्बन्धी क्रियाएँ, बड़े-बड़े उद्योगों की स्थापना, बाँधों का बनाया जाना आदि जिम्मेदार है। देश में वनों का उन्मूलन होने से भूक्षरण हो रहा है तथा बाढ़ आदि प्राकृतिक खतरे बने हुए हैं। वनों के अभाव में जलवायु में परिवर्तन, आर्थिक हानि आदि समस्याएँ उत्पन्न हो रही है। वनों के अवनयन में मनुष्य के जीवन को क्षति पहुँचाने के साथ-साथ विभिन्न पक्षियों के जीवन को भी खतरे में डाल रखा है। भारत में वनोन्मूलन के कारण शहरों एवं गाँवों में जल सम्बन्धी समस्याएँ उत्पन्न हो रही है।

वनों को पर्यावरण का महत्वपूर्ण कारक माना जाता है तथा यह पारिस्थितिक तन्त्र में सर्वाधिक प्रभावित करता है। वनों को जलवायु के नियंत्रक के रूप में देखा जाता है। इससे तापमान नियंत्रित रहता है तथा वायुमण्डलीय आर्द्रता संतुलित रहती है। पेड़-पौधें कार्बन डाईआक्साइड को शोषित कर पर्यावरण को शुद्ध रखने में सहायक होते हैं। देश में वनों की कमी होने से वायु प्रदूषण बहुत अधिक बढ़ रहा है। देश के कुछ शहरों में यह अत्यन्त हानिकारक स्थिति में पहुँच गया है।

पर्यावरणीय संतुलन स्थापित करने में वनों का योगदान रहता है। ये तेज चलने वाली हवाओं को रोकते हैं तथा जलवायु को सम बनाते हैं, वर्षा काल में वन भारी में पानी सोख लेते है भूमिगत स्तर ऊँचा बना रहता है। वनों से मिट्टी का कटाव रुकता है तथा पानी का बहाव नियंत्रित रहता है। इस प्रकार वनों के पर्यावरण को संतुलित बनाए रखने में वनों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। यदि देश में वनों के पतन को रोककर इनका बेहतर विकास नहीं किया गया है तो इसके घातक परिणाम होंगे, जैसे मरुस्थल फैलेगा, बंजर भूमि में वृद्धि होगी तथा वायु-वेग नियंत्रण से बाहर हो जायेगा। कुल पर्यावरण में असंतुलन स्थापित होगा।

  1. भू-अवनयन (Land Degradation)-

    भारत में भूमि का अवनयन तेजी से हो रहा है। वर्ष 2011-13 में कुल भूमि की 29.3% भूमि इस तरह की हो चुकी थी। इसमे 0.57% की वृद्धि हो रही है। जोकि 1.87 मिलियन हेक्टयर के लगभग है। भू-अवनयन के प्रमुख कारणों में भूमि पर वनस्पतियों का अभाव होना है। देश के दिल्ली एवं उत्तरी राज्यों में भू-अवनयन बहुत अधिक हुआ है। भू-अवनयन के परिणास्वरूप कृषि की उत्पादकता, जैव विविधता, जल की गुणवत्ता, पोषणीय विकास, मानव एवं जंगली जीव की रहने की आवश्यकता विपरीत से प्रभावित हो रही है। भारत में भू-अवनयन के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

  • जलवायु परिवर्तन
  • भूमि निकासी तथा वनों का बड़ी मात्रा में काटा जाना
  • खराब कृषि सम्बन्धी क्रियाओं के कारण मृदा में पोषक तत्वों की गिरावट
  • पशुओं की अत्यधिक चराई।

भारत में भूमि अवनयन का कारण जल क्षरण है। देश में बढ़ती हुई अबादी के लिए भोजन, ऊर्जा एवं आवास की व्यवस्था की माँग के कारण भूमि उपयोग के तरीके अनुचित रूप से बदले हैं जिससे देश के पर्यावरण का भी अवनयन हुआ है।

  1. प्रदूषण (Pollution)-

    देश में विभिन्न प्रकार का प्रदूषण बहुत अधिक बढ़ा है-

  • वायु प्रदूषण (Air Pollution) –

    ‘वायु प्रदूषण ने वायु की मूल संरचना से छिन्न-भिन्न कर दिया है। वायु प्रदूषण के बढ़ने के कारणों में वनों की कटाई, जीवाश्म ईंधन का अत्यधिक प्रयोग, औद्योगीकरण, क्लोरोफ्लोरो कार्बन की मात्रा की वायु मण्डल में निरन्तर वृद्धि आदि शामिल हैं। वायु प्रदूषण के कारण उत्पन्न होने वाले संभावित खतरे निम्नलिखित हैं- ग्रीन हाउस प्रभाव, तेजाबी वर्षा, ओजोन पर्त का क्षय, स्मोग घटनाएँ।

भारत में वायु प्रदूषण एक प्रमुख पर्यावरणीय समस्या है। इस समस्या का कारण लकड़ी को ईंधन के रूप में उपयोग करना, वाहनों से धुआँ छोड़ा जाना आदि है। वायु प्रदूषण के कारण एशियाई क्षेत्र में ब्राउन बादल बनते है जिनसे मानसून में विलम्ब होता है। भारत विश्व का ईंधन के लिए लकड़ी का उपयोग करने, कृषि कचरा का उपयोग करने के क्षेत्र में सबसे आगे है। भारत ग्रामीण क्षेत्रों में कुल ऊर्जा उपभोग का लगभग 90% जलाऊ लकड़ी, फसलों के अवशेषों को जलाने, ओपले जलाने से होता है।

प्रतिव्यक्ति आधार पर भारत कार्बन डाइआक्साइड हरित गृह को कम छोड़ता है। वर्ष 2009 में आई. ई. ए द्वारा लगाए गए अनुमान के अनुसार भारत कार्बन डाइआक्साइड तीसरा सबसे बड़ा त्याग करता देश है।

  • जल प्रदूषण (Water Pollution)-

    शहरों तथा गाँवों में पीने का शुद्ध जल उपलब्ध नहीं है। औद्योगिक जल स्त्रोव ाव, घरेलू मल-जल, वर्षा के जल के साथ आने वाली गन्दगी, भू-जल का अति उपयोग आदि अनेक ऐसे कारण हैं जिनसे पीने के पानी के स्रोत तथा भू-गर्भ जल भण्डार प्रदूषित हुए हैं। दूषित जल से मानव स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है।

  • मिट्टी प्रदूषण (Soil Pollution)-

    कृषि में उर्वरकों, कीटनाशकों तथा अन्य रासायनिक तत्वों ने भूमि को प्रदूषित किया है। भूमि प्रदूषण से जल-प्रदूषण हुआ है। भू-जल का सिंचाई में उपयोग से जल-स्तर लगातार कम हो रहा है। वृक्षों की कटाई न भू-क्षरण तथा, मरुथलों को बढ़ावा दिया हैं।

  • ध्वनि प्रदूषण (Noise Pollution)-

    यातायात के साधनों, औद्योगीकरण, भारी भीड़, मनोरंजन के साधनों आदि ने ध्वनि प्रदूषण को प्रोत्साहित किया है।

  • प्राकृतिक संसाधनों का दोहन (Exploitation)-

    मानव के अपने लाभ के लिए पुनर्उत्पादनीय तथा गैर-पुनर्उत्पादनीय संसाधनों का अत्यधिक उपयोग किया है। कोयला, खनिज तेल, गैस तथा अनेक खनिजों की उपलब्धता कहाँ से होगी ? यह एक विकट व गम्भीर स्थिति उत्पन्न कर रही

  1. अन्य समस्यायें (Other Problem)-

    भारत में पर्यावरण सम्बन्धी कुछ अन्य समस्याएँ निम्नलिखित हैं-

  • भारत में प्लास्टिक के उपयोग में वृद्धि (Increase in use of Plastic in India)-

    भारत में प्लास्टिक का विभिन्न रूपों में उपयोग बढ़ रहा है जो पर्यावरण के लिए एक बड़ा खतरा है।

  • तटीय क्षेत्र प्रबन्धन (Coastal Zone Management) –

    तटीय क्षेत्रों में तीव्र आर्थिक वृद्धि ने न केवल समुद्री जीवों पर विपरीत प्रभाव डाला है वरन् समुद्र के पास रहने वाले लोगों तथा मछुआरों की जीविका को भी क्षति पहुँचायी है।

  • जलवायु परिवर्तन (Climate Change)-

    क्षयशील ऊर्जा संसाधनों पर अत्यधिक निर्भरता, अत्यधिक आबादी आदि घटकों के संयोजन से जलवायु परिवर्तन हो रहा है।

  • मनुष्य-जानवर संघर्ष (Man- Animal Conflict)-

    देश में चीतें, शेर आदि जीव समाप्त होते जा रहे हैं। इन जीवों के समाप्त होने का कारण व्यक्ति- जानवरों के बीच होने वाला संघर्ष

  • अनियंत्रित खनन (Uncontrolled Mining)-

    सरकार द्वारा समर्थन दिये जाने के कारण देश में खनन की गतिविधियाँ बढ़ी हैं। जिसमें खनन सम्पन्न क्षेत्रों में पर्यावरणीय अवनयन एवं वनोन्मूलन को बढ़ावा मिला है।

भारत में पर्यावरण के प्रति जवाबदेही तथा सार्वजनिक भागीदारी का अभाव है तथा जंगली जीवों की सुरक्षा के लिए प्रयास अपर्याप्त है। देश को पर्यावरणीय क्षति से बचाने के लिए अत्यधिक प्रयास किए जाने की आवश्यकता है।

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