शिवाजी का केन्द्रीय प्रशासन
शिवाजी का केन्द्रीय प्रशासन
1674 ई0 तक शिवाजी की शक्ति और उनका प्रभाव क्षेत्र अत्यधिक विकसित हो चला था। लगभग संपूर्ण महाराष्ट्र उनके अधिकार में आ चुका था। 16 जून, 1674 को उन्होंने रायगढ़ के दुर्ग में अपना विधिवत राज्याभिषेक किया एवं ‘छत्रपति’ की उपाधि धारण की। इसके साथ ही उनका स्वतंत्र मराठा राज्य स्थापित करने का स्वप्न पूरा हुआ। शिवाजी ने अपने परिश्रम, साहस, वीरता और कूटनीतिज्ञता के बल पर मराठा राज्य की स्थापना की। न तो औरंगजेब और न ही दक्षिण के शिया राज्य शिवाजी के इस कार्य को रोक सके। राज्य की स्थापना के साथ ही शिवाजी की स्थिति में महत्वपूर्ण परिवर्तन आ गया। अब वह मराठों के सर्वशक्तिशाली और सर्वमान्य नेता के रूप में सामने आए। अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए शिवाजी ने प्रमुख मराठा वंशों से वैवाहिक संबंध स्थापित किए। राज्याभिषेक के अवसर पर उपस्थित ब्राह्मणों ने उन्हें क्षत्रिय घोषित कर राजपद के लिए वैधानिक अधिकार प्रदान किए। अब वह एक जागीरदार अथवा लूटेरा मात्र नहीं थे, बल्कि मराठा राज्य के संस्थापक बन गए। उनकी स्थिति अब दक्षिण के एक स्वतंत्र और शक्तिशाली शासक की हो गई। मराठा राज्य के उदय के साथ ही दक्षिण भारतीय राजनीति ने एक नया मोड़ लिया। बीजापुर और गोलकुंडा तो शीघ्र ही मुगल साम्राज्यवाद के शिकार बन गए, परन्तु शिवाजी ने राष्ट्रप्रेम की जो भावना मराठों में जगाई, उसे मुगल नष्ट नहीं कर सके। मराठों ने मुगलों को नाकों चने चबवा दिए।
शासक बनने के पश्चात शिवाजी के दो प्रमुख लक्ष्य थे- अपने राज्य की सीमा का विस्तार कर इसे स्थायित्व प्रदान करना तथा राज्य की आंतरिक व्यवस्था को सुदृढ़ करना। इसके लिए उन्होंने अनेक सैनिक अभियान किए तथा प्रशासनिक सुधार किए। उन्होंने मुगलों तथा बीजापुर से पुनः संघर्ष आरम्भ कर दिया। उन्होंने मुगल सेनापति बहादुर खाँ के शिविर पर आक्रमण कर पेंडगाँव में स्थित मुगल खजाने को लूट लिया। इससे उनकी आर्थिक समस्या कुछ दूर हुई। उन्होंने खानदेश, बंगलाना, कोल्हापुर इत्यादि मुगल अधीनस्थ इलाकों पर भी आक्रमण किए। बीजापुर राज्य के इलाकों पर कभी वे हमला करते तो कभी मुगलों के विरुद्ध उसकी सहायता कर उससे धन वसूलते। शासक के रूप में उनका सबसे अधिक महत्वपूर्ण कार्य था- कर्नाटक में अपनी शक्ति का विस्तार करना। उन्होंने बीजापुर के विरुद्ध गोलकुंडा से संधि कर ली। बीजापुरी कर्नाटक में अपनी शक्ति का विस्तार करना। उनहोंने बीजापुर के विरुद्ध गोलकुंडा से संधि कर ली। बीजापुरी कर्नाटक क्षेत्र को कुतुबशाही सुलतान और शिवाजी ने आपस में बाँट लेने का फैसला किया। कुतुबशाह ने शिवाजी को एक लाख हून प्रतिवर्ष कर देने एवं एक मराठा प्रतिनिधि को अपने दरबार में रखने एवं सैनिक सहायता देने का भी आश्वासन दिया। इस संधि से शिवाजी की शक्ति और प्रतिष्ठा बढ़ गई। इसका लाभ उठाकर उन्होंने बीजापुर से जिंजी और वेलोर को छीन लिया। इसके अतिरिक्त तुंगभद्रा से कावेरी नदी के बीच का इलाका भी उन्होंने जीत लिया। इतना ही नहीं उन्होंने इसमें से संधि के अनुसार गोलकुंडा को कोई हिस्सा नहीं दिया तथा पुनः बीजापुर को अपने पक्ष में मिलाने का प्रयास किया। जंजीरा के सीदियों से भी उनका संघर्ष हुआ। दुर्भाग्यवश कर्नाटक अभियान से वापस लौटने के कुछ समय बाद ही 14 अप्रिल, 1680 को उनकी मृत्यु हो गई।
शिवाजी ने अपने साहस और पराक्रम से एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना कर ली। उनके राज्य के अंतर्गत संपूर्ण महाराष्ट्र कोंकण और कर्नाटक का एक बड़ा क्षेत्र सम्मिलित था। उनका राज्य उत्तर में रामनगर से लेकर दक्षिण में कारवार तथा पूर्व में बगलाना से कोल्हापुर तक विस्तृत था। मैसूर तथा पश्चिमी कर्नाटक एक बड़ा भाग भी उनके राज्य में सम्मिलित था। जहाँ दक्षिण की शिया रियासतें मुगलों से संघर्ष करते-करते अपना अस्तित्व खो बैठी, वहीं शिवाजी ने दक्षिणी रियासतों एवं मुगलों से लंबा संघर्ष कर एक स्वतंत्र और शक्तिशाली मराठा राज्य को जन्म दिया। यह उनकी बहुत बड़ी उपलब्धि थी। मराठा राज्य के संस्थापक के अतिरिक्त शिवाजी की गणना एक कुशल प्रशासक के रूप में भी होती हैं नवनिर्मित मराठा राज्य की प्रशासनिक संरचना में भी शिवाजी की सूझ-बूझ और उनकी कुशलता देखी जा सकती है। अनेक विद्वानों ने शिवाजी के प्रशासन की तुलना अफगान शासक शेरशाह और मुगल सम्राट अकबर से की है। शिवाजी का आदर्श ‘हिन्दू राजशाही’ की स्थापना थी। इसलिए, उन्होंने प्राचीन भारत में प्रचलित प्रशासनिक व्यवस्था के अनेक तत्वों को अपना लिया परन्तु यह पूर्णतः हिन्दू शासन-प्रणाली पर ही आधृत नहीं था।
राजा की स्थिति
केन्द्रीय प्रशासन राजतंत्रात्मक व्यवस्था के अनुरूप मराठा राजा (शिवाजी) शासन का प्रधान होता था। राज्य की सारी शक्तियाँ उसी के हाथों में केन्द्रित रहती थीं। सिद्धांततः, वह स्वेच्छारी और निरंकुश शासक होता था जिस पर किसी भी प्रकार का वैधनिक नियंत्रण नहीं था। राजपद वंशानुगत था। प्रजा को प्रशासन में दखल देने का अधिकार नहीं था। इस प्रकार, शिवाजी का प्रशासन भी दक्षिणी रियासतों एवं मुगलों की तरह स्वेच्छारी था; परन्तु व्यावहारिक स्थिति भिन्न थी। सर्वशक्तिमान होते हुए भी शिवाजी एक निरंकुश शासक की तरह नहीं बल्कि प्रजावत्सल शासक के समान शासन करते थे। वे राज्य के हिन्दू-मुस्लिम प्रजा को एक नजर से देखते एवं उनमें भेद-भाव नहीं करते। वे ब्राह्मण, गाय और हिन्दूधर्म की उतनी ही श्रद्धा से रखा करते थे जितनी की कुरान की। मुसलमानों को भी मराठा राज्य में प्रशासनिक सेवाओं पर बहाल किया। शिवाजी प्रशासन में व्यक्तिगत दिलचस्पी लेते थे एवं अधिकारियों पर कड़ा अनुशासन बनाए रखते थे। इससे प्रशासनिक अत्याचार नहीं बढ़े और राज्य में शांति-व्यवस्था बनी रहे।
अष्ट-प्रधान
मध्यकालीन रीति के अनुसार शिवाजी एक निरंकुश शासक थे और सारी शक्ति अपने ही हाथ में रखते थे। किन्तु वे प्रजा का कल्याण चाहते थे अतः उन्हें हम दयालु निरंकुश शासक कह सते हैं। उन्होंने शासन-प्रबन्ध में सहायता देने के लिए आठ मन्त्री रख छोड़े थे। इन मन्त्रियों की आजकल जैसी समिति तो नहीं थी क्योंकि वे केवल शिवाजी के प्रति ही उत्तरदायी थे। शिवाजी उन्हें रखने या निकालने को पूर्ण स्वतन्त्र थे। किन्तु उन्होंने मन्त्रियों के हाथ में बहुत-सा काम सौंप रखा था और केवल राज्य की नीति-निर्धारण को छोड़कर वे उनके काम में बहुत कम दखल देते थे। किन्तु मन्त्रियों का काम केवल सलाह देना मात्र था। मन्त्रियों में पेशवा का अधिक मान था और वह राजा का अधिक विश्वासपात्र था किन्तु अपने साथियों में उसकी प्रमुखता न थी। ये मन्त्री अष्टप्रधान कहलाते थे। वे इस प्रकार थे-
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प्रधानमंत्री अथवा पेशवा–
यह मुख्य प्रधान कहलाता था। उस पर राज्य के सभी मामलों की देखभाल और प्रजा के हित का उत्तरदायित्व था। अतः सब अफसरों पर नियन्त्रण रखना और राजकाज को सुविधापूर्वक चलाना उसका मुख्य कर्तव्य था। राजा की अनुपस्थिति में राजा की ओर से काम करता था और तमाम राजकीय-पत्रों एवं सन्देशों पर राजा की मुहर के नीचे अपनी मुहर लगाता था।
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हिसाब जाँचने वाला (ऑडीटर) मजमुआदार या अमात्य–
इसका काम आय-व्यय के सब लेखों की जाँच कर उन पर हस्ताक्षर करना था, चाहे वे सारे राज्य से सम्बन्ध रखते हों अथवा किसी विशेष जिले के हों।
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मन्त्री का वाकयानवीस–
यह राजा के दैनिक कार्यों को लिखता था। गुप्त रूप से कोई राजा की हत्या न कर दे इसलिए उसके मिलने वालों की सूची तैयर करता था और उसके खाने-पीने की चीजों पर सतर्क दृष्टि रखता था।
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शुरू नवीस या सचिव–
इसका काम तमाम राजकीय-पत्रों को पढ़कर उसकी भाषा-शैली को देखना था। परगनों के हिसाब को जाँच भी इसी के जिम्मे थी।
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विदेश–मन्त्री, दवीर या सुमन्त–
यह विदेशों से सम्बन्ध रखने वाले मसलों और सन्धि-विग्रह के प्रश्नों पर राजा की सलाह देता था। यह विदेशी राजदूत और प्रतिनिधियों की देख रेख करता था और गुप्तचरों द्वारा दूसरे राज्यों की गुप्त खबरें मैंगवाता था।
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सरे–नौबत या सेनापति–
इसका काम सेना की भरती, संगठन और अनुशासन रखता था। युद्ध क्षेत्र में सेना की तैनाती करना भी इसी का काम था।
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सदर मुहतसिब या पण्डित राव या थानाध्यक्ष–
इसका माख्य काम धार्मिक कृत्यों की तिथि निश्चित करना, पापाचार और धर्म-भ्रष्टता के लिए दण्डं देना तथा ब्राह्मणों में दान बँटवाना था। धर्म एवं जाति सम्बन्धी झगड़ों को निपटाना और प्रजा के आचरण को सुधारना भी इसी का काम था।
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न्यायाधीश–
यह राज्य का सबसे बड़ा न्यायाधीश था। सैनिक व असैनिक न्याय करना और भूमि-अधिकार तथा गाँव की मुखियागीरी आदि के निर्णयों पर अमल करना इसका काम था।
थानाध्यक्ष और न्यायाधीश को छोड़कर अन्य सब मन्त्रियों को समय-समय पर फौज का नेता बनकर लड़ाई में जाना पड़ता था। तमाम राजकीय-पत्रों, फरमानों और सन्धिपत्रों पर पहले राजा की और फिर पेशवा की मोहर लगती थी और सबसे नीचे अमात्य, मन्त्री, सचिव और सुमन्त इस चार प्रधानों के हस्ताक्षर होते थे।
सैन्य संगठन
मराठा राज्य की स्थापना सैनिक शक्ति के बल हुई थी। अतः, इसकी सुरक्षा के लिए शिवाजी ने सैन्य संगठन पर विशेष ध्यान देना। वे सैनिकों की नियुक्ति, उनके प्रशिक्षण एवं अनुशासन पर व्यक्तिगत ध्यान देते थे। उनके पस एक विशाल और स्थायी सेना थी। शिवाजी की सेना विभिन्न टुकड़ियों में बँटी हुई थी। शिवाजी की नियमित और व्यक्तिगत सेना की टुकड़ी पागा अथवा बरगीर के नाम से जानी जाती थी। इस टुकड़ी में करीब 45,000 सर्वश्रेष्ठ घुड़सवार थे। यह सेना सेनापति के अधीन थी। सेना को विभिन्न टुकड़ियों में विभक्त कर उन्हें क्रमशः पंचहजारी, एकहजारी, जुमलादार और हवलदार के सुपुर्द कर दिया गया था। पागा सैनिकों को युद्ध के सामान और वेतन राज्य की ओर से दिए जाते थे। घुड़सवार सेना की दूसरी टुकड़ी सिलहदार कहलाती थी। ये अस्थयी थे। आवश्यकतानुसार, इनकी नियुक्ति की जाती थी। इन सैनिकों को अपने साजो-सामान की व्यस्था स्वयं करनी पड़ती थी। इस सेना का संगठन भी बहुत कुछ पागा जैसा था; परन्तु इन्हें राज्य से नियमित वेतन नहीं मिलता था। शिवाजी की सेना में पैदल सेना की भी एक बड़ी टुकड़ी थी। पैदल सैनिक पाइक के नाम से जाने जाते थे। इसे भी विनि टुकड़ियों में बाँटकर सैनिक अधिकारियों के सुपुर्द कर दिया गया था। सेनापति के नीचे क्रमशः सातहजारी, एकहजारी, जुमलादार, हवलदार और नायक इस सेना के कार्य देखते थे। शिवाजी की सेना में ऊँट और हाथी की टुकड़ियाँ तथा एक तोपखाना भी था। शिवाजी ने एक जल बेड़े का भी गठन किया, परन्तु तोपखाना और नौसेना बहुत अधिक विकसित और सुसंगठित नहीं थी। सैनिक कार्य में सहायता के लिए गुप्तचर विभाग का भी गठन किया गया जो युद्ध के मौके पर महत्वपूर्ण जानकारियाँ उपलब्ध कराते थे।
शिवाजी ने दुर्गों की देखरेख और सैनिक अनुशासन पर भी ध्यान दिया। दुर्गों की सुरक्षा के लिए विशेष व्यवस्था की गई, क्योंकि ये दुर्ग ही मराठा शक्ति के वास्तविक आधार थे। इनमें सेना, साज-सामान और खजाना सुरक्षित रहता था। इसलिए, इन दुर्गों की सुरक्षा का भार मावल प्यादों और तोपचियों के जिम्मे सुपुर्द किया गया। किले की सुरक्षा की जिम्मेदारी हवलदार को सौंपी गई। शिवाजी सेना में कड़ा अनुशासन बनाए रखते थे। इतिहासकार खफी खाँ शिवाजी की सेना की प्रशंसा करते हैं। उनके अनुसार, सैनिकों का किसी धार्मिक स्थल, धर्मग्रंथ अथवा स्त्री को क्षति पहुँचाने अथवा तंग करने का अधिकार नहीं था। फसल नष्ट नहीं कर सकते थे अथवा निरपराध लोगों को परेशान नहीं कर सकते थे। युद्ध के मोर्चे पर अपने साथ वे सिर्फ आवश्यक सामान ही ले जा सकते थे। शिवाजी ने अपनी सेना में मुसलमानों को भी नियुक्त किया एवं उनके साथ भेद-भाव नहीं बरता। कठोर अनुशासन ने मराठा सेना को अत्यधिक शक्तिशाली बना दिया जिसके आधार पर शिवाजी लंबे समय तक मुगलों और दक्षिणी रियासतों से संघर्ष करते रहे।
राजस्व-व्यवस्था
सेना की ही तरह शिवाजी ने राजस्व-व्यवस्था के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण कार्य किए। उनके समय में राजा को मुख्यतः लगान, चुंगी एवं बिक्री कर तथा चौथ एवं सरदेशमुखी कर से आमदनी होती थी। युद्ध के लूट से भी धन मिलता था। चौथ और सरदेशमुखी करों का वास्तविक स्वरूप विवादास्पद है। ये एक प्रकार के सैनिक कर प्रतीत होते हैं, जिन्हें पड़ोसी राजाओं की सीमाओं, विजित क्षेत्रों अथवा मराठा प्रभाव के अंतर्गत आनेवले इलाकों से सैनिक सुरक्षा के बदले वसूला जाता था, परन्तु वास्तविकता भिन्न थी। शिवाजी यह कर जबर्दस्ती वसूलते थे एवं सदैव सैनिक सुरक्षा भी प्रदान नहीं करते थे। चौथ वार्षिक आमदनी का 1/4 भाग था। सरदेशमुखी 1/10वाँ भाग था। यद्यपि ये कर उचित नहीं हराए जा सकते हैं, तथापि इनसे मराठा राज्य को बहुत अधिक आमदनी होती थी।
शिवाजी ने भूमि-व्यवस्था में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन किया। अपने सुधारों के लिए उन्होंने मलिक अम्बर की लगान की व्यवस्था को आधार बनाया। 1679 ई० में अन्नाजी दत्तों द्वारा पूरी जमीन का सर्वेक्षण करवाया गया और उसके आधार पर लगान की राशि तय की गई। भूमि को तीन भागों में उपज के आधार पर विभक्त किया गया। पट्टीभूमि, उद्यान और पहाड़ीभूमि। पहले से उपज का 2/5वाँ भाग, दूसरे से 1/2 भाग और तीसरे से नाम मात्र का लगान वसूला गया क्योंकि इसमें उपज बहुत कम होती थी।
शिवाजी ने किसानों को राहत पहुंचाने के लिए भी अनेक कार्य किए। लगान की वसूली के लिए किसानों से सीधा संपर्क स्थापित करने का प्रयास किया गया। जागीरदारी और जमींदारी प्रथा के स्थान पर रैयतवाड़ी-व्यवस्था को प्रोत्साहन दिया गया। यद्यपि शिवाजी जमींदारी-प्रथ (देशमुखी) को समाप्त नहीं कर सके और न ही उन्होंने जागीरें (मोकासा) देना पूर्णतः बन्द किया, तथापि उन्होंने देशमुखी और मिरासदरों (जमीन पर वंशानुगत अधिकार रखने वालों) पर नियंत्रण स्थापित कर उनके प्रभाव को अवश्य कमजोर कर दिया। लगान वसूली के लिए राजकीय अधिकारी नियुक्त कर दिए गए। लगान की राशि भी निश्चित कर दी गई। कृषि को प्रोत्साहन देने के लिए किसानों को आवश्यकतानुसार ऋण एवं अन्य आवश्यक सामग्री दी गई। इन सबके चलते राज्य की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हुई। राजकीय आय का एक बड़ा भाग प्रशासन, सेना एवं जनहित के कार्यों पर खर्च होता था।
न्यायिक व्यवस्था
शिवाजी ने निष्पक्ष न्याय के संपादन पर भी बल दिया। मराठा न्यायव्यवस्था प्राचीन भारतीय न्यायिक परंपराओं पर आधृत थी। लिखित कानून अथवा सामान्य न्यायालयों की व्यवस्था नहीं थी। राजा स्वयं ही न्याय-व्यवस्था का प्रधान था। वह प्रधान न्यायाधीश कार्यों पर निगरानी रखता था। न्यायाधीश एक ही साथ सैनिक एवं असैनिक विवादों का निपटारा करता था। न्याय की दृष्टि में समान थे, भेद-भाग की भावना नहीं बरती जाती थी। स्थानीय मुकदमों का फैसला पंचायतें करती थी। अपराधियों को कठोर दंड दिए जाते थे। इसलिए, राज्य में अपराध एवं अपराधियों की संख्या कम थी एवं सर्वत्र शांति-व्यवस्था का वातावरण थ।
धार्मिक नीति
कट्टर हिन्दू होते हुए भी शिवाजी दूसरे धर्मो का मान करते थे। उन्होंने मुसलमानों को धार्मिक विचार और नमाज की पूरी स्वतन्त्रता दे रखी थी। वे उनके पीरों और मस्जिदों का आदर करते थे। हिन्दू-मन्दिरों के साथ-साथ मुसलमान फकीरों और पीरों की भी आर्थिक सहायता करते थे। उन्होंने केलोशी के बाबा याकूत के लिए आश्रम बनवा दिया था। वे कुरान का समान रूप से आदर करते थे। यदि उनके आक्रमण के समय उनके आदमियों के हाथ में कुरान की पुस्तकें पड़ जाती थीं तो वे उन्हें अपने मुसलमान साथियों को पढ़ने के लिए दे देते थे। वे मुस्लिम महिलाओं का आदर करते थे और अपने सैनिकों को उन्हें अपमानित करने की कभी भी आज्ञा नहीं देते थे। इतिहासकार खाफीखाँ जो शिवाजी से मैत्री-भाव नहीं रखता था, उसने भी शिवाजी की धर्म-सहिष्णुता तथा हमले में मिली हुई मुस्लिम महिलाओं और बच्चों के प्रति किये गये सम्मानपूर्ण व्यवहार की प्रशंसा की है। राज्य कर्मचारियों की नियुक्ति के समय वे मुसलमानों के साथ कोई भेदभाव नहीं रखते थे और उन्हें सेना तथा जहाजी बेड़े में विश्वसनीय पदों पर नियुक्त कर देते थे।
शिवाजी भक्त हिन्दू थे और वेदाध्ययन के लिए प्रोत्साहन देते थे। उन्होंने विद्वान ब्राह्मणों को प्रोत्साहन देने के लिए एक बड़ी धनराशि अलग निकाल रखीी थी। उनके गुरु प्रसिद्ध सन्त रामदास थे और उन्हीं से उन्होंने धार्मिक चेतना प्राप्त की थी। किन्तु इस सन्त का शिवाजी की राज्य-नीति या शासन-प्रणाली पर कोई प्रभाव नहीं था। यह कहा जाता है कि रामदास को प्रतिदिन भिक्षा माँगने के लिए जाता देखकर शिवाजी ने अपना सारा राज्य उनके भेद कर दिया था। गुरुजी ने भेंट को स्वीकार कर अपने प्रतिनिधि के रूप में शासन करने के लिए वह राज्य शिवाजी को ही लौटा दिया था और आदेश दिया था कि वह अपने स्वशासन का उत्तरदायी सर्वशक्तिमान भगवान को माने। शिवाजी ने इसे स्वीकार कर रामदास के वस्त्रों के गेरुआ रंग को राजकीय झण्डे का रंग (भगवा झण्डा) अपना लिया था। यह इस बात का प्रतीक था कि उन्होंने अपने सर्वशक्तिमान सन्यासी महाप्रभु के आदेशानुसार ही युद्ध एवं शासन किया है।
महत्वपूर्ण लिंक
- भारत के सामाजिक परिवर्तन में गाँधी जी की भूमिका
- सामाजिक परिवर्तन में अम्बेडकर जी की भूमिका
- भारतीय संस्कृति के सिद्धांत एवं विशेषताएँ
- सल्तनत कालीन राजत्व सिद्धांत (इल्वारी, खिलजी, तुगलक एवं सैय्यद वंश)
- मुगल कालीन राजत्व सिद्धांत
- सल्तनत कालीन केन्द्रीय प्रशासन (प्रशासन रूपी भवन)
- मुगलकालीन केन्द्रीय प्रशासन
- सल्तनत कालीन प्रांतीय प्रशासन (शिक प्रशासन, परगना एवं गाँव प्रशासन)
- अक्ता (इक्ता) का अर्थ, विकास और दिल्ली सल्तनत में उसका प्रचलन
- मुगलकालीन प्रांतीय प्रशासन (सरकार, ग्रामीण एवं परगना प्रशासन)
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