मुगलकालीन सामाजिक स्थिति
मुगलकालीन सामाजिक स्थिति
मुगलकालीन समाज के महत्वपूर्ण बिन्दु निम्नलिखित है-
धार्मिक विश्वास तथा रीतियाँ
देश में विभिन्न धर्मो को मानने वाली भिन्न-भिन्न जातियाँ थी। गुजरात और बम्बई में पारसी, पश्चिमी समुद्रतट पर विशेषकर ट्रावनकोर और कोचीन में ईसाई और देश के भिन्न-भिन्न भागों में यूरोपियन बसे हुए थे। किन्तु बहुसंख्या में स्थानीय हिंदू तथा विदेशी एवं देशी मुसलमान थे, जो सम्मिलित रूप से मुगल दरबारों तथा सरकारी नौकरियों में साथ-साथ काम करते थे। इस्लाम धर्म की कुछ ऐसी विशेषता है कि इसके मानने वाले जिस देश पर भी आक्रमण करते हैं, उसे जीतकर वहाँ के धर्म एवं संस्कृति को उखाड़ फेंक देने का पूर्ण प्रयत्न करते है। ये सबसे पहले गैर-मुसलमानों को जिम्मी अथवा सुरक्षित मजदूर घोषित कर मुसलमान और गैर-मुसलमानों में सदा के लिए भेदभाव के बीज बो देते हैं और फिर गैर-मुसलमानों को मुसलमानों जैसे नागरिक अधिकारों से वंचित कर देते है। भारत में वे अपने मुख्य उद्देश्य में तो सफल नहीं हुए, किन्तु मुसलमान (इस्लाम को मानने वाला) और गैर-मुसलमान (काफिर) में भेदभाव की खाई अवश्य खोद थी। अकबर के समय में जो धार्मिक सहिष्णुता थी, उसका उच्च तथा निम्न श्रेणी के सभी मुसलमानों ने विरोध किया। यद्यपि हिन्दुओं का व्यवहार मुसलमानों के अनुकूल ही रहा, तो भी इन दोनों बहुसंख्यक जातियों में मुगल शासन के अन्त तक वैर-विरोध बना ही रहा। मुसलमान हिन्दुओं को अपने से बहुत अच्छा समझते थे, अतः ये उनके धार्मिक विश्वास तथा रहन-सहन का विरोध किया करते थे। हिन्दू अपनी दुर्बलता को समझते थे, किन्तु मुसलमान उनके साथ जो व्यवहार करते थे उससे दिल ही दिल में जला करते थे, क्योंकि ये मुसलमानों को घृणित मानते थे। मुसलमान हिन्दुओं को काफिर कहते थे और हिन्दु उन्हें बदले में म्लेच्छ और अछूत कहकर पुकारते थे।
जैन और सिक्ख हिन्दुओं में ही शामिल थे। यद्यपि हिन्दु धर्म सदा से ही सर्वव्यापी और शक्तिमान ईश्वर को मानता आया है, तो भी मुगल काल में मूर्तिपूजा प्रायः हुआ करती थी। अकबर तथा जहाँगीर ने धार्मिक स्वतन्त्रता दे रखी थी, अतः उसके शासनकाल में देश में प्रायः सर्वत्र अच्छे-अच्छे मन्दिर थे, जिनमें भिन्न-भिन्न देवताओं की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित था।
इस समय वैष्णव धर्म में रामोपासक और कृष्णोपासक दोनों प्रकार के लाखों भक्त थे। अनेक सार्वजनिक एवं साम्प्रदायिक सन्त और सुधारक जनता के चरित्र-निर्माण के लिए अनेक प्रकार के उपदेश करते रहते थे। हिन्दुओं का खानपान और वेशभूषा साधारण थी और उनका जीवन पवित्र, सादा और नियमित था। ये वर्ष के अधिकांश दिन व्रत रखते थे। वे तीर्थयात्रा करते थे और दान देते थे। वे अपनी आय के कुछ अंश को दीन-दुखियों की सेवा में लगाना अपना धार्मिक कर्तव्य समझते थे, गंगा, यमुना तथा दूसरी पवित्र नदियों का आदर करते, और साधुसन्तों के दर्शन के लिए जाया करते थे।
मुसलमान यद्यपि मूर्तिपूजा के विरोधी थे, किन्तु वे समाधियों का आदर करते थे। उनमें से कुछ ताजिया निकालते थे और ग्रामीण मुसलमान तो स्थानीय देवी-देवताओं की पूजा तक करते थे। साधु-सन्तों की पूजा समाज में बहुत अधिक प्रचलित थी। दास-प्रथा के कारण समाज चरित्रहीन हो गया था। हिजड़ों का क्रय-विक्रय स्वतन्त्रतापूर्वक होता था। यद्यपि अकबर ने इस प्रथा को बन्द कर दिया था, किन्तु युद्धबन्दी दास बनाकर इस्लाम के स्वीकार करने के लिए विवश किये जाते थे। हिन्दु और मुसलमान दोनों ही मिथ्या धारणा रखते थे, शकुनों का विश्वास करते और फलित ज्योतिष को सच्चा मानते थे। मुगल काल में सभी जाति और धर्म के मनुष्य रसायन विद्या साधारण वस्तुओं से सोना बनाना-यन्त्र-मन्त्र, गण्डा-ताबीज तथा इसी प्रकार की अन्य देवी-देवताओं की बातों में विश्वास रखते थे।
वस्त्र, आभूषण एवं श्रृंगार
उच्च और मध्यम श्रेणी के लोग अंगरखा और चूड़ीदार पाजामा पहना करते थे। धनी तथा निर्धन सभी हिन्दू साफा बाँधते थे। कुछ लोग सफेद रेशमी अथवा सूती पटका अपनी कमर से बाँधते थे, जो एड़ी तक लटका रहता था। कुछ लोग कन्धे पर दुपट्टा भी डालते थे साधारण हिन्दु धोती और निर्धन मुसलमान पाजामा तथा लम्बा कुर्ता पहनते थे। मुगल सम्राट चमकीले-भड़कीले कीमती वस्त्र और जवाहरात से जड़ी हुई पगड़ी पहनते थे। हिन्दु अपने अंगरखे के बन्द बायीं ओर और मुसलमान दायीं ओर लगाते थे। हिन्दू स्त्रियाँ साड़ी पहनती थी और मुसलमान स्त्रियाँ पाजामा या घाघरा और जाकट पहनती थी और दुपट्टे से अपने सिर को ढक लेती थीं। देश के उत्तर-पश्चिमी भागों में कुलाह और काश्मीरी टोपियाँ सर्वसाधारण रूप से पहनी जाती थीं। मोजे नहीं पहने जाते थे, किन्तु अधिकतर लोग अनेक प्रकार के जूते पहनते थे। शरीर स्वच्छता के लिए दाल, मैदा और रीठे का बना हुआ साबुन काम में लाया जाता था। लोग खिजाब, गंज और बालों के बढ़ने की दवा बनाना जानते थे। स्त्रियाँ अनेक प्रकार के लेप और विशेषकर चन्दन के लेप काम में लाती थी। स्त्रियाँ हाथ-पैरों पर महावर और आँखों में सुरमा लगाती थीं। पान आजकल की लिपिस्टिक का काम करते थे। इत्र और खुशबूदार तेल सभी काम में लाते थे। स्त्रियाँ आजकल की तरह ही मुगलकाल में भी गहनों की शौकीन थीं। व्यक्तिगत स्वच्छता तथा स्वास्थ्य-रक्षा सदाचार का नियमित अंग बन गया था और इसका पालन लोग प्रातःकाल से ही किया करते थे। दातुन करना, आँख और मुँह का धोना, मलिश करना, बदन मलना, कपड़े से रगड़ना, सुगन्धित उबटन लगाना, स्नान करना, सुरमा लगाना, पाउडर लगाना तथा पान खाना इत्यादि स्वास्थ्य-रक्षा के काम समझे जाते थे।
हिन्दू तथा मुसलमान दोनों एकसा भोजन करते थे। मुसलमान माँस भी खाते थे, किन्तु बहुत से हिन्दू-परिवार माँस नहीं खाते थे किन्तु यह कहना ठीक नहीं कि सभी हिन्दू माँस से घृणा करते थे। मद्रास, महाराष्ट्र, गुजरात और मध्य भारत में केवल जैनी तथा अधिकतर ब्राह्मण माँस नहीं खाते थे। साधारण हिन्दू स्वभाव से तथा मितव्ययता के नाम से शाकाहारी ही थे। अकबर तथा जहाँगीर ने वर्ष में कुछ दिन पशु-वध एवं पक्षी-वध पर रोक लगा दी थी और उन दिनों वे स्वयं भी माँस नहीं खाते थे। उच्च श्रेणी के मनुष्य बढ़िया भोजन किया करते थे। इनके भोजन में भिन्न-भिन्न प्रकार के माँस, पुलाव और इसी प्रकार की स्वादिष्ट वस्तुएँ रहती थी। शराब का पीना मुसलमानों के लिए निषिद्ध था, अतः यह साधारणतया नहीं परोसी जाती थी। उच्च तथा मध्यम श्रेणी के मनुष्य फलों का सेवन करते थे। मुरब्बे और अचार साधारणतया खाये जाते थे। शाकाहारी हिन्दुओं के भोजन में मक्खन, दाल, साग-भाजी, चावल और रोटियाँ रहती थीं। रसोईघर को स्वच्छ रखना हिन्दुओं में धार्मिक कर्तव्य समझा जाता था। हिन्दू बाजार की बनी चीजें नहीं खाते थे। मुसलमान चीनी, शीशे और मिट्टी के बर्तन काम में लाते थे और हिन्दू अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार पीतल, ताँबे और चाँदी के बरतन काम में लाते थे। हिन्दू भोजन के पहले और बाद में हाथ, पैर और मुंह धो लेते थे।
धार्मिक निषेध होने पर भी उच्च श्रेणी के बहुत-से मुसलमान शराब पीते थे और बहुत से तो नशे से मर जाते थे। राजपूत शराब और अफीम दोनों का सेवल करते थे। बहुत से हिन्दू भाँग पीते थे। जहाँगीर के शासनकाल के बाद तम्बाकू का प्रचार बहुत अधिक हो गया था।
मनोरंजन
मुगलकाल में हमारे देशवासी खेलकूद के बहुत शौकीन थे। शतरंज, चौपड़, ताश, बल्ले के अनेक खेल और अनेक प्रकार के गुट्टी मार आदि खेल उच्च तथा मध्य श्रेणी के स्त्री-पुरूष साधारणतया खेला करते थे। मैदान के खेल-जैसे शिकार, पशु-युद्ध और चौगान (पोलो)- बड़े-बड़े आदमी ही खेलते थे। पोलो जल में तथा गरम गेंद से रात में भी खेला जाता था। कुश्ती, बाजीगर तथा जादूगर के खेल प्रायः सर्वत्र हुआ करते थे। पतंग, नकल, आँखमिचौनी, लपकडण्डा इत्यादि अनेक प्रकार के खेल प्रायः सर्वत्र खेले जाते थे। उच्च तथा मध्य श्रेणी के मनुष्यों को नाच का खास शौक था। ऊंचे घराने की स्त्रियाँ नाच, नाटक तथा साहिसिक तथा प्रेम कहानियों से मनोरंजन करती थी।
शिकार खेलना भी मनोरंजन का अच्छा साधन था और मुगल सम्राट प्रायः शिकार खेला करते थे। अकबर ने एक विशेष प्रकार का शिकार निकाला था, जो कमरधा कहलाता था और यह बहुत अधिक लोकप्रिय हो गया था। इस खेल में बहुत-से हँकवे (शिकार का पता लगाने वाले) चालीस कोस के घेरे में जानवरों को चारों ओर घेरते थे और उनको सम्राट के निकट लाने का प्रयत्न करते थे जिससे सम्राट हाथी पर से उसका शिकार कर सकें। केवल सम्रा ही हाथी पकड़ सकते थे। और चीतों का शिकार कर सकते थे। नौका-बिहार भी अच्छा मनोरंजन था और इस मनोरंजन के लिए दरबार के पास बहुत-सी नौकाएँ थी। बड़े आदमी कहानी तथा धन से मनोरंजन किया करते थे। राजा सरदार और बड़े-बड़े आदमियों को बागवानी का भी शौक था।
मेला तथा उत्सव
सार्वजनिक मेले तथा उत्सवों में मित्र तथा सम्बन्धी परस्पर मिल-जुल लेते थे और दैनिक जीवन की नीरसता को भुलाकर आनन्दोत्सव मनाते थे। हिन्दू और मुसलमान दोनों के ही अनेक उत्सव तथा मेले होते थे। मुगल दरबार में वर्ष में अनेक उत्सव होते थे, जिनमें साधारण जनता सम्मिलित हो सकती थी। नौरोज (फारसी नव वर्ष), सम्राट और शाहजादों के जन्म-दिवस तथा दशहरा, बसन्त, दीपावली (औरंगजेब के समय को छोड़कर) और ईद, शुबरात, बारावफात इत्यादि मुसलमान त्यौहारों पर दरबार और महल बहुत अच्छी तरह सजाये जाते थे और उस दिन खास दरबार, विशेष भोज और विशेष नाच-रंग एवं मनोरंजन होते थे। कभी-कभी अच्छे-अच्छे बाजार लगते थे, जिनमें उच्च कुल की स्त्रियाँ आकर मनोरंजन और आनन्द मनाती थी। इनके अतिरिक्त हिन्दू और मुसलमानों के अनेक धार्मिक उत्सव होते थे। ये उत्सव आजकल जैसे ही होते थे। हरिद्वार, प्रयाग, मथुरा, गढ़मुक्तेश्वर, नीमसार, गया, कुरूक्षेत्र, उज्जैन तथा अन्य अनेक हिन्दू तीर्थस्थानों पर साल में समय-समय पर मेले लगा करते थे जिनमें नर-नारी तथा बच्चे बहुत बड़ी संख्या में जमा होते थे। धार्मिक और सामाजिक होने के कारण ये बहुत ही सर्वप्रिय होते थे। इनके अतिरिक्त मुख्य-मुख्य नगरों में भी स्थानीय मेले होते थे। अजमेर, पानीपत, सरहिन्द और आजोधन इत्यादि मुसलमानी तीर्थस्थान थे जहाँ पर मेले लगते थे, जिनमें देश के कोने-कोने से यात्री आते थे।
स्त्रियों की दशा
मुगलकाल में प्राचीन हिन्दूकाल की तरह स्त्रियों की समाज में प्रतिष्ठा नहीं थी। इस्लाम के प्रभाव तथा मुसलमान शासक और सरदारों के दुराचार के कारण पर्दा एवं बाल-विवाह सारे समाज में फैल गया था। नीच जाति की स्त्रियों को छोड़ कर हिन्दू स्त्रियाँ घर के बाहर नहीं निकलती थीं। मुसलमानों के यहाँ तो पर्दा हिन्दुओं से भी अधिक कड़ा था। लड़की का जन्म अपशकुन समझा जाता था और लड़के का जन्म आनन्ददायक माना जाता था। बाल-विवाह के कारण समाज में विधवाओं की संख्या बहुत अधिक बढ़ गयी थी और इन्हें पुनर्विवाह करने का अधिकार नहीं था। मुसलमानों में बहु-विवाह प्रचलित था, क्योंकि सुन्नी परम्परा के कारण एक सुन्नी मुसलमान चार स्त्रियों तक के साथ विवाह कर सकता था। शिया तो चार से भी अधिक स्त्रियों के साथ विवाह कर सकता था। हिन्दुओं में तलाक-प्रथा नहीं थी, किन्तु मुसलमानों में स्त्री पुरूष दोनों ही एक-दूसरे को तलाक दे सकते थे। यद्यपि हिन्दू धर्मशास्त्र में बहू-विवाह का निषेध नहीं है, तो भी हिन्दू अपने स्वभाव तथा मितव्ययता के कारण एक पत्नीधारी ही होते थे और कोई बहुत बड़ा आदमी ही एक से अधिक स्त्रियों के साथ विवाह करता था। केवल हिन्दू राजा ही बहु-विवाह किया करते थे। इन सब बुराइयों के होते हुए भी घरों में स्त्रियों का अच्छा सम्मान था और उसमें से कुछ तो अपने पतियों के काम में सहायता भी देती थीं। इस काल में गोडवाना की रानी दुर्गावती (जो वीर सैनिक तथा योग्य प्रबन्धक भी थी), रानी कर्मवती, मीराबाई तथा ताराबाई इत्यादि हिन्दु स्त्रियों अत्यन्त योग्य थीं। मुसलमानों में नूरजहाँ, मुमताजमहल, चाँदबीबी, जहानआरा, रोशनआरा, जैबुन्निसा और साहिबजी (काबुल के गवर्नर अमीनखाँ की स्त्री) इत्यादि स्त्रियों ने उस समय बहुत महत्वपूर्ण काम किये थे।
कृषि एवं उद्योग
देश की बहुसंख्यक जनता कृषि पर ही निर्भर रहती थी। खेती करने का ढंग उस समय भी आजकल जैसा ही था। गेहूँ, जौ, चना मटर, और तिलहन इत्यादि साधारण फसलों के अतिरिक्त गन्ना, नील, तथा पोस्त भी देश के विभिन्न भागों में पैदा होता था। फसलों का स्थानीकरण था। गन्ना आजकल के उत्तर प्रदेश, बंगाल और बिहार के अनेक भागों में होता था और नील उत्तर भारत तथा दक्षिण भारत के अनेक स्थानों में पैदा किया जाता था। कपास देश के अनेक स्थानों में बोयी जाती थी। खेती के औजार तथा साधन उस समय भी आज जैसे ही थे। मुगल काल में सिंचाई के आजकल जैसे कृत्रिम साधन नहीं थे, अतः किसान तालाब और कुओं से ही सिचाई करते थे। देश अस्त्र के लिए आत्मनिर्भर था। अन्य वस्तुओं में मछली, खनिज पदार्थ, नमक, अफीम और शराब इत्यादि मुख्य थी। सोना कुमायूँ पर्वत और पंजाब की नदियों में पाया जाता था। लोहा देश के अनेक भोगों में पाया जाता था और औजार, हथियार इत्यदि बनाने के लिए अधिकता से प्रयुक्त होता था। ताँबे की खानें राजस्थान और मध्यभारत में पायी जाती थी। लाल पत्थर की खानें फतेहपुरसीकरी तथा राजस्थान में विद्यमान थीं। पीला पत्थर थट्टा में और
संगमरमर जयपुर तथा जोधपुर में पाया जाता था। गोलकुण्डा में हीरे की प्रमुख खान थी और हीरा छोटा नागपुर में भी पाया जाता था। नमक साँभर झील से तथा पंजाब की पहाड़ियों से आता था और नमक गुजरात तथा सिन्ध में समुद्र तथा झील के पानी से भी बनाया जाता था। अफीम मालवा और बिहार में अधिकता से पैदा होती थी और शराब प्रायः हर जगह बनायी जाती थी। शोरा भी बनाया जाता था, जो गोला-बारूद के काम आता था।
देश का सबसे बड़ा उद्योग रूई का उत्पादन और सूती वस्त्र का बनाना था। सूत उद्योग हर गाँव में प्रचलित था और घरेलू काम का कपड़ा देश के प्रत्येक गाँव में बनाया जाता था। आगरा, बनारस, जौनपुर, पटना, बुरहानपुर, लखनऊ, खैराबाद और अकबरपुर तथा वीर बंगाल, बिहार और मालवा के अनेक स्थान बढ़िया कपड़े के लिए प्रसिद्ध थे। रंगसाजी का सहायक उद्योग भी सूती उद्योग के साथ-साथ खूब फल-फूल रहा था। एडवर्ड टेरी देश के सुन्दर और गहरे रंगे हुए कपड़ों को देखकर बहुत प्रभावित हुआ था। अयोध्या (फैजाबाद) और खानदेश में सुनहरी कपड़ा बनाया जाता था। बंगाल में ढाका तथा दूसरे स्थान रेशमी कपड़े मलमल तथा गद्दों के लिए प्रसिद्ध थे। मुल्तान में सुन्दर फूलदार कालीन बनते थे और काश्मीर ऊनी कालीन तथा रेशमी एवं ऊनी वस्तुओं के लिए प्रसिद्ध था। जहाँगीर ने अमृतसर में ऊनी कालीन तथा शाल बनाने का उधोग स्थापित किया था। पंजाब, उत्तर प्रदेश तथा देश के अन्य भागों में कढ़ाई का काम होता था। बरार, सिरोज, बुरहानपुर, अहमदाबाद और आगरा में छपे हुए कपड़े तैयार होते थे। फतेहपुरसीकरी, अलवर और जौनपुर में कालीन बनाये जाते थे। पंजाब में स्यालकोट तम्बुओं के लिए प्रसिद्ध था। राज्य बहुत बड़े पैमाने पर अनेक प्रकार की वस्तुओं के बनाने वालों को प्रोत्साहन देता था और राज्य के भी बहुत से ऐसे कारखाने थे, जिनमें हजारों व्यक्ति काम करते थे।
हमले तथा बचाव के हथियार देश में सब जगह बनाये जाते थे किन्तु इस उद्योग के मुख्य-मुख्य केन्द्र पंजाब तथा गुजरात थे। सोमनाथ की तलवारें देश में सब जगह प्रसिद्ध थी। जौनपुर तथा गुजरात के सुगन्धित तेल तथा दिल्ली के गुलाब-जल की शाही दरबार तथा प्रान्तीय दरबारों में बहुत अधिक माँग रहती थी। स्यालकोट, गया तथा कश्मीर में कागज बनाने के कारखाने थे। बीदर में सोने-चाँदी के गहने तथा बरतन और फतेहपुर सीकरी, बरार तथा बिहार में काँच के कारखाने थे। पंजाब में खेओरा, सेंधा नमक से बनायी गयी चीजों के लिए बहुत प्रसिद्ध था। दक्षिण भारत में समुद्र से मोती निकालने का काम खूब फल-फूल रहा था। लकड़ी तथा चमड़े की चीजें देश में सब जगह बनती थीं। अनेक प्रकार के उपयोगी वस्तुएँ, पीतल के बरतन, मिट्टी के बरतन, ईटें, चक्की तथा दैनिक प्रयोग की दूसरी वस्तुएँ सारे देश में बनती थीं। दिन-प्रतिदिन के काम आने वाले वस्तुओं के लिए देश आत्मनिर्भर था।
व्यापार
एशिया और यूरोप के अनेक देशों के साथ हमारा बहुत ही बढ़ा-चढ़ा व्यापार था। मुगलकार में लंका, बर्मा, चीन, जापान, पूरबी द्वीपसमूह, नेपाल, फारस, मध्य एशिया, अरब और लाल सागर के बन्दरगाहों तथा पूरबी अफ्रीका से भी भारत का व्यापारिक सम्बन्ध था। पुर्तगाली, डच, अंग्रेज और फ्रांसीसी हमारे देश की वस्तुओं को यूरोपीय बाजारों में ले जाते थे। देश से सूत और अनेक प्रकार के कपड़ों का निर्यात होता था। यूरोप तथा एशिया के अनेक देशों में हमारे कपड़े की बहुत माँग थी। काली मिर्च, नील, अफीम, शोरा, मसाले, चीनी, रेशम, नमक, माला के दाने, सुहागा, हल्दी, लाख की बत्ती, हींग, दवाएँ तथा अनेक प्रकार की दूसरी वस्तुएँ यहाँ से विदेशों को भेजी जाती थी। विदेशों से जिन वस्तुओं का आयात होता था उनमें कलाबत्तू, घोड़े, सस्ते धातु, रेशम, हाथी दाँत, मूंगी, अम्बर, कीमती पत्थर, रेशमी वस्त्र, मखमल, कीमखाब, बनात, इत्र, औषधियाँ, चीनी वस्तुएँ–विशेषकर चीनी बरतन-अफ्रीकी दास और यूरोपीय शराब इत्यादि मुख्य थीं। शाही तथा प्रान्तीय दरबारों में अदभुत और दुर्लभ वस्तुओं का माँग बहुत अधिक रहती थी। काँच के बरतन विदेशों से और विशेषकर वेनिस से आते थे।
देश में इतना अधिक कपड़ा तैयार होता था कि देश की आवश्यकता की पूर्ति के बाद वह अफ्रीका, अरब, मित्र, बर्मा, मलक्का, और मलाया इत्यादि एशिया के अनेक देशों को भेजा जाता था। देश का सूती कपड़ा इटली, फ्रांस, इंगलैण्ड और जर्मनी आदि को भेजा जाता था तौर इन देशों में इसकी बहुत अधिक माँग बनी रहती थी। बाम्बे, सूरत, भड़ौच, लाहरी बन्दर, वसीन, चौल, गोआ, कालीकट, कोचीन, नागापट्टम, मछलीपट्टम और सतगाँव इत्यादि ऐसे प्रमुख नगर थे जिनसे समुद्र के द्वारा विदेशों से व्यापार होता था। स्थल के व्यापार के दो मार्ग थे–एक था लाहौर से काबुल तक तथा उसके आगे तक और दूसरा था मुल्तान से कन्धार और उससे आगे तक। राज्य बहुत कम चुंगी लेता था। सूरत में जो वस्तुएँ आती थीं और जो वहाँ से बाहर जाती थीं उन पर 3% प्रतिशत चुंगी लगती थी, किन्तु सोने-चाँदी पर केवल 17 प्रतिशत चुंगी लगती थी। व्यापार का सन्तुलन सदा हमारे पक्ष में ही रहता था। लाहौर, मुल्तान, लाहरी बन्दर (सिन्ध),काम्बे, अहमदाबाद, चटगाँव, पटना और आगरा ऐसे बड़े बड़े बाजार थे, जहाँ विदेशों से वस्तुएँ आती थीं और फिर वहाँ से सारे देश में भेजी जाती थीं। इन्हीं बाजारों से विदेशों को वस्तुएँ जाती थीं।
महत्वपूर्ण लिंक
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