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भक्ति आंदोलन

भक्ति आन्दोलन

भक्ति-आन्दोलन भारतीय इतिहास का एक प्राचीन एवं महत्वपूर्ण आन्दोलन था। प्राचीन काल से हिन्दू-दर्शन में जीवन का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष बताया गया है और इसे प्राप्त करने के तीन मार्ग हैं : ज्ञान-मार्ग, कर्म-मार्ग, भक्ति-मार्ग। मोक्ष-प्राप्ति के प्रथम दो मार्ग अत्यन्त कठिन हैं। ज्ञान और कर्म-मार्ग का अनुसरण करना प्रत्येक मनुष्य के लिए सम्भव नहीं है इसलिए सामान्यतः जनता भक्ति-मार्ग की ओर उन्मुख हुई। दिल्ली सल्तनत-काल (1206-1526 ई0) में हिन्दू साधु-सन्तों ने इस आन्दोलन को गति प्रदान की और भक्ति-मार्ग के द्वारा मोक्ष प्राप्त करने के लिए जनसाधारण को प्रेरित किया।

भक्ति-आन्दोलन का उद्भव

भक्ति-आन्दोलन के उद्भव के सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार के मत प्राप्त होते हैं। वेबर (Weber) और ग्रीअर्सन (Grierson) की मान्यता है कि भक्ति और ईश्वर की एकता का विचार हिन्दुओं ने ईसाइयों से प्राप्त किया था। दूसरा मत यह भी व्यक्त किया जाता है कि भक्ति-आन्दोलन का उद्भव इस्लाम के प्रभाव के कारण हुआ है। शंकराचार्य का अद्वैतवादी सिद्धान्त (एकेश्वरवादी) भी इस्लाम प्रभावित था परन्तु यह तर्कसंगत नहीं है। शंकराचार्य का अद्वैतवाद भारतीय वेदान्त दर्शन पर आधारित था। कुछ विद्वानों का यह भी मानना है कि इस्लाम के मिल्लत (भाई-चारे) के सिद्धान्त ने भक्ति-आन्दोलन के प्रचारकों को अत्यधिक प्रभावित किया था। मूर्ति-पूजा का विरोध भी इसी तथ्य का परिचायक है कि इस्लाम धर्म के सिद्धान्तों को सहज ही स्वीकार कर लिया गया था परन्तु तथ्य की कसौटी पर ये सब तर्क खरे नहीं उतरते हैं। केवल कुछ समानता के आधार पर यह मत प्रतिपादित करना न्याय-संगत प्रतीत नहीं होता है। बार्थ का मत है कि भक्ति-आन्दोलन हिन्दू धर्म का ही एक अंग था।

यदि भक्ति-आन्दोलन के उद्भव में इस्लाम धर्म के योगदान को अंकित किया जाये तब इतना निश्चय ही कहा जा सकता है कि मूर्ति-पूजा विरोधी कट्टर मुल्ला वर्ग ने अपने हिन्दू-विरोधी कार्यों से इसे गति अवश्य प्रदान की।

डॉ० आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने लिखा है, “भक्ति-आन्दोलन के दो मुख्य उद्देश्य थे प्रथम, हिन्दू धर्म में सुधार करना जिससे वह इस्लामी प्रचार और प्रसार के आक्रमणों को झेल सके; और द्वितीय, हिन्दू और इस्लाम धर्म में समन्वय स्थापित करना और दोनों जातियों में सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करना।” जहाँ तक प्रथम उद्देश्य का सम्बन्ध था, भक्ति-आन्दोलन के प्रवर्तकों को पूर्ण सफलता प्राप्त हुई परन्तु अपने दूसरे उद्देश्य को प्राप्त करने में यह आन्दोलन पूर्ण रूप से असफल सिद्ध हुआ। इस्लाम धर्म के समर्थकों ने यह कभी स्वीकार नहीं किया कि राम और रहीम या ईश्वर और अल्लाह ही परमात्मा के दो नाम हैं।

भक्ति-आन्दोलन के उदय के कारण

भक्ति-आन्दोलन के उद्भव और विकास में निम्नलिखित कारणों का विशेष योगदान रहा:

  1. ब्राह्मण धर्म की जटिलता

    डॉ० यूसुफ हुसैन ने भक्ति-आन्दोलन के उदय के कारणों पर प्रकाश डालते हुए लिखा है, “ब्राह्मणवाद मूल रूप से एक बौद्धिक सिद्धान्त बनकर रह गया था। यह हृदय में अधिकारों की उपेक्षा करता था। मौलिक सिद्धान्त जिनकी यह ‘वाद’ शिक्षा देता था, अवैयक्तिक और काल्पनिक थे। ये उन लोगों की समझ में नहीं आते थे जो सदैव एक नैतिक और भावयुक्त सिद्धान्त एवं धर्म की खोज में ते, जिसके द्वारा हृदय की सन्तुष्टि और नैतिक शिक्षण सम्भव हो। इन्हीं परिस्थितियों में भक्ति-प्रेम मिश्रित ईश्वर-भजन के आन्दोलन ने एक अनुकूल वातावरण पाया।” वस्तुतः इस समय हिन्दू धर्म का स्वरूप अत्यन्त जटिल हो गया था और उपवास, कर्मकाण्ड व आडम्बर उत्तरोत्तर बढ़ रहे थे, अतः साधारण जनता उनका अनुसरण नहीं कर पा रही थी। फलतः भक्ति-आन्दोलन के उदय का मार्ग प्रशस्त हुआ।

  2. मन्दिरों मूर्तियों का विनाश

    मुस्लिम आक्रान्ताओं ने भारत आकर मनमाने ढंग से मूर्तियों को नष्ट किया और मन्दिरों का विनाश किया। उन्होंने हिन्दुओं के पवित्र स्थलों को अपवित्र किया। हिन्दू स्वेच्छा से अपने धर्म का पालन नहीं कर सकते थे। फलतः ईश्वरभक्त हिन्दुओं ने इष्ट-देवता की मूर्ति के अभाव में भक्ति-मार्ग को अपना लिया, क्योंकि यही मार्ग उन्हें श्रेष्ठ और निरापद प्रतीत हुआ।

  3. जातिव्यवस्था की जटिलता

    कट्टरपंथी हिन्दुओं ने विदेशी मुस्लिम आक्रमणकारियों के प्रभाव से हिन्दू धर्म को बचाने के लिए उसे जटिलता का रक्षा-कवच पहना दिया और खानपान, विवाह तथा वर्ण-व्यवस्था को पहले की अपेक्षा कठोर रूप प्रदान किया। उसमें किसी प्रकार की फेरबदल करने का अधिकार किसी को प्राप्त नहीं था जिससे निम्न जातियों की स्थिति उत्तरोत्तर खराब होने लगी। वे एक ओर उच्च वर्ग की घृणा की भावना से दुःखी थे और दूसरी ओर मुस्लिम आक्रमणकारी उनका शोषण करते थे। हिन्दू धर्म में मोक्ष का मार्ग सभी वर्गों के लिए उन्मुख नहीं था परन्तु भक्ति-आन्दोलन के प्रवर्तकों ने अपनी उदारता के कारण मोक्ष का द्वार सभी के लिए खोलकर निम्न जाति के लोगों को इस ओर आकर्षित किया।

  4. मुस्लिम आक्रमणकारियों के अत्याचार

    भक्ति-काल के उदय का एक अन्य महत्वपूर्ण कारण यह है कि जब मुसलमान हिन्दुओं पर अत्याचार करने लगे तो हिन्दू निराश होकर ईश्वर की ओर उन्मुख हुए। मध्य काल के सभी मुस्लिम किसी न किसी रूप में हिन्दुओं पर अत्याचार किया करते हैं। अतः पीड़ित हिन्दू भक्ति की ओर उन्मुख हुए। सरदार के० एम० पन्नीकर का मत है कि इस्लाम धर्म के अनुयायियों द्वारा किये गये अत्याचार भी भक्ति-आन्दोलन के उद्भव के लिए उत्तरदायी है।

  5. हिन्दुओं की पलायनवादी प्रवृत्ति

    निरन्तर मुस्लिम आक्रान्ताओं के उत्पीड़न के फलस्वरूप हिन्दुओं का शौर्य और पराक्रम कुण्ठाग्रस्त हो गया। हिन्दू ईश्वर की भक्ति की ओर झुकने के लिए बाध्य हुए और उसके माध्यम से मुसलमानों से मुक्ति का मार्ग ढूँढ़ने का प्रयास किया। डॉ० विद्याधर महाजन ने लिखा है, “भक्ति-आन्दोलन ने उस भावना का प्रतिनिधित्व किया,ज इसे पलायनवाद का नाम दिया जा सकता है। इस समय में बहुत से हिन्दुओं ने सांसारिक जीवन में उन्नति करने के लिए कोई मार्ग न पाया और इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि उन्होंने स्वयं भक्ति में अपना विश्वास रखकर अपने को भूल जाना चाहा।”

  6. हिन्दू धर्म और जाति की सुरक्षा की भावना-

    मुसलमान हिन्दू राज्य को मुस्लिम राज्य में परिवर्तित करना चाहते थे। अतः उनका हिन्दुओं के प्रति व्यवहार अत्यन्त कठोर और उग्र था। वे हिन्दुओं को तरह-तरह के प्रलोभन देते थे ताकि वे इस्लाम धर्म स्वीकार कर लें। अतः हिन्दुओं के हृदय में अपने धर्म और जाति की सुरक्षा का प्रश्न उठ खड़ा होना अत्यन्त स्वाभाविक था। अतः उन्होंने भक्ति-आन्दोलन के सन्तों और समाज-सुधारकों के माध्यम से अपने धर्म और जाति की सुरक्षा हेतु हर सम्भव प्रयास किया।

  7. इस्लाम का प्रभाव

    डॉ० ताराचन्द, डॉ० कुरैशी व के0 ए0 निजामी की मान्यता है कि भक्ति-मार्ग का उदय इस्लाम के सम्पर्क के कारण हुआ। इस्लाम में जाति-प्रथा का कोई स्थान नहीं है और भक्ति-आन्दोलन के सभी सन्त जाति-प्रथा के विरुद्ध थे। कुछ लोग इस्लाम के एकेश्वरवाद के सिद्धान्त के कारण भी भक्ति-आन्दोलन पर इस्लाम के प्रभाव को सिद्ध करने का प्रयास करते हैं जबकि यह सर्वविदित है कि एकेश्वरवाद का सिद्धान्त हिन्दू समाज में शंकराचार्य के समय से ही प्रचलित था। परन्तु यह सत्य है कि इस्लाम की सरलता, एकेश्वरवाद और जाति-पाँति के विरोध ने हिन्दू धर्मशास्त्रियों का ध्यान उन त्रुटियों की ओर इंगित किया जो हिन्दू धर्म में व्याप्त थीं और उन्होंने उन कमियों को दूर करने का प्रयास किया। निःसन्देह भारतवासी विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा करते हैं परन्तु यहाँ विभिन्नताओं के बाद एकता को सदैव अनुभव किया गया है। डॉ० सरकार ने लिखा है, “हम देखते हैं कि सभी उच्च कोटि के विचारकों तथा सभी सच्चे हिन्दू भक्तों ने आरम्भ से ही उन असंख्य देवी-देवताओं को छोड़कर जो जनसाधारण में पूजे जाते हैं, सर्वशक्तिमान ईश्वर को ही उपास्य बताया है।”

  8. राजनीतिक वातावरण

    तुर्कों के नृशंस आक्रमणों के कारण हिन्दू समाज व धर्म को गहरा आघात लगा। बाद में दास-वंश के शासक इल्तुतमिश और बलबन तथा खिलजी-वंश के शासक अलाउद्दीन खिलजी ने भी हिन्दू समाज पर भयंकर प्रहार किये परन्तु धीरे-धीरे उनका उत्साह और कठोरता कम होती गयी और विजयनगर में हिन्दू राज्य की स्थापना हुई। मेवाड़ में राजपूतों ने अपनी सत्ता को सुदृढ़ कर लिया जिससे हिन्दुओं को एक बार पुनः संगठित होने का अवसर मिला। वास्तव में इसी पृष्ठभूमि में उन्नति करने और पुनः संगठित होने का अवसर हिन्दुओं को मिला।

परन्तु इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भक्ति-आन्दोलन से पूर्व चली आ रही विचारधारा पर्याप्त सीमा तक इस्लाम से प्रभावित थी। डॉ० सेन ने उचित ही लिखा है, “एक ब्रह्म की उपासना जो मुस्लिम धर्म की प्राण थी और इसी ने इस आन्दोलन में जान डाल दी।”डॉ० आर० सी० मजूमदार का मत है कि इस्लाम की प्रजातांत्रिक और उदार भावनाओं ने इस आन्दोलन को विशेष रूप से प्रभावित किया। श्री रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है, “कुछ तो इस्लाम का धक्का खाने से घबराकर और कुछ सूफियों के प्रभाव में आकर, हिन्दुत्व जगा और जाग कर अपने रूप को सुधारने लगा…..यह बहुत कुछ इस्लाम का प्रभाव था और इस प्रभाव के कारण रूढ़ियों में सिकुड़ा हुआ हिन्दुत्व कुछ उदार हो गया।”

भक्ति आन्दोलन की विशेषताएँ

  1. भक्ति-आन्दोलन के प्रवर्तक जनसाधारण को एक कर्मकाण्ड एवं आडम्बरहीन धर्म देने के इच्छुक थे। अतः उन्होंने पवित्रता एवं सदाचार पर बल दिया।
  2. इस आन्दोलन ने जाति-भेद पर कठोर प्रहार किया। स्वामी रामानन्द ने कहा-

जाति पाँति पूछे नहीं कोई।

हरि को भजे जो हरि का होई॥

  1. मूर्ति-पूजा का खण्डन किया और पत्थर के देवता की तुलना में भक्ति पर अधिक बल दिया। कबीर ने कहा-

पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार।

ताते यह चाकी भली, पीसि खाय संसार।।

  1. हिन्दू-मुस्लिम धर्म में व्याप्त विरोधाभास को दूर करके एकता स्थापित करने का यत्न किया।
  2. भक्ति-आन्दोलन के प्रवर्तक एकेश्वरवादी एवं विश्व-बन्धुत्वं की भावना के पोषक थे।
  3. गृहस्थ आश्रम के माध्यम से मोक्ष-प्राप्ति का पाठ पढ़ाया।
  4. धार्मिक आन्दोलन होते हुए भी समाज-सुधार में इसका महत्वपूर्ण योगदान रहा। इसके प्रवर्तकों ने धार्मिक कुरीतियों पर खुलकर कुठाराघात किया।
  5. इसके प्रवर्तकों ने सदगुरु के महत्व पर विशेष बल दिया।

डॉ० श्रीवास्तव का मत है कि “दूर-दूर तक फैलकर भक्ति-आन्दोलन सदियों तक आधे महाद्वीप को प्रभावित करता रहा….बौद्ध धर्म के पतन के बाद भक्ति-आन्दोलन जैसा देशव्यापी जन-आन्दोलन हमारे देश में दूसरा नहीं हुआ।

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