क्या उत्तर वैदिक काल ‘आर्थिक क्रान्ति का युग था’
क्या उत्तर वैदिक काल ‘आर्थिक क्रान्ति का युग था’
वैदिक युग
ऋग्वैदिक काल आर्यों की सभ्यता का रचनात्मक काल था; परन्तु उत्तरवैदिक युग परिवर्तनशील काल (transitional phase) था। इस युग के अंतर्गत (1000-600 ई० पू०) आर्यों की मूल सभ्यता के स्वरूप में महत्वपूर्ण परिवर्तन आए।
सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन
सामाजिक जीवन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण परिवर्तन था- वर्णव्यवस्था का जटिल होना। अब कर्म के स्थान पर वर्ण ही महत्वपूर्ण बन गया। यह विभाजन ऐसा था, जिसमें उत्पादन से संबंध नहीं रखने के बावजूद ब्राह्मण और क्षत्रिय समाज के सर्वश्रेष्ठ, सुविधा एवं विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग बन गए। ये सिर्फ उत्पादन के नियंत्रक थे। इसके विपरीत उत्पादक- वैश्य और शूद्र-सुविधाविहीन वर्ग थे। इन चारों वर्गों में सबसे बुरी अवस्था शूद्रों की ही थी। चारों ही वर्गों के आचार-विचार, खान-पान और विवाह-संबंधी नियम अलग-अलग थे। शूद्रों और अन्य वर्गों में एक स्पष्ट विभेद यह था कि शूद्रों को उपनयन-संस्कार का अधिकार प्राप्त नहीं था, जबकि प्रथम तीन वर्ण यह संस्कार कर सकते थे। शूद्रों पर अनेक प्रतिबंध लगाए गए। उनका स्पर्श एवं संसर्ग निंदनीय और अवांछनीय माना गया। समाज के अनेक निम्र श्रेणी के व्यक्तियों (पुलिंद, आंध्र, पुंडू, शबर, वात्य, निषाद आदि ) वर्णव्यवस्था के बाहर रखा गया। उत्तर-वैदिक सामाजिक अवस्था का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि आपसी विभेद के बावजूद सुविधाभोगी वर्ग सुविधाविहिन वर्गों के विपरीत संगठित था। ब्राह्मण और क्षत्रियों में सर्व-श्रेष्ठता और अधिक धन प्राप्त करने के लिए संघर्ष होते थे। उत्तरवैदिक साहित्य में ब्रह्म (ब्राह्मण) और क्षत्र (क्षत्रिय) के संघर्ष का उल्लेख मिलता हैं यह संघर्ष सिर्फ सामाजिक श्रेष्ठता प्राप्त करने के लिए ही नहीं बल्कि अतिरिक्त उत्पादन पर अधिकार करने के लिए भी हुआ, परन्तु अंततः ब्राह्मणों ने अपने लिए गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त कर संतोष कर लिया। वैश्यों को समाज में तीसरा स्थान प्रदान किया गया। यह वर्ग उत्पादन से संबद्ध था। इस वर्ग को सैनिक सेवाएँ भी देनी पड़ती थीं। सबसे नीचे शूद्रों को रखा गया। उनकी अवस्था दयनीय थी। उच्च वर्गों की सेवा करना ही उनका कर्तव्य था। उन पर अनेक प्रतिबंध लाद दिए गए। राजा अपनी इच्छा के अनुसार उन्हें आतंकित या दंडित भी कर सकता था। शूद्र धार्मिक कर्मकाण्डों में भाग नहीं ले सकते थे। उच्च वर्ण वाले (द्विज) अनेक सामाजिक विशेषाधिकारों से सम्पन्न थे। उदाहरणस्वरूप, उच्च वर्ग के पुरुष निम्र श्रेणी की स्त्रियों से विवाह नहीं कर सकते थे। जातिव्यवस्था (वर्णव्यवस्था) की जटिलता ने सगोत्र विवाहों (विशेषकर ब्राह्मणों के बीच) पर प्रतिबंध लगा दिया। अंतरजातीय विवाह संभव थे, परन्तु शूद्रों से वैवाहिक संबंध कायम करना धर्मविरोधी और निंदनीय माना गया। इन सबके बावजूद उच्च वर्णों एवं निम्र वर्ण के बीच खान-पान-संबंधी नियम तबतक उतने कठोर नहीं बने थे जितने बाद में हो गए। वर्णव्यवस्था की जटिलता ने कालांतर में जातिव्यवस्था को जन्म दिया। चाण्डालों, दासों इत्यादि को वर्णव्यवस्था के बाहर रखा गया।
उत्तर-वैदिक युग में व्यक्तिगत संपत्ति के उदय ने सामाजिक असमानता भी उपस्थित कर दी। यद्यपि इस समय भी भूमि पर सामूहिक स्वामित्व ही माना जाता था, तथापि उत्तर-वैदिक साहित्य में भूमि के दान एवं खरीद का भी उल्लेख मिलता है। इस व्यवस्था ने व्यक्तिगत स्वामित्व, संपत्ति एवं सामाजिक असमानता की भावना उत्पन्न कर दी। जिनके पास अधिक जमीन थी। (क्षत्रिय एवं ब्राह्मणों के पास), उनकी समाज में विषिष्ट स्थिति बन गई। ऐसे व्यक्ति दास भी रखते थे। अथर्ववेद से पता लगता है कि स्त्री-दासियों द्वारा अनाज की पिसाई करवाई जाती थी। ऐसी व्यवस्था में आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्तियों की सामाजिक स्थिति भी दयनीय हो गई, उनकी स्वतंत्रता समाप्त हो गई, वे दूसरों पर आश्रित बन बैठे। फलस्वरूप, पूर्व-वैदिक काल की सामाजिक समानता समाप्त हो गई और सामाजिक असमानता फैल गई।
आर्यों के कौटुंबिक जीवन में कोई विशेष परिवर्तन दृष्टिगोचर नहीं होता। परिवार का मुखिया अब भी सम्माननीय व्यक्ति था। खान-पान, वस्त्र-आभूषण तथा आमोद-प्रमोद के साधन भी पूर्ववत ही बने रहे; परन्तु इस काल में पितृसत्तात्मक तत्व ज्यादा प्रबल होते चले गए। इसका सीधा परिणाम स्त्रियों की अवस्था पर पड़ा। उनकी स्थिति में गिरावट स्पष्ट तौर पर दृष्टिगोचर होती है। पुत्र की कामना पूर्ववत की जाती रही; परन्तु अब पुत्रियों का जन्म अभिशाप माना जाने लगा। ऐतरेयब्राह्मण में पुत्र को परिवार का रक्षक एवं पुत्रियों को दुःख का कारण बताया गया है इतना ही नहीं, मैत्रायणीसंहिता में जुआ (पासा) और सुरा (शराब) के साथ-साथ स्त्रियों को भी पुरुष का दुर्गण बताया गया है। यद्यपि साधारणतया अब भी विवाह एकात्मक ही होते थे, तथपि उच्च वर्गों में बहुविवाह (बहुपत्नीत्व) की प्रथा प्रचलित हो चुकी थी। पहली पत्नी को मुख्य पत्नी माना जाता था और उसे कुछ विशेषाधिकार भी प्राप्त थे। कन्याओं को बेचने एवं दहेज लेने के भी उदाहरण मिलते हैं। नियोग और विधवा-विवाह की प्रथा भी चलती रही। सती-प्रथा का उदय अभी तक नहीं हो सका था यद्यपि इस प्रथा के प्रचलन के भी कुछ उदाहरण उत्तर-वैदिक साहित्य में मिलते हैं। अल्पायु में ही लड़कियों के विवाह करने पर बल दिया जाने लगा। स्त्रियों को पूर्णतः पुरुषों के अधीन कर दिया गया। उनके राजनीतिक और धार्मिक अधिकारों पर भी प्रतिबंध लग गए। कुछ स्त्रियाँ अब भी विद्या, नृत्य और संगीत में पारंगत होती थी। वृहदारण्यकोपनिषद में दी गई गार्गी की कथा इस बात को प्रमाणित करती है, लेकिन इसी ग्रंथ से यह अंदाज भी लगता है कि स्त्रियों की शिक्षा-दीक्षा नियंत्रित थी। उदाहरणस्वरूप, एक वाद-विवाद के दौरान याज्ञवल्क्य गार्गी को धमकाते हुए कहते हैं कि अधिक बहस नहीं करो, वरना तुम्हारा सिर तोड़ दिया जाएगा।
उत्तर-वैदिककालीन सामाजिक जीवन में आश्रम-व्यवस्था का भी उदय हुआ। सामान्यतः एक आर्य की आयु 100 वर्षों की मानी गई। इसे चार बराबर भागों में विभक्त कर निश्चित कार्य करने को कहा गया। जीवन का पहला काल ब्रह्मचर्य था। इस अवधि के दौरान यह अपेक्षित था कि व्यक्ति गुरुकुल में रहकर, कठोर नियम और अनुशासन का पालन करते हुए विद्यार्जन करे। शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात मनुष्य को जीवन के दूसरे चरण गार्हस्थ्य में प्रवेश करना पड़ता था। इस चरण में उसका प्रमुख कर्तव्य विवाह कर पुत्र पैदा करना, धन कमाना एवं अतिथि-सत्कार करना था। अथर्ववेद में कहा गया है, “अपने माता-पिता (पितर) के प्रति मनुष्य का जो ऋण है, उसे गृहस्थाश्रम में ही प्रवेश करके वह कुछ पूरा कर सकता है।”
गृहस्थाश्रम को बहुत ही आदर से देखा जाता था क्योंकि इसी चरण में मनुष्य सांसारिक सुखों का उपयोग करता था, अनेक व्यक्तियों का पालन-पोषण करता था तथा अपने परिवार एवं समाज के प्रति विभिन्न उत्तरदायित्वों का निर्वाह करता था। गृहस्थाश्रम की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार सभी बड़ी और छोटी नदियाँ समुद्र में जाकर विश्राम पाती हैं, उसी प्रकार सभी आश्रमों के व्यक्ति गृहस्थ पर निर्भर रहते हैं। गृहस्थाश्रम के पश्चात वानप्रस्थ की अवस्था थी। जीवन के इस चरण में मनुष्य से यह अपेक्षित था कि वह गृहस्थ-जीवन का भार अपने पुत्रों को सौंपकर, सांसारिक जीवन से विरक्त होकर त्याग एवं तपस्या का जीवन व्यतीत करे। ऐसे व्यक्ति ग्रामों से बाहर वन में कुटी बनाकर रहते थे तथा ब्रह्मचारियों को शिक्षा देते थे। जीवन का अंतिम चरण संन्यास का था। इस अवधि में मनुष्य संन्यासी का जीवन व्यतीत करते हुए मोक्ष की प्राप्ति का प्रयत्न करता था। संन्यासी जंगलों में निवास करते थे। वे घूम-घूम कर उपदेश भी देते थे, इसीलिए इन्हें परिव्राजक भी कहा जाता था। आश्रम-व्यवस्था की स्थापना के पीछे दो मूल उद्देश्य थे- प्रथमतः, मनुष्य इस व्यवस्था द्वारा चार प्रकार के ऋणों (देवताओं, ऋषियों, पितरों एवं मानव-जाति के प्रति) से उऋण हो सके। द्वितीय, इस व्यवस्था द्वारा मनुष्य मानव-जीवन के चार महान पुरुषार्थों- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- की प्राप्ति कर सके। यह व्यवस्था भी उच्चवर्गों के लिए ही सुरक्षित रखी गई।
इस युग में शिक्षा की प्रगति भी हुई। विद्यार्थियों के लिए उपनयन-संस्कार आवश्यक बना दिए गए, परन्तु शूद्र और स्त्री यह संस्कार नहीं कर सकते थे। विद्यार्थी को गुरुकूल में रहते हुए गुरु की सेवा कर शिक्षा प्राप्त करनी पड़ती थी। राज्य अब भी शिक्षा की व्यवस्था नहीं करता था। शिक्षण-संस्थाएँ अनुदान से चलती थीं। शैक्षणिक विषयों में देवविद्या, ब्रह्मविद्या, भूतविद्या, नक्षत्रविद्या, तर्कशास्त्र, इतिहास, उपनिषद आदि प्रमुख थे। इनके साथ-साथ ब्रह्मविद्या, भूतविद्या, नक्षत्रविद्या, तर्कशास्त्र, इतिहास, उपनिषद आदि प्रमुख थे। इनके साथ-साथ स्वाध्याय प्राणायाम तथा शारीरिक एवं चारित्रिक बल पर भी ध्यान दिया जाता था। शिक्षा की मौखिल व्यवस्था थी। लगभग 12 वर्षों तक विद्यार्थियों को गुरुकुल में रहकर शिक्षा पूरी करनी पड़ती थी। संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि उत्तर-वैदिककाल में सामाजिक ढाँचे में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए।
आर्थिक क्रांति का युग
उत्तर- वैदिक युग आर्थिक क्रांति का भी युग था। इस युग में आर्यों के आर्थिक जीवन में महत्वपूर्ण परिवर्तन आए। आर्य अब पहले का घुमंतू जीवन त्याग कर स्थायी रूप से ग्रामीण बस्तियों में निवास करने लगे। इससे उनके जीवन में स्थायित्व आया। फलतः, पशुचारण की अपेक्षा अब आर्य कृषि पर अधिक ध्यान देने लगे। वस्तुतः, कृषि ही उनके आर्थिक जीवन का मुख्य आधार बना। संभवतः लौह-तकनीक के ज्ञान ने कृषि के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस काल के साहित्य में ‘धातु की चोंचवाले फाल’ का उल्लेख मिलता है जो संभवतः लोहे का बना होता था। लगभग 900 ई० पू० के आसपास से पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, बंगाल इत्यादि अनेक जगहों से लोहे के प्रचलन के पुरातात्विक प्रमाण मिलते हैं, परन्तु कृषि में प्रयुक्त होने वाले उपकरण नहीं मिले हैं। इसका एक कारण यह था कि लोहे का प्रयोग इस समय तक मुख्यतया घरेलू उपकरणों या युद्ध के सामानों के रूप में ही होता रहा। यह भी संभव है कि जंग लगने से औजार नष्ट हो चुके हों। इस समय के साहित्यिक ग्रंथों से भी धातु या लोहे (श्याम अयस्) के कृषि में प्रयोग का प्रमाण मिलता है। (अतरंजीखेड़ा, जिला एटा, उत्तर प्रदेश से उत्खननों के दौरान लोहे के कुछ उपकरण उपलब्ध हुए हैं, जिन्हें संभवतः कृषि में व्यवहार किया जाता था, परन्तु लोहे का बना हल का फाल जखेड़ा, जिला एटा, उत्तर प्रदेश से मिला हैं यह फाल संभवतः 500 ई०पू० के लगभग का है।)
साहित्यिक स्रोतों में कृषि की महत्ता को प्रदर्शित करने वाले अनेक प्रसंग हैं। शतपथब्राह्मण में कृषि-कर्म की विशद विवेचना की गई हैं। काठकसंहिता में 24 बैलों द्वारा हल खींचे जाने का उल्लेख मिलता हैं। हल कठोर लकड़ियों (खदिर, कत्था) के बनते थे और अत्यंत भारी होते थे। इसीलिए, इन्हें खींचने के लिए अनेक बैलों की जरूरत पड़ती थी। भारी हल से चूंकि जमीन गहरी जोती जाती थी, इसलिए फसल भी भरपूर होती थी। चावल, जौ, गेहूँ एवं जंगली किस्म के गन्ने की खेती के प्रमाण क्रमशः अतरंजीखेड़ा और हस्तिनापुर से मिले हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के दलहन, शाक-सब्जी इत्यादि भी उपजाए जाते थे। खेतों की उर्वरता बढ़ाने के लिए गोबर की खाद का व्यवहार किया जाता था। खेतों की सिंचाई का भी प्रबंध किया गया। इन प्रयासों के फलस्वरूप किसान अपनी आवश्यकता से अधिक अनाज पैदा करने लगे, जिसके आधार पर समाज के दो अनुत्पादी वर्गों (ब्राह्मण एवं क्षत्रिय) का भरण-पोषण हो सका, राज्य का संगठन मजबूत हुआ और शिल्प एवं व्यवसाय-वाणिज्य की प्रगति हुई।
यद्यपि उत्तर-वैदिककाल में कृषि आर्यों का मुख्य व्यवसाय बन गया, तथापि इससे पशुपालन का महत्व कम नहीं हो गया। कृषि के समुचित विकास के लिए भी पशुओं की आवश्यकता थी। अतः, पशुपालन पर भी इस काल में ध्यान दिया गया। अथर्ववेद में पशुओं की वृद्धि के लिए अनेक प्रार्थनाएँ की गई हैं। गाय-बैल के अतिरिक्त भैंस भी अब पालतू मवेशी बन गई। पशुओं से बोझ ढोने, हल खींचने का काम लिया ही जाता था, इनसे आर्यों को मांस, दूध, ऊन, चमड़ा और हड्डी मिलते थे, जिनका विभिन्न व्यवसायों में उपयोग होता था।
उत्तर-वैदिक साहित्य में कृषि, पशुचारण के अतिरिक्त अनेक प्रकार के व्यवसायों का भी उल्लेख मिलता है। वाजसनेयी संहिता में मछुआ, सारथी, गड़ेरिया, स्वर्णकार, मणिकार, रस्सी बटने वाले, टोकरी बुनने वाले, धोबी, लुहार, जुलाहा, रंगसाज, कुम्भकार आदि व्यवसायियों का उल्लेख मिलता है। इस समय मिट्टी के एक विशेष प्रकार के बरतन बनाए जाते थे, जिन्हें चित्रित धूसर मृदभांड कहा जाता है। चाक की सहायता से मिट्टी के बरतन बनाए जाते थे। साहित्यिक स्रोतों में कुलालों (कुम्भकारों) और कुलाल-चक्रों (चाक) का उल्लेख मिलता हैं। सूत कातने एवं वस्त्र बुनने का व्यवसाय बहुत अधिक विकसित था। सूत कातने का काय मुख्यतः स्त्रियाँ ही करती थीं। बढ़ई, चर्मकार और धातुकर्मी (ताँबा, लोहा, सोना, चाँदी इत्यादि का व्यवसाय भी प्रचलित था। विभिन्न व्यवसायी संभवतः समूहों में संगठित थे। इन संगठनों एवं इनके प्रधान के लिए गण, गणपति, श्रेष्ठी जैसे शब्दों का व्यवहार किया गया है।
विभिन्न व्यवसायों के विकास ने प्रारंभिक व्यापार-वाणिज्य को भी प्रश्रय दिया। साहित्यिक ग्रंथों में जल एवं स्थल-मार्गों से व्यापार करने का जिक्र किया गया है। कुछ विद्वानों की धारणा है कि इस युग में नगरों एवं विदेशी व्यापार का भी उदय हुआ, परन्तु उपलब्ध साक्ष्य इनकी पुष्टि नहीं करते। यद्यपि सतमान, निष्क, कृष्णल एवं पाद शब्दों का उल्लेख मिलता है, तथापि सिक्कों के प्रचलन का कोई पुरातात्विक प्रमाण नहीं है। व्यापार विनिमय के आधार पर छोटे पैमाने पर होता था। शतपथब्राह्मण से पता चलता है कि कर्ज देने एवं सूद लेने की प्रथा प्रचलित हो चुकी थी। इन महत्वपूर्ण परिवर्तनों के बावजूद आर्यों की अर्थव्यवस्था अब भी ग्रामीण ही थी। इसे शहरी अर्थव्यवस्था नहीं कहा जा सकता है। ज्यादा-से-ज्यादा हम इसे प्राक–शहरी अर्थव्यवस्था का नाम दे सकते हैं।
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