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नगर निगम (Municipal Corporation) 

नगर निगम 

नगर निगम  

नगर निगम शहरी क्षेत्र में प्रशासन की सर्वोच्च इकाई है। उसके सर्वोच्च अथवा शीर्षस्थ होने का आशय है कि यह अन्य प्रकार के नगर-शासनों पर अपनी सत्ता का प्रयोग करता है। नगर निगमों की स्थापना राज्यों में राज्य सरकार के तथा केन्द्र-शासित प्रदेशों में केन्द्र सरकार के विशेष नियम के अन्तर्गत की जाती है, उनका अस्तित्व एवं अधिकार राज्य या केन्द्र सरकार पर निर्भर करता है।

नगर निगम के लक्षण

नगर निगम के कुछ मुख्य लक्षण निम्नानुसार हैं-

  1. नगर निगम संविधान अथवा विधान के औपचारिक अधिनियम के अन्तर्गत स्थापित किए जाते हैं।
  2. नगर निगम को चार्टर के रूप में स्थानीय जनता पर शासन करने का अधिकार होता है।
  3. नगर निगम के कार्यों की प्रामाणिकता के लिए कारपोरेट नाम एवं मोहर होती है।
  4. नगर निगम को स्थानीय कार्यों के उत्तरदायित्वों के निर्वाह के लिए स्वायत्तता का अधिकार होता है।
  5. नगर निगम एक वैधानिक संस्था है और नगर निगम अधिनियम में सामान्यतः निम्नलिखित तथ्यों का उल्लेख रहता है-
    1. नगर निगम की संरचना और उसकी शक्तियाँ का विवरण,
    2. निगम के विभिन्न अधिकारियों और विभागों के मध्य शक्तियों का विवरण,
    3. निगम के भौगोलिक क्षेत्र की सीमाओं का विवरण एवं
    4. मतदाताओं की योग्यता एवं मतदान करने की प्रक्रिया का विवरण।
  1. राज्य सरकारों अथवा केन्द्र सरकारों द्वारा स्थापित किये जाने के कारण नगर निगमों की स्थिति ‘सम्प्रभु संस्था’ की नहीं होती है। इन्हें राज्य सरकारों अथवा केन्द्र सरकार पर निर्भर रहना पड़ता है।
  2. सामान्यतः बड़े-बड़े शहरों में ही नगर निगमों की स्थापना की जाती है।
  3. नगर निगमों की स्थापना का अभी कोई निश्चित मापदण्ड निर्धारित नहीं किया जा सकता है। किन बड़े शहरों में नगर निगम स्थापित किए जाएँ यह मुख्यतः एक नीति सम्बन्धी प्रश्न है जिसका समाधान जनसंख्या या आकार-क्षेत्र तथा साधन-स्रोतों की उपलब्धता इत्यादि पर निर्भर करता है।

डॉ० श्रीराम माहेश्वरी ने नगर निगमों के सामान्य लक्षणों का निम्नानुसार उल्लेख किया-

  1. कोई भी निगम राज्य के विधानाग द्वारा पारित संविधि के परिणामस्वरूप ही स्थापित किया जाता है।
  2. निगमाध्यक्ष निगम का प्रमुख होता है, उसका कार्यकाल एक वर्ष होता है, किन्तु उसे दुबारा भी चुना जा सकता है।
  3. नगरीय शासन का निगमात्मक रूप सामान्यतः विचारात्मक तथा कार्यकारी कार्यों के पृथक्करण पर आधारित होता है।
  4. राज्य-सरकार नियन्त्रण तथा परिवीक्षण की शक्तियाँ अपने हाथों में बनाए रखती है, यहाँ तक कि निगम को भंग करके प्रशासन को अपने हाथों में भी ले सकती है।

नगर निगम की स्थापना का आधार

नगर निगम बनाने से पूर्व प्रायः उस स्थान से प्राप्त वार्षिक आय, स्थानीय जनता को अधिक सुविधाएँ देने की क्षमता आदि का आंकलन किया जाता है। नगर निगम स्थापित करने के निम्नलिखित सिद्धान्त निर्धारित किए जा सकते हैं-

  1. घना बसा हुआ क्षेत्र।
  2. नगरपालिका का वर्तमान विकास और उसके भावी विकास की सम्भावनाएँ।
  3. नगरपालिका की वर्तमान और सम्भावित वित्तीय स्थिति।
  4. बढ़े हुए करों को वहन करने की जनता की क्षमता और आकांक्षा।
  5. निगम के पक्ष में जनमत ।
  6. क्षेत्र विशेष की महत्वपूर्ण परिस्थितियों का आंकलन ।

डॉ० श्रीराम माहेश्वरी ने लिखा है- ये सिद्धान्त वस्तुतः सुनिश्चित नहीं हैं। इन्हें तो किसी क्षेत्र में किसी प्रकार का नगरीय शासन स्थापित करने के लिए ध्यान में रखना पड़ेगा। सत्य यह है कि इस बात की एकमात्र निर्णायक राज्य सरकार ही है कि किस नगर को नगर का दर्जा दिया जाना चाहिए। सामान्यतः जो नगर बड़ा होता है और जहाँ लोकमत निरन्तर नगर निगम की माँग करता है उसे राज्य सरकार नगर का दर्जा देने के लिए तैयार हो जाती है। जनसंख्या तथा राजस्व की कसौटी वास्तव में समय सापेक्ष होती है इसलिए समय के परिवर्तन के साथ-साथ सार्थकता कम होती रहती है।

भारत में मुख्य नगर निगम

जनसंख्या, जन-घनत्व तथा वित्तीय अवस्था की दृष्टि से नगर निगमों में अन्तर किया जा सकता है। चेन्नई, मुम्बई और कलकत्ता देश के सबसे पुराने नगर निगम हैं। हैदराबाद, पटना, अहमदाबाद, बड़ौदा, सूरत, त्रिवेन्द्रम, कालीकट, कोचीन, मदुराई, पूना, नागपुर, शोलापुर, बंगलौर, कानपुर, आगरा, इलाहाबाद, वाराणसी, लखनऊ, कलकत्ता, दिल्ली, जयपुर तथा कोटा अन्य बड़े नगर निगम हैं।

नगर निगम का संगठन (Organisation)

भारत में नगर निगम में ये सत्ताएँ या घटक सम्मिलित हैं-(1) परिषद् , (2) मेयर या महापौर , (3) समितियाँ एवं (4) नगर आयुक्त ।

  1. परिषद् (Council)-

    परिषद् नगर निगम का एक अंग होता है तथापि इसकी शक्तियाँ और गरिमा इतनी व्यापक होती है कि प्रायः इसको ही नगर निगम के नाम से जाना जाता है। परिषद् एक प्रकार से स्थानीय विधानसभा है जो स्थानीय शासन के सम्बन्ध में जनता की इच्छा को प्रकट करती है और फलस्वरूप नगरीय कानून का रूप धारण कर लेती है। परिषद् में नगर के जो चुने हुए सदस्य होते हैं उन्हें पार्षद कहा जाता है। वे वयस्क मताधिकार के आधार पर तीन से पाँच वर्ष की अवधि के लिए चुने जाते हैं। चुनाव के लिए नगर को उतने ही क्षेत्रों (Wards) में विभाजित किया जाता है जितने स्थान परिषद् में होते हैं। अनेक विद्वानों का अभिमत है कि परिषद् का तीन वर्ष का कार्यकाल बहुत छोटा होता है। उचित यही है कि परिषद् का कार्यकाल पाँच वर्ष का हो। परिषद् में निर्वाचित सदस्य तो होते ही हैं उनके अतिरिक्त कुछ सदस्य निर्वाचित पार्षदों द्वारा नगर के वयोवृद्ध अनुभवी व्यक्तियों, महिलाओं और अन्य वर्गों में से चयनित किए जाते हैं जिन्हें एल्डरमैन (Aldermen) कहा जाता है। पार्षदों द्वारा इन नगर-वृद्धों (Aldermen) का चयन लोकतान्त्रिक दृष्टिकोण ही है।

इस प्रकार नगर निगम की परिषद् में दो प्रकार के सदस्य होते हैं-(क) वे पार्षद जो सीधे जनता द्वारा विभिन्न नगरीय क्षेत्रों (Wards) से चुने जाते हैं एवं (ख) वे सदस्य जो निर्वाचित पार्षदों द्वारा नगरवृद्ध (Aldermen) के नाम से परिषद् में लिए जाते हैं। उल्लेखनीय है कि प्रत्येग निगम में दोनों प्रकार के सदस्यों का होना अनिवार्य नहीं है। “मुम्बई जैसे कुछ निगमों की परिषदों में जो निर्वाचित सदस्य सम्मिलित होते हैं, किन्तु अन्य निगमों में नगरवृद्धों को भी परिषद् में स्थान प्राप्त होता है।” नगरवृद्धों को वे सभी अधिकार प्राप्त होते हैं जो निर्वाचित पार्षदों को होते हैं। निगम परिषदों में पिछड़े वर्ग और जनजातियों के लिए भी कुछ स्थान आरक्षित किए जाते हैं, लेकिन यह अनिवार्य नहीं है। मुम्बई नगर निगम में स्थानों के आरक्षण की परिपाटी कभी नहीं रही है।

देश के नगर निगमों के परिषदों के आकार में कोई एकरूपता नहीं है। परिषद् का आकार यदि छोटा होता है तो वह अधिक सुसंगठित और व्यवहार कुशल होती है। आकार बड़ा होने से प्रभावकारी ढंग से काम नहीं हो पाता है और पार्षदों की कर्त्तव्यपरायणता प्रायः अपेक्षित स्तर की नहीं रह पाती। नगर परिषद् के आकार के बारे में कहा जाता है कि स्थानीय क्षेत्र के अनुरूप चालीस से सौ सदस्यों वाली परिषद् उपयुक्त होती है।

  1. महापौर या मेयर (Mayor)-

    नगर निगम में कार्यपालिका शक्तियाँ महापौर अथवा मेयर को सौंपी जाती हैं जो नगर का प्रथम नागरिक होता है। मेयर या महापौर नगर की प्रतिष्ठा और गरिमा का प्रतिनिधित्व करता है। मेयर का चुनाव निगम के निर्वाचित पार्षदों और नगरवृद्धों द्वारा उन्हीं में से एक वर्ष के लिए किया जाता है। यदि निगम के सदस्य चाहें तो अगले वर्ष उसी व्यक्ति को पुनः मेयर चुन सकते हैं। मेयर के चुनाव की स्थिति सभी निगमों में एक जैसी नहीं है।

मेयर परिषद् की बैठकों की अध्यक्षता करता है, उसका परिषद् के कार्यालय पर प्रशासनिक नियन्त्रण होता है। दिल्ली आदि कुछ नगरों में मेयर को निगम के सभी अभिलेखों को देखने का अधिकार है। मेयर नगर के नागरिक प्रशासन के बारे में किसी भी नगरपाल से जानकारी प्राप्त कर सकता है। कुछ संविधियों के अनुसार मेयर को अधिकार दिया गया है कि संकटकाल में वह किसी काम को करने या रोकने का आदेश दे सकता है। आवश्यकता पड़ने पर मेयर परिषद् की विशेष बैठकें आमन्त्रित कर सकता है। यदि एक निश्चित संख्या में सदस्य माँग करें तो मेयर को विशेष बैठक बुलानी पड़ती है। चेन्नई, बंगलौर, त्रिवेन्द्रम तथा कालीकट के नगर निगमों में यह व्यवस्था है कि निगम और राज्य सरकार के बीच सभी पत्र-व्यवहार मेयर के माध्यम से होगा, लेकिन मेयर किसी पत्र-व्यवहार को रोक कर नहीं रख सकता। मेयर पत्र-व्यवहार के समय अपनी टिप्पणी लिख सकता है। मध्यप्रदेश में यद्यपि मेयर को आपातकालीन मामलों में क्रियान्वयन करने या क्रियान्वयन को रोकने के लिए निर्देश देने का अधिकार है, लेकिन यह निर्देश उसे निगम परिषद् की अगली बैठक में कारम सहित रखने होते हैं जिसमें परिषद् का निर्णय ही मान्य समझा जाता है। उत्तर प्रदेश में मेयर को वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति सम्बन्धी शक्तियाँ सौंपी गई हैं, किन्तु ये सभी नियुक्तियाँ राज्य लोक सेवा आयोग के परामर्श से की जाती हैं। यद्यपि मेयर निगम का अध्यक्ष होता है और निगम में कार्यपालिका शक्तियाँ उसे सौंपी जाती हैं तथापि अपनी कुछ परिस्थितियों के कारण मेयर ‘वास्तविक कार्यपालिका’ नहीं है। मेयर निगम का प्रभावी नेता न होकर औपचारिक अध्यक्ष ही रह जाता है।

मेयर की स्थिति का मूल्यांकन करते हुए डॉ. श्रीराम माहेश्वरी ने लिखा है-“अप्रत्यक्ष निर्वाचन तथा एक वर्ष के अल्प कार्यकाल के कारण निगमाध्यक्ष सक्रिय कर्मचारी नहीं है, बल्कि एक कठपुतली मात्र है। जिसका निर्वाचन पद्धति द्वारा किया जाता है, न कि प्रत्यक्ष जनता द्वारा । इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि उसे जनता का आदेश प्राप्त है अतः वह जनता के नाम न बोल सकता है और न अपना अधिकार जता सकता है क्योंकि प्रश्न उठ खड़ा होता है कि जनता का प्रतिनिधि कौन है-जनता द्वारा निर्वाचित पार्षद अथवा पार्षदों द्वारा निर्वाचित निगमाध्यक्ष? इसलिए माँग की गई है कि विशेषकर स्वयं निगमाध्यक्षों द्वारा वर्तमान स्थिति में परिवर्तन किया जाए और निगमाध्यक्ष का निर्वाचन जनता द्वारा किए जाने की व्यवस्था की जाए, किन्तु जनता द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन में दो खतरे हैं-प्रथम, इस प्रकार निर्वाचित निगमाध्यक्षों को समुचित अधिकारों और शक्तियों से विभूषित करना होगा क्योंकि जनता द्वारा निर्वाचित निगमाध्यक्ष को एक कठपुतली मात्र बनाकर रखना सर्वथा नीति विरुद्ध होगा। इससे उसके तथा परिषद् के बीच टकराव होने का डर रहेगा। द्वितीय, प्रत्यक्ष निर्वाचन में निगमाध्यक्ष तथा परिषद् के बीच असामंजस्य के बीज निहित होते हैं, क्योंकि यह निश्चित नहीं रहता है कि इस प्रणाली से जो व्यक्ति निगमाध्यक्ष चुन जाएगा वह पार्षदों को स्वीकार होगा ही, इससे फूट, कलह आदि उत्पन्न होंगे।”

  1. समितियाँ (Committees)-

    जिन कारणों से केन्द्रीय एवं राज्य व्यवस्थापिका को विभिन्न कार्यों की देखभाल के लिए अपने सदस्यों की समितियाँ बनानी पड़ती हैं वे कारण स्थानीय स्तर पर भी विद्यमान रहते हैं। नगर निगम परिषद् की बैठकें महीने में प्रायः एक या दो बार से अधिक नहीं हो पातीं। अतः निगम के लिए यह सम्भव नहीं होता कि वह स्वयं अपने सभी कार्य भली-भाँति सम्पन्न करे। निगम परिषद् अपने बड़े आकार के कारण अपने उत्तरदायित्वों को सफलतापूर्वक सम्पन्न करने में प्रभावी रूप से कार्य नहीं कर पातीं। ऐसी स्थिति में परिषद् लोकतन्त्रीय पद्धति के अनुरूप अपनी नीतियों के सफल संचालन और क्रियान्वयन व पर्यवेक्षण के लिए कुछ समितियों का गठन करती है। समितियों के निर्माण से व्यक्तिगत शक्ति दुरुपयोग की सम्भावना कम हो जाती है। निगम परिषद् द्वारा नियुक्त समितियाँ दो प्रकार की होती हैं-

    • संविधानिक समितियाँ (Statutory Committees)
    • गैर-सांविधिक समितियाँ (Non-Statutory Committees)
    • सांविधिक समिति सांविधिक समिति वह है जिसकी रचना उस संविधि द्वारा की जाती है जिसके द्वारा निगम का निर्माण होता है। सांविधिक समितियाँ प्रत्येक नगर निगम में बनाया जाना आवश्यक है, क्योंकि इनका उल्लेख अधिनियम के अन्तर्गत होता है। ये समितियाँ सीधे नगर निगम संविधि या अधिनियम से सत्ता प्राप्त करती हैं। इनके गठन, शक्तियों, कार्यों और अधिकारों की रूपरेखा अधिनियम में दी जाती है।

शक्तियाँ और कार्यों की व्यापकता की दृष्टि से परिषद् की स्थाई समिति सबसे अधिक महत्वपूर्ण होती है। स्थाई समिति एक मार्गदर्शक समिति के रूप में कार्य करती है जिसके हाथों में कार्यकारी पर्यवेक्षणीय, वित्तीय एवं कर्मचारी वर्ग से सम्बन्धित शक्तियाँ होती हैं। वास्तव में स्थाई समिति निगम की कार्यकारी समिति के रूप में कार्य करती है। इस समिति का महत्वपूर्ण कार्य सम्पूर्ण नगर प्रशासन पर निगाह रखना है। स्थानीय समिति उन सभी शक्तियों का प्रयोग करती है जो अधिनियम द्वारा उसे सौंपे गए हैं। स्थानीय समिति परिषद् और नगरपाल के बीच की कड़ी है। वह दोनों की प्रभावकारिता को नियन्त्रित और प्रभावित करती है। यद्यपि स्थाई समिति अनेक मामलों में अपने निर्णयों के लिए परिषद् की स्वीकृति होती है, लेकिन यह स्वीकृति सामान्यतः औपचारिकता मात्र होती है।

    • गैरसांविधिक समिति इन समितियों का गठन परिषद् द्वारा अपने उपनियमों के अन्तर्गत किया जाता है। परिषद् अपने कार्यों के सुचारु एवं सफल क्रियान्वयन के लिए इन समितियों का निर्माण करती है। ये समितियाँ भिन्न-भिन्न विषयों और कार्यों में परिषद् की सहायता करती है।

सभी नगर निगमों में समितियों का गठन किया गया है, लेकिन उनकी संख्या, संगठन और कार्यों में एकरूपता नहीं है। पृथक्-पृथक् निगमों में उनका स्वरूप देखने को मिलता है। इस प्रमुख समितियों में इसके पहले वहाँ 1. वित्तीय एवं स्थापना समिति, 2. शिक्षा समिति, 3. स्वास्थ्य एवं बस्ती विकास समिति, 4. जलापूर्ति एवं सफाई समिति तथा 5. निर्माण एवं कस्बा समिति को शामिल किया जाता है। सांविधिक एवं स्थाई समितियों के अतिरिक्त निगमों में सामान्य नियमों और प्रक्रियाओं के अन्तर्गत विशिष्ट समितियों तथा अस्थाई समितियों का भी गठन किया जाता है। अस्थाई समितियाँ उद्देश्य-विशेष के लिए बनाई जाती हैं और निगम द्वारा प्रदत्त कार्य का सम्पादन करती हैं। कुछ निगम अपने कार्य को अधिक सरल और सुगम बनाने के लिए क्षेत्रीय समितियों का गठन करते हैं। कतिपय समितियों में क्षेत्रीय समितियों का गठन किया जाता है। कुछ नगर निगमों ने अपने सम्पूर्ण क्षेत्र को अनेक छोटे-छोटे उपक्षेत्रों में विभाजित कर दिया है ताकि जनता को सामान्य सुविधाएँ आसानी से उपलब्ध कराई जा सकें। प्रत्येक क्षेत्र के स्थानीय शासन के लिए एक क्षेत्रीय समिति गठित की जाती है जो उस क्षेत्र के निवासियों की समस्याओं का समाधान करती है।

  1. नगर आयुक्त (Municipal Commissioner)-

    नगर आयुक्त अथवा नगरपाल निगम का मुख्य कार्यकारी अध्यक्ष होता है। वास्तव में उसे निगम का प्रमुख प्रशासनिक कार्यकर्ता समझना चाहिए। नगर आयुक्त उन कर्त्तव्यों का निर्वाह करता है जो अधिनियम द्वारा उसे सौंपे गए थे। संकटकाल में वह कोई भी ऐसा काम कर सकता है जिसे वह आवश्यक समझता हो। नगर परिषद् की नीतियों को और संविधि के प्रावधानों को कार्यान्वित करना नगर आयुक्त का उत्तरदायित्व है।

नगर आयुक्त की नियुक्ति राज्य लोक सेवा आयोग के परामर्श से राज्य द्वारा की जाती है। वह प्रायः उच्च स्तर पर नगर प्रशासक होता है जिसे राज्य सरकार नगर का प्रशासन करने के लिए नियुक्त करती है। वह अपना वेतन निगम से प्राप्त करता है। नगर आयुक्त का कार्यकाल भिन्न नगर निगमों में भिन्न है। चेन्नई और मुम्बई नगर निगमों में उसका कार्यकाल तीन वर्ष का है तो कलकत्ता और दिल्ली नगर निगमों में यह पाँच वर्ष है। राज्य सरकार को अधिकार है कि वह उसके कार्यकाल में वृद्धि कर दे। निगम के पार्षदों की शिकायत अथवा उसके अयोग्य सिद्ध होने पर राज्य सरकार नगर आयुक्त को अपने पद से हटा सकती है। यद्यपि गैर-सरकारी व्यक्ति को नगर आयुक्त पद पर नियुक्त करने पर कोई कानूनी प्रतिबन्ध नहीं है तथापि सरकार प्रायः सेवारत लोक सेवक को ही इस पद पर नियुक्त करती आई है। नगर आयुक्त की नियुक्ति की अवधि का प्रायः संविधि या अधिनियम में उल्लेख रहता है। नगर आयुक्त की शक्तियों को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है-

  1. वे शक्तियाँ जो उसे नगर निगम अधिनियम द्वारा प्राप्त होती हैं एवं
  2. वे शक्तियाँ जो उसे नगर निगम परिषद् अथवा उसकी स्थाई समिति द्वारा प्रदान की जाती हैं।

नगर आयुक्त को विविध प्रकार के कार्य करने पड़ते हैं। प्रशासनिक, वित्तीय और निर्वाचन सम्बन्धी क्षेत्रों में उसके विभिन्न उत्तरदायित्व हैं। निगम के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के रूप में उसे निगम परिषद् तथा उसकी समितियों की बैठकों में बोलने का अधिकार है, किन्तु वह मतदान नहीं कर सकता। निगम के सभी कर्मचारी नगर आयुक्त के नियन्त्रण और पर्यवेक्षण में कार्य करते हैं तथापि नियुक्ति, पदोन्नति एवं अनुशासन के मामलों में परिषद् तथा उसकी समिति भी नगर आयुक्त की शक्ति में भागीदार होती है। यह स्थिति निगम कर्मचारियों के सम्बन्ध में नगर आयुक्त की स्थिति को निश्चय ही कमजोर करने वाली है। नगर परिषद् कर्मचारियों पर इस प्रकार का दोहरा नियन्त्रण अनुशासन को क्षीण करता है। नगर आयुक्त निगम और स्थाई समितियों के निर्णय के लिए नीति-प्रारूप तैयार करता है। कुछ नगर निगम अधिनियमों में नगर आयुक्त को अन्तिम अधिकार दिए गए हैं।

नगर आयुक्त को पर्याप्त वित्तीय शक्तियाँ प्राप्त हैं। विधि के अनुसार यद्यपि निगम का बजट पहले स्थाई समिति द्वारा स्वीकृत एवं बाद में परिषद् द्वारा पारित किया जाता है, लेकिन बजट तैयार करने का उत्तरदायित्व नगर आयुक्त का ही है। व्यवहार में नये करों के प्रस्तावों के सम्बन्ध में अभिक्रम वही करता है। परिषद् द्वारा बजट पारित कर देने के उपरान्त नगर आयुक्त स्थाई समिति के पास यह अधिकार प्राप्त करने के लिए जा सकता है कि वह बजट अनुदानों के अन्तर्गत किसी राशि को एक छोटी मद में से दूसरी में अन्तरित कर सके। कुछ छोटे कर्मचारियों की नियुक्ति का भी उसे अधिकार है। वह निगम के सभी दस्तावेजों और कागजातों का प्रभारी शक्तियाँ प्राप्त होती हैं।

अधिकारी होता है। आपातकाल में नगर आयुक्त की अधिनियम की विशिष्ट और असामान्य नगर आयुक्त नगर परिषद् के प्रति उत्तरदायी होता है। वह परिषद् की बैठकों में भाग लेता है और पार्षदों के प्रश्नों के जवाब उसे ही देने होते हैं। वह परिषद् के प्रस्तावों का क्रियान्वयन करता है। नगरीय सेवाओं के अधिनियम, नियमों, उपनियमों के प्रावधानों के निष्पादन का उत्तरदायित्व नगर आयुक्त का है। परिषद् और नगर आयुक्त के बीच सम्बन्ध कुछ इस प्रकार के हैं जैसे कि एक प्रमुख तथा उसके अभिकर्ता के बीच हुआ करते हैं। परिषद् का उस पर नियन्त्रण रहता है। परिषद् यह निर्धारित करती है कि नगर आयुक्त अपनी शक्तियों का प्रयोग किस प्रकार करेगा। वह प्रस्ताव पारित करके राज्य सरकार से उसे वापस बुलाने की माँग भी कर सकती है।

नगर निगम के कार्य (Functions)

स्थानीय नागरिकों की समस्याओं को दूर करने और उन्हें अधिकाधिक सुविधाएँ प्रदान करने के लिए नगर निगम को अनेक कार्य करने होते हैं-

  • पीने योग्य जल की व्यवस्था और उसका वितरण करना ।
  • नालियाँ एवं ऐसी ही अन्य सार्वजनिक सुविधाओं का निर्माण तथा सफाई की व्यवस्था करना।
  • बिजली का वितरण करना।
  • सड़क परिवहन सेवाओं की व्यवस्था करना।
  • कीचड़ तथा मल को इकट्ठा करना और हटाना।
  • गन्दी बस्तियों की सफाई करना।
  • मुर्दो का अन्तिम संस्कार करने के लिए श्मशान भूमि का नियमन एवं देखभाल करना।
  • जन्म तथा मृत्यु को पंजीकृत करना।
  • बीमारियों की रोकथाम के लिए जनता को टीका लगवाना।
  • खतरनाक बीमारियों को रोकना।
  • अस्पताल, डिस्पेन्सरी तथा अनाथों के लिए कल्याण केन्द्र खोलना।
  • अग्नि-शमन सेवा की व्यवस्था करना।
  • खतरनाक एवं घातक व्यापारों पर नियन्त्रण रखना।
  • खतरनाक भवनों को हटा देना।
  • सार्वजनिक सड़कें, गलियाँ एवं पुलिया बनवाना।
  • खाद्य पदार्थों तथा भोजनालयों का नियमन तथा नियन्त्रण करना।
  • सार्वजनिक गलियों में प्रकाश एवं सफाई का प्रबन्ध करना।
  • गलियों एवं पुलियाओं पर से बेकार चीजों को हटाना।
  • गलियों एवं मकानों के नम्बर लगाना तथा गलियों एवं रास्तों के नाम रखना।
  • प्राथमिक शिक्षा के लिए स्कूल खोलना।
  • बिजली वितरण, सड़क यातायात एवं जल-वितरण सेवाओं के लिए उद्यमों की रचना, स्थापना एवं प्रबन्ध करना।
  • नगरपालिका कार्यालय एवं निगम की अन्य सम्पत्ति की रचना एवं मरम्मत।
  • गृह कर एकत्रित करना।
  • सार्वजनिक शौचालयों की व्यवस्था करना।
  • सड़कों एवं फुटपाथों से अतिक्रमण हटाना।
ऐच्छिक कार्य (Discretionary Function)
  • अन्य साधनों द्वारा प्राथमिक शिक्षा को बढ़ावा देना।
  • पुस्तकालयों, अजायबघरों, कला-प्रदर्शनियों आदि का आयोजन करना।
  • सार्वजनिक पार्क, बगीचे, अखाड़े तथा मनोरंजन-गृह बनाना।
  • जनता के लिए घरों का निर्माण करना।
  • भवनों एवं भूमि का सर्वेक्षण करना।
  • शादियों का पंजीकरण करना।
  • आराम-गृह, गरीब-गृह, बालक-गृह, वृद्ध गृह, रेन बसेरा आदि का प्रबन्ध करना।
  • आवारा पशुओं को पकड़ना।

अगर देश के नगर निगमों के कार्यों का मूल्यांकन किया जाये तो कहा जा सकता है कि उनके द्वारा अनिवार्य कार्यों का सम्पादन न तो प्रभावशाली ढंग से किया गया है और न ही संतोषजनक रूप से । फलस्वरूप महानगरों में गंदगी का साम्राज्य रहता है और जीवनोपयोगी सुविधाओं का अभाव रहता है। जल निकासी की समुचित व्यवस्था का अभाव, सर्वत्र , टूटी-फूटी सड़कें, पेयजल की समुचित व्यवस्था का अभाव, चिकित्सा सेवाओं का अभाव तथा मल-निकासी की समुचित व्यवस्था का अभाव जैसे पहलू नगर निगमों की असफलताओं का परिचय देते हैं। इन अभावों और कमियों के बावजूद नगर निगम नागरिकों को महत्वपूर्ण सुविधाएँ और राहत पहुँचाता है, अतः इनकी उपयोगिता निर्विवाद है।

नगर निगम की आय के साधन

(Income Resources)

नगर निगम की आय के प्रमुख साधनों में राज्य सरकारों द्वारा प्राप्त अनुदान, व्यापारिक प्रतिष्ठानों से प्राप्त आय, फीस द्वारा प्राप्त आय, करों द्वारा प्राप्त आय तथा ऋण हैं।

नगर निगम पर नियन्त्रण

(Control)

केन्द्र-शासित प्रदेशों वाले नगर निगमों पर केन्द्र सरकार तथा राज्यों में विद्यमान नगर निगमों पर राज्य सरकारों का नियन्त्रण रहता है। निगमों को उन्हीं कार्यों को सम्पादित करने की स्वतन्त्रता होती है जिनके लिए केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा निर्मित अधिनियमों के अन्तर्गत उन्हें अधिकृत किया गया है। नगर निगमों के कार्य-कलापों को न्यायपालिका में चुनौती दी जा सकती है।

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