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भारत शासन अधिनियम 1935 की त्रुटियाँ

1935 अधिनियम की त्रुटियाँ

1935 अधिनियम की त्रुटियाँ

1935 के अधिनियम के अंतर्गत भारत में कुछ नए सांविधानिक सुधारों की योजना रखी गई जिनमें प्रमुख थे- संघीय शासन की योजना तथा प्रांतीय स्वायत्तता की योजना प्रो० कूपलैंड ने 1935 के अधिनियम को एक बड़ी सफलता माना। उनके मत में इस अधिनियम ने भारत के भाग्य को अंग्रेजों के हाथ से भारतीयों के हाथ में हस्तांरित कर दिया। कूपलैंड के इस विचार से भारतीय सहमत नहीं थे। मुसलिम लीग के नेता मि० जिन्ना के अनुसार यह बुनियादी रूप से बुरा था और किसी भी तरह स्वीकार करने के लायक नहीं था। पं0 नेहरू ने इसे दास्ता का नया चार्टर बताया। उनके विचारों में इस अधिनियम ने हमको एक ऐसी मशीन दी जिसके ब्रेक तो बहुत मजबूत थे परंतु इंजन कोई नही था। इस अधिनियम की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की जाती है।

  1. उत्तरदायी शासन का अभाव

    इस अधिनियम के अंतर्गत केन्द्र में पूर्ण उत्तरदायी शासन की स्थापना की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया। उसके स्थान पर द्वैध शासन की योजना को लागू किया गया । द्वैध शासन की योजना प्रांतों में पहले ही सर्वथा असफल सिद्ध हो चुकी थी।

  2. संघ व्यवस्था एवं दोषपूर्ण सिद्धान्त

    1935 के अधिनियम के अंतर्गत संघ व्यवस्था दोषपूर्ण थी। इसके दोषों के कारण ही भारतीयों ने इसे अस्वीकृत कर दिया था।

  3. नागरिकों के अधिकारों का अभाव-

    यह अधिनियम भारतीय जनता के नागरिक अधिकारों के संबंध में मौन था। वस्तुतः इस अधिनियम में भारत की राष्ट्रीय भावनाओं पर गंभीरतापूर्वक विचार नहीं किया गया। भारत के राष्ट्रीय हितों पर ब्रिटेन के हितों में प्राथमिकता दी गई।

  4. अनेक अंकुश

    प्रांतीय स्वायत्तता पर बहुत अधिक सीमाएं लगा दी गई थी। विधान मंडलों की शक्तियों पर अनेक प्रकार के अंकुश थे। गवर्नरों तथा गवर्नर जनरल को इतने अधिक अधिकार दे दिए गए थे कि प्रांतीय स्वायत्तता निरर्थक हो जाती थी। इसका कारण यह था कि ब्रिटिश सरकार वास्तव में भारतयों को सत्ता देना ही नहीं चाहती थी। उसका एक मात्र लक्ष्य था भारत का आर्थिक शोषण और ब्रिटिश हितों की रक्षा। भारतीय हित अथवा राष्ट्रीय भावनाओं की उसे परवाह नहीं थी। ऐसी स्थिति में 1935 के अधिनियम से बड़ी-बड़ी आशाएँ रखना ही व्यर्थ था।

  5. साम्प्रदायिक भावना का विकास

    इस अधिनियम के अंतर्गत मतदाताओं को धर्म, वर्ग और लिंग के आधार पर बाँट दिया गया। जिससे राष्ट्रीय तत्त्व पूरी तरह बिखर गए और ब्रिटिश सरकार अपनी चाल में सफल हुई।

  6. गवर्नर जनरल और गवर्नरों के विशेषाधिकार

    इस अधिनियम के गवर्नरों को अनेक विशेष अधिकार दिए गए जिनको संरक्षणों का नाम दिया गया। गवर्नरों को दिए गए अधिकारों में कुछ उनके विवेक के अंतर्गत आने वाले अधिकार थे, कुछ व्यक्तिगत निर्णय से संबंधित थे और कुछ मंत्रियों की सम्मति द्वारा प्रयोग किए जाने वाले अधिकार थे। भारतीय जनता के प्रतिनिधियों की योग्यता में यह अधिकार अविश्वास से सूचक थे। अंग्रेज नौकरशाही इस देश में प्रजातांत्रिक शासन की सफलता में विश्वास नहीं रखते थे।

  7. सम्राट की प्रभुसत्ता

    इस अधिनियत में सम्राट की प्रभुसत्ता पर जितना बल दिया गया था उतना पहले किसी भी अधिनियम में नहीं दिय गया था। इससे भारत के संबंध में ब्रिटिश संसद को सभी अधिकार प्राप्त हो गए और भारत सचिव के नियंत्रणात्मक अधिकारों में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं हुआ। इसलिए किसी भी अर्थ में 1935 का अधिनियम एक स्वाधीन उपनिवेश का संविधान नहीं था बल्कि जैसा कि पं0 नेहरू ने कहा था, यह भारत की गुलामी का एक राजपत्र था।

  8. मूल अधिकारों का अभाव

    इस अधिनियम में भारतीय जनता के अधिकारों में भारतीय जनता के अधिकारों पर भी कोई ध्यान नहीं दिया गया। ऐसा लगता था कि इसमें भारत की राष्ट्रीय भावनों पर गंभीरतापूर्वक विचार ही नहीं किया गया था।

इस प्रकार यह अधिनियम निरंकुश और उत्तरदायी सरकार की खिचड़ी थी और भारतीय जनता की इच्छाओं के अनुरूप नहीं थी। अंग्रेज साम्राज्य भारत पर अपनी पकड़ ढीली करने को तैयार नहीं था। और उसने साम्प्रदायिक तथा प्रतिक्रियावादी तत्वों का सहारा लिया इसी कारण पं० नेहरू ने इसे अनैच्छिक, अप्रजातंत्रीय और अराष्ट्रीय संविधान की संज्ञा दी थी।

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